चार ग़ज़लें
डॉ. रामवृक्ष सिंह
(1)
वो नहीं है, मगर होने का ग़ुमां-सा क्यों
है।
मेरी ठंडी चिता में अब भी धुआँ-सा क्यों
है।।
एक भी लफ़्ज़ न बोला, न लिखा हर्फ़ कोई।
राज़-ए-उल्फ़त ये ज़माने पे अयां-सा क्यों
है।।
किसी वीरान बयाबां औ ख़लाओं-सा दिल।
इसमें सदियों से मोहब्बत का निशां-सा
क्यों है।।
मैं तो काफिर न था, ऐ मेरे खुदा तू ही बता।
तेरे बंदे को भला इश्के-बुतां-सा क्यों है।।
सब तमन्नाओं की तसकीन हो गई है मगर।
ज़ज़्ब-ए-इश्क फ़िज़ाओं में जवां-सा क्यों
है।।
(2)
आम इनसान के किरदार निभाकर देखो।
खुद का यह भार तो इक बार उठाकर देखो।
हमने जो महल बनाए हैं तुम्हारी खातिर।
उनमें एक ईंट तो सरकार लगाकर देखो।।
बंद कमरों की बहारों के शोख शहजादो।
तुम ज़रा जीस्त के सहराओं में आकर देखो।।
जिनके कन्धों पे रखा कौम का परचम तुमने।
उन ग़रीबों को भी सीने से लगाकर देखो।।
जिन चिरागों को मशालों में है तब्दील किया।
उन चिरागों को भी थोड़ा-सा उठाकर देखो।।
तुमने घर मेरा जलाया है कोई बात नहीं।
दोस्त तुम भी ज़रा घर अपना बसा कर देखो।।
फूल खिलते हैं कमल के जहाँ ऐ दोस्त मेरे।
उसकी सच्चाइयाँ पानी को हटाकर देखो।।
मेरी बस्ती में भी इन्सान बसा करते हैं।
दो घड़ी तुम भी मेरे साथ बिताकर देखो।।
चाँद-तारे भी इबादत के मुन्तज़िर होंगे।
चन्द लमहों के लिए हाथ हिलाकर देखो।।
तुमने नफ़रत तो निभाई बड़ी ही शिद्दत से।
प्यार के थोड़े से जज़्बात निभाकर देखो।।
(3)
भूख का अब भी कहर ज़ारी है।
लोभ ऐसी ही महामारी है।।
डाकुओं की अमीर बस्ती पर।
साधु संतों की पहरेदारी है।।
अपनी खुशियाँ मनाएं वो कैसे।
मेरी खुशियों पे बेकरारी है।।
वो न लिपटेंगे माँ के दामन से।
उनका किरदार माँ से भारी है।।
उसको तुमने चढ़ा दिया सिर पे।
दोस्त, सारी खता तुम्हारी है।।
सब तरफ छा गयीं अमर बेलें।
कल्पद्रुम, अब तुम्हारी बारी है।।
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(4)
लोग चेहरे पर
लगाए घूमते हैं इश्तहार।
इस शहर में
आदमी के हैं मुखौटे बेशुमार।।
बिक चुकी
धरती, तो बोली पर लगा है आसमां।
आदमी ने आदमी
का कर लिया है कारोबार।।
भूख थी ईमान
जिनका औ हकीकत मौत थी।
वे बशर लहदों
में करते ज़िन्दग़ी का इन्तज़ार।।
लोग आए ज़िन्दग़ी
की आरजू मन में लिए।
इस शहर में मौत भी मिलती नहीं हमको
उधार।।
या खुदा दे
सब्र सबको अपनी रहमत से नियाज़।
अपनी सादिक
आशिकी दे और दे दिल का करार।।
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