व्यंग्य
डेंगू-प्रसारी मादा मच्छर से मुलाकात
-डॉ. रामवृक्ष सिंह
-डॉ. रामवृक्ष सिंह
एक दिन डेंगू फैलाने वाली मादा मच्छर दिन-दहाड़े हमारे
आस-पास मंडराने और मध्यम सुर में गुनगुनाने लगी। उसकी नीयत हमें कुछ अच्छी नहीं
लगी। हमने रोककर पूछा- 'क्या बात है बेन? आज बड़े चक्कर काट रही हो। आखिर इरादा क्या है? '
मादा मच्छर बिहारी की प्रगल्भा नायिका की तरह बड़ी घाघ
निकली। चहककर बोली-'इधर खूब
खाया-पिया है आपने। जिम-विम जाकर खूब डोले-शोले भी बना लिए हैं। त्यौहारों के
मौसम में हीमोग्लोबीन काउंट भी मस्त हो गया है आपका। इसलिए सोचती हूँ कि थोड़ा-सा
खून पी लिया जाए। सच्ची, मजा आ जाएगा।'
हमें काटो तो खून नहीं। मोटी आय वालों से सरकार भी मोटी
दर पर आय-कर वसूलती है। राजनीतिक पार्टियों वाले मोटे सेठों से मोटा चंदा वसूल ले
जाते हैं। अब ये मादा डेंगू मच्छर भी मोटे-ताजे लोगों को पहचानने लगी है। साफ पानी
में रहती है। दिन-दहाड़े बींधती है और खाते-पीते आदमी को अपना शिकार बनाती है। ये
तो हद्द हो गई। हमने मादा मच्छर को बतरस में डुबाकर बरगलाने की कोशिश की- 'अरे बेन! इस गरीब के पास तुम्हें क्या मिलेगा! हिन्दी की सेवा करता है। रूखी-सूखी खाता है और अपनी
मस्ती में रहता है। इस फूले हुए शरीर पर मत जाओ। ये तो सब हमारी माँ का चमत्कार
है, जिसने पाँच साल का होने तक हमें अपना दूध पिलाया और उसके बाद बकरी और भैंस का
दूध पिला-पिलाकर हमें इतना मोटा-ताजा बना दिया। सच कहें तो हमारे खून में वो शिफा
नहीं, जिसकी तुम्हें तलाश है।'
मादा मच्छर ने बड़ी शरारत से हमें देखा। उसको सहसा
हमारी बात पर यकीन नहीं आया। फिर भी, वह थोड़ी देर के लिए थमी और भिनभिनाते हुए
बोली- 'मैंने देश
के बड़े-बड़े लोगों का खून पीकर देख लिया है। सबकी रगों का खून काला हो चुका है।
और जिनका काला नहीं हुआ, उनका सफेद हो गया है।'
हमें लगा कि मादा मच्छर हमें मुहावरे सुनाकर
लुभाना-रिझाना चाहती है। लेकिन इन मुहावरों के चक्कर में ही तो हमें हिन्दी से
प्रेम हो गया और प्रेम-प्रेम में बहुत दूर चले आए तो पेट पालने के लिए झक मारकर
हिन्दी अधिकारी बनना पड़ा। लिहाजा हमने उसे सच्ची बात समझाने की कोशिश की- 'अरे बेन, बात को समझा करो। उनका खून चाहे काला हो या
सफेद। उसमें प्लेटलेट्स खूब सारे हैं। वे लोग खूब गिजा खाते हैं। चैन से एसी में
रहते हैं। इस बेचारे हिन्दी अधिकारी के पास तुम्हें क्या मिलेगा? सूखी तनख्वाह पर जीने वाले जीव हैं। दाल-रोटी मिल जाए
तो बहुत। इस खुराक से ऐसा बढि़या खून कहाँ बनता है कि तुम्हें पसंद आ जाए! पता नहीं कैसे तुम्हारा मन हमारे खून पर आ गया! हमारे खून में प्लेटलेट्स गिनोगी तो खुद ही समझ जाओगी
कि इधर कुछ नहीं है।'
मादा मच्छर कब मानने वाली थी- 'क्या बात करते हैं श्रीमानजी। इधर-उधर, जहाँ देखिए
हिन्दी में काम करने के पोस्टर लगे हैं। खूब कार्यशालाएं होती हैं। खूब सेमिनार
होते हैं। बड़ी-बड़ी समितियाँ जगह-जगह दौरे करके सरकारी दफ्तरों में हिन्दी लागू
करवाती है। देश-विदेश में हिन्दी के जलसे होते हैं। हिन्दी का इकबाल तो हर जगह
बुलंद है। और आप कह रहे हैं कि हिन्दी की सेवा करनेवालो के शरीर में प्लेटलेट्स की
कमी है।'
हमें मादा मच्छर के अज्ञान पर रोना आया। हमने उसे
समझाते हुए कहा- 'किस दुनिया
में रहती हैं मोहतरमा? जो-जो
