व्यंग्य
चलो, थोड़ा भ्रष्ट हो जाएँ
-डॉ. रामवृक्ष सिंह
-डॉ. रामवृक्ष सिंह
आजकल पत्नी हमारी बड़ी मनुहार कर रही हैं। उठते-बैठते, खाते-पीते,
जागते-सोते उनकी बस एक ही रट है- ए जी, आप भी क्यों नहीं भ्रष्ट हो जाते! देखिए न आसपास का सब लोग झार के भ्रष्ट हो गया है।
नेता-अभिनेता, मंत्री-यंत्री, साहब-बाबू, ठेकेदार-थानेदार, जिसे देखो भ्रष्टाचार
के झंडे गाड़ रहा है। और एक आप हैं कि टस से मस तक नहीं होख रहे। देखिए, ऊ का है कि अगर आप अब भी भ्रष्ट नहीं होंगे तो हम आपसे एकदम्मै नाराज
हो जाएँगे, हाँ..। कांता कामिनी के इस उपदेश का थोड़ा-थोड़ा असर अब हम पर होने लगा
है। फिर इधर परिवार के बाकी सब लोग भी हमसे नाराज चल रहे हैं। बात-बात पर झल्ला
जाते हैं। कारण यह है कि अपनी ईमानदारी की झख के चलते मोहल्ले में हम ही सबसे
खस्ताहाल हैं। बीवी को महँगी साड़ी हमने कब दिलवाई, अब कुछ याद नहीं। गहने तो शादी
के समय जो मिले थे, बस वही चल रहे हैं। बेटे बड़े हो गए। कॉलेज जाते हैं। लेकिन
मोटरसाइकिल एक ही है। कभी एक लपक ले जाता है तो कभी दूसरा। उनकी कोई बंधी हुई
पॉकेट मनी नहीं है। जरूरत पड़ती है तो माँ से माँगते हैं, जो सौ रुपये माँगने पर
पचास देती है। हमसे माँग नहीं सकते, क्योंकि हमारी जेब में बस दो चीजें रहती हैं,
एक बस का मासिक सीजन टिकट और दूसरा क्रेडिट कार्ड। चवन्नी-अठन्नी चाहे निकल आए, पर
रुपयों की उम्मीद करना यहाँ बेकार है।
हमसे कोई मिलने भी नहीं आता। उन्हें मालूम है, इस ईमानदार मरदुए के पास चाय
पिलाने के पैसे भी नहीं होंगे। घड़ी-घड़ी चाय-नाश्ता और पान-तंबाकू नहीं मँगाते,
इसलिए चपरासी भी हमें घास नहीं डालता। जाहिर है उसके हाथों हमें पानी मिलना भी मुश्किल
है। लोग वहीं जाते हैं, जहाँ तर माल काटने को मिले। मिसिल मशहूर है- यार दोस्त
किसके, खाया-पिया खिसके। बड़ी मुश्किल है, ईमानदारी ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा।
हमारे पास बहुत सी पुरानी चीजों का संग्रह है, जिनमें कुछ चालू हालत में तो बाकी
बेकार होकर भी बस इसलिए हमारे पास रह गई हैं कि और कोई उनको पूछेगा नहीं, कबाड़ी
खरीदेगा नहीं। चरित्र और ईमानदारी भी ऐसी ही ऐंटीक वस्तुएं हैं, जिन्हें हम गरीब
की आबरू की तरह बचाए-बचाए फिरते हैं। बस इसी सरमाए पर किसी तरह जिन्दगी घसीट रहे
हैं। हमारी हालत सड़क के बीच, डिवाइडर पर खड़े उस विक्षिप्त की तरह है जो
पुरानी-धुरानी बेकार चीजों को डंडे पर बाँधे खड़ा रहता है और हर आता-जाता उसे
कौतूहल की नजर से देखकर आगे बढ़ जाता है।
पर परिवार का क्या करें?
यों उनकी बुनियादी जरूरतें तो
ईमान की कमाई से भी पूरी हो जाती हैं, लेकिन अगल-बगल के लोग जिस ठाठ से जीते हैं,
उसे देखकर उन्हें जो कुढ़न होती है उससे उनको कैसे बचाएँ?
मसलन, पार्क के उस कोने में एक सज्जन की आलीशान कोठी है। वे सचिवालय में
सेक्शन अफसर हैं। सचिवालय की हनक में प्राधिकरण की ढेरों जमीन दबा ली है। मकान
बनवाया तो सब कुछ लगभग मुफ्त में मिल गया, गिट्टी-मौरंग-बालू सब खदानों से बस ट्रक
भाड़े के दाम उठवा लाए। ठेकेदार-सप्लायर की गर्दन दबाई और सीमेंट-सरिया, मार्बल भी
औने-पौने पा गए। उनके मकान जैसा झक सफेद चमचमाता मार्बल इधर किसी के घर में नहीं
है। पत्नी चाहती हैं कि हम उनसे होड़ करें। समझती नहीं कि सचिवालय में नौकरी करने
के क्या मायने होते हैं। दो घर छोड़ के एक डॉक्टर साहब रहते हैं। मेडिकल कॉलेज के
प्रोफेसर हैं। नॉन प्रैक्टिसिंग भत्ता लेते हैं, किन्तु घर पर मरीजों की भीड़ लगी
रहती है। एक मरीज को देखने के चार सौ रुपये वसूल लेते हैं। दूसरी ओर के दो घर
छोड़कर एक इंजीनियर रहते हैं। बिना कमीशन लिए किसी ठेकेदार का बिल नहीं पास करते।
दफ्तर की जीप घर पर ही खड़ी रहती है। कभी बीवी को ब्यूटी पार्लर ले जाती है तो कभी
बच्चों को कोचिंग। जीप का ड्राइवर, ड्राइवर का काम कम और घरेलू नौकर का काम ज्यादा
करता है। पीछे के बड़े मकानों में एक प्रशासनिक अधिकारी रहते हैं। उनके पास कई
विभागों का चार्ज है। सुना है जेल भी उन्हीं के अधीन है। छत पर खड़े होकर देखते
हैं तो जेल की ट्रक से कभी बोरा भर चीनी उतर रही होती है, कभी फिनाइल की बोतलों का
पूरा कार्टन। घर में निजी नौकर एक भी नहीं हैं। चाहे घास काटना हो, कुत्ते को
घुमाना हो, घर के बर्तन माँजना हो या झाड़ू-पोंछा। सब काम जेल के कैदी करते हैं।
लेकिन ऐसा तो दशकों से चलता चला आ रहा है। अब किसी को यह लगता ही नहीं कि यह सब
भ्रष्टाचार के दायरे में आता है।
इधर भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े रिकॉर्ड बनाए जा रहे हैं। सुना है कॉमन वेल्थ
गेम्स से जुड़े निर्माण कार्यों, खेल-सामग्री की खरीद और ठेकों के आवंटन में
करोड़ों रुपये के वारे-न्यारे हुए। फिर 2जी के आवंटन में अरबों रुपये इधर से उधर
कर दिए गए। इससे पहले क्रिकेट के खेल में खूब खेल हुआ। रोज एक नया काण्ड उजागर
होता है। अगर अखबार में किसी दिन किसी बड़े घोटाले की खबर नहीं छपती तो दिल बड़ा
बेचैन हो उठता है। लगता है कि हम जला-वतन हो गए। अपना देश अपना नहीं लगता। लगता है
कि नाली के कीड़े को उठाकर गुलाब जल में रख दिया गया है, जहाँ उसकी जान निकली जा रही
है। हम भ्रष्टाचार की नाली में जीने के अभ्यस्त हो चले हैं। अब यदि वहाँ स्वच्छता
दिख जाती है तो मन बड़ा अकुलाने लगता है।
भ्रष्टाचार के ऐसे सुन्दर माहौल में हमें भी हद दर्जे का भ्रष्ट हुआ देखने
की हमारी पत्नी और बच्चों की उत्कट आकांक्षा सर्वथा स्वाभाविक और काफी हद तक
श्लाघनीय है। यह बिलकुल ऐसे ही है, जैसे पड़ोसी के घर में एसी कार के आने पर अपने
घर में उससे भी बड़ी और शानदार एसी कार खरीदने की इच्छा, जैसे किसी रिश्तेदार के
बेटे को दस लाख रुपये नकद दहेज मिलने पर अपने बेटे के लिए पंद्रह लाख रुपये दहेज
के रूप में पाने की इच्छा। यानी यदि आस-पास के लोग, परिचित और रिश्तेदार हजार
रुपये का घोटाला करते हैं तो हम लाख रुपये का करें, यदि वे लाख का करते हैं तो हम
करोड़ का करें। बस किसी तरह घोटाला कर दें। किसी तरह अपनी संस्था, विभाग, मंत्रालय
और देश को करोड़ों-अरबों का चूना लगाकर हम रातों-रात अमीर हो जाएँ। उसके बाद मुँह
पर कालिख पोतकर गधे पर उल्टे बैठाए जाएं, सारे शहर में जूतों का हार पहने-पहने
घूमें, जेल जाएँ और सीबीआई वाले हमारा नार्को टेस्ट करें तो किया करें। यही तो
स्वातंत्र्योत्तर भारत में मिलने वाला सबसे अच्छा और श्लाघ्य मान-सम्मान है। पहले