बातें आपने गिनाईं वे सब हाथी के दाँत हैं। ड्राइंग रूम की बातें हैं ये सारी। इस
देश में हिन्दी का तो बस नाम बचा है। सारे मजे तो अंग्रेजी लूट रही है। अंग्रेजी
लेखकों का उपन्यास पूरा नहीं होता कि प्रकाशक मोटी रॉयल्टी देकर खरीद लेता है।
हिन्दी लेखक को प्रकाशक ढूंढ़े नहीं मिलता। अंग्रेजी पत्रकार को खूब मोटी तनख्वाह
मिलती है, जबकि हिन्दी वाला धक्के खाता है। अंग्रेजी अखबार में विज्ञापन ऊंची दर
पर छपता है, हिन्दी वालों को कोई विज्ञापन देता ही नहीं। अंग्रेजी स्कूल खूब चलते
हैं, हिन्दी स्कूल को कोई पूछता नहीं। गिटपिट अंग्रेजी बोलनेवालों को ऊंची पगार पर
नौकरी मिल जाती है, हिन्दी बोलनेवाले को लोग गँवार समझकर गेट से बाहर कर देते हैं।'
न जाने मादा मच्छर को क्या हुआ। वह हमसे दूर जा बैठी।
उसकी यह बेरुखी हमें कुछ खास अच्छी नहीं लगी। अरे हमारे खून की गुणवत्ता ठीक नहीं
है तो खून न पिए, पर ढंग से बात तो करे। उसकी बॉडी लैंग्वेज से हमें रेशा-रेशा
उपेक्षा टपकती दिखी। बेरुखी का कारण पूछने पर बड़े बेमन से बोली- 'जब तुम्हारे पास कुछ है ही नहीं, तो मैं तुम्हारा खून
क्यों पिऊँ? फालतू ही
टाइम खराब किया। इससे अच्छा तो होता कि मैं कहीं और ट्राई करती।'
'मैं तो पहले ही कह रहा था बेन। अपुन टिपिकल मिडिल क्लास
हैं। बस ऊपरी टीम-टाम है। अंदर से सब खोखला। उधार का घर, किस्त की कार, किस्त का
टीवी, पूरी जिन्दगी किस्त चुकाते निकल जाती है। अपना खून पी लोगी तो तुम्हें फायदा
चाहे न हो, किस्त चुकाने की चिन्ता जरूर होने लगेगी। समझी बेन... '
हम अपनी बात समाप्त करते कि मादा मच्छर झुंझलाकर बीच
में ही बोल पड़ी-
'डोण्ट कॉल मी बेन। अंडरस्टुड ? मैडम बुलाओ, बुलाना है तो। वरना अपना काम देखो। खून
में प्लेटलेट्स तो हैं नहीं। मार मोटाए घूम रहे हैं। उधार में रोयाँ-रोयाँ डूबा
है..। बात-बात पर इनका खून सूख जाता है। जिगरा कुछ है नहीं..चले हैं बड़े अधिकारी
बनने। ऐसे मरदुए का खून पीकर हमें अपना धर्म नहीं बिगाड़ना।'
हमें बुरा तो बहुत लगा कि एक मादा मच्छर ने हमारी
किरकिरी कर दी। लेकिन करते क्या! मन मसोसकर रह गए। तपाक से बोले-'सॉरी मैडम।' फिर खयाल
आया कि अरे यार, हम तो डेंगू से बख्श दिए गए। तुरन्त बोले- 'थैंक्यू मैडम।'
पता नहीं प्रगल्भा मादा मच्छर ने सुना कि नहीं। वह तो
अपनी ही मस्ती में किसी मोटे आसामी की तलाश में उड़ चली।
(नोट- भारतीय साहित्य शास्त्र में नायिकाओं के कई भेद हैं। उम्र के हिसाब से कहें तो कम उम्र वाली यानी प्यूबर्टी के उम्र में आई नायिका को नवोढ़ा और जीवन के अनुभवों से खूब परिपक्व हो चुकी, खेली-खाई, लगभग पोस्ट थर्टी नायिका को प्रगल्भा कहेंगे। इतना खुलासा उन मित्रों के लिए जो नायिका-भेद से अनभिज्ञ हैं, और जिनके लिए प्रगल्भा शब्द किसी अबूझ पहेली जैसा है।)
(नोट- भारतीय साहित्य शास्त्र में नायिकाओं के कई भेद हैं। उम्र के हिसाब से कहें तो कम उम्र वाली यानी प्यूबर्टी के उम्र में आई नायिका को नवोढ़ा और जीवन के अनुभवों से खूब परिपक्व हो चुकी, खेली-खाई, लगभग पोस्ट थर्टी नायिका को प्रगल्भा कहेंगे। इतना खुलासा उन मित्रों के लिए जो नायिका-भेद से अनभिज्ञ हैं, और जिनके लिए प्रगल्भा शब्द किसी अबूझ पहेली जैसा है।)
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