लोग स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने पर जेल जाते थे। महिलाएं पिकेटिंग करती
थीं तो जेल जाती थीं। आजादी के बाद बहुत से मजदूर नेता अपने साथियों के हकों की
लड़ाई लड़ते हुए जेल गए। इमरजेंसी में बड़े-बड़े नेताओं को सरकार की दुर्नीतियों का
विरोध करने पर जेल भेज दिया गया। यानी वे सब उस जमाने के बड़े कारनामे करने पर जेल
भेजे गए। आज का बड़ा कारनामा है भ्रष्ट होना। भ्रष्टाचार करके जेल जाना तो शान की
बात है।
लिहाजा हुआ ये है कि हमने पत्नी और बच्चों की उत्कट इच्छा के आगे हथियार डाल
दिए हैं और अपनी ऐंटीक हो चुकी आयडियोलॉजी त्यागकर बिलकुल नई-नवेली, इन-थिंग यानी
इस भ्रष्टाचार वाली जीवन-पद्धति को अपनाने का मन बना लिया है। दिक्कत ये है कि इस
नई-नई राह पर चलने में हमें बड़ी कठिनाई हो रही है। समझ ही नहीं आता कि भ्रष्ट
होने की शुरुआत कहाँ से करें। काश कोई हमें सिखा देता, कहीं से भ्रष्टाचार की
डिग्री-डिप्लोमा करा देता। न हो तो सर्टिफिकेट कोर्स ही सही।
बच्चे हमारी पशो-पेश देखकर हम पर तरस खाते हैं। उन्हें हम पर हँसी आती है कि
लो ये भी कमाल के जीव हैं। इत्ते बड़े हो गए और भ्रष्टाचार का ककहरा भी नहीं
जानते। उन्हें हैरत होती है कि ऐसा नॉन-करप्ट इन्सान लगभग आधी सदी की जिन्दगी, वह
भी इस महाभ्रष्ट भरतभूमि में कैसे गुजार आया। भ्रष्टाचार के मामले में हमारी पतली
हालत देखकर दोनों लड़कों ने अपनी पढ़ाई-लिखाई की योग्यता में एक और इजाफा करने का
मन बना लिया है। अब वे इस जुगत में हैं कि कहीं कोई ऐसा विश्वविद्यालय मिल जाए,
जहाँ से वे एमओबी यानी मास्टर ऑफ भ्रष्टाचार की डिग्री ले सकें। भारत में
सफलतापूर्वक जीवन यापन के लिए आपके पास अन्यान्य योग्यताओं के साथ-साथ, इस योग्यता
का होना भी बेहद जरूरी है। हमें पूरा यकीन है कि यदि विश्वविद्यालयों में पढ़ाई
शुरू हुई तो इस विधा के सैकड़ों सिद्धहस्त प्रोफेसर हमें मिल जाएंगे, जो थ्योरी और
प्रैक्टिस, दोनों में हमारे बच्चों को पारंगत कर दें। फिर जैसे हर गली-हर कूचे में
बीटेक और एमबीए की दुकानें खुल गई हैं, वैसे ही शीघ्र ही अपने देश में हर दूसरी
इमारत में बीओबी यानी बैचर ऑफ भ्रष्टाचार तथा एमओबी यानी मास्टर ऑफ भ्रष्टाचार की
पढ़ाई कराने वाले विश्वविद्यालय खुल जाएँगे। एमओबी में प्रवेश के लिए बीओबी पास
होना जरूरी होगा। लेकिन जो लोग भ्रष्टाचार में लिप्त होने के दोषी सिद्ध होकर जेल
की सजा काट चुके होंगे उनको एमओबी में लैटरल एंट्री मिल जाएगी।
दिक्कत ये है कि हमारे बच्चों को इस विषय की डिग्री लेकर देश को लूटने और
अपना घर भरने की बड़ी जल्दी है। वे विश्वविद्यालय में इस विधा की पढ़ाई शुरू होने
तक इंतजार नहीं करना चाहते और देश के करोड़ों दूसरे भ्रष्टभ्यर्थियों की भाँति
रातों-रात अमीर होना चाहते हैं। इसलिए हमने उनसे कह दिया है कि तुम लोग दिल्ली चले
जाओ। वहाँ इस कला के सैकड़ों उस्ताद रहते हैं। उन्हीं में से किसी से गंडा बंधवा
कर प्राइवेट भ्रष्टाभ्यास करो। वहीं रहकर खूब रियाज करो। यदि उस्ताद का दिल जीत
सके तो उनसे भ्रष्टाचार के अच्छे से अच्छे गुर सीखकर खूब तरक्की करना और अपने
साथ-साथ अपने गुरु और इस नाकाम बाप का भी नाम रोशन करना, जो ऐंटीक नैतिक मूल्यों
से भरी हुई ऐसी नाव में सवार है, जो लाख कोशिशों के बाद भी भ्रष्टाचार के दलदल की
ओर बढ़ना ही नहीं चाहती।
बच्चे चलने लगे तो हमने उन्हें आशीर्वाद दिया- खूब भ्रष्ट होओ। दिन दूना,
रात चौगुना भ्रष्टाचार करो। देश को जल्द से जल्द बेच डालो। भ्रष्टाचार की दुनिया
में खूब नाम कमाओ। हम जो नहीं कर सके, तुम वह सब कुछ कर के दिखाओ। भ्रष्टाचार का
नोबल पुरस्कार जीत कर लाओ।
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