Thursday, 23 August 2012


                                                                  कोरी गप्प
सच का सामना
                               -डॉ. रामवृक्ष सिंह

      आजकल सच का बड़ा बोलबाला है। जिसे देखो सच बोलकर हरिश्चद्र बनने पर आमादा है। खुद तो खुद, लोग-बाग दूसरों से भी सच उगलवाने पर उतारू हैं। इसमें सबसे पहले गाज गिरती है पति या पत्नी पर। अब यह बात अपने देश में कौन नहीं जानता कि विवाह जीवन का बहुत बड़ा समझौता है? ऐसा समझौता जिसमें बहुत-सी बुराइयों पर मिट्टी डालनी पड़ती है। सच कहें तो समझौते सब होते ही ऐसे हैं- दो कदम आप चलिए, दो हम चलते हैं। ऐसे ही जिन्दी कट जाएगी। हमारी दो बुराइयाँ आप देखिए, दो हम आपकी अनदेखी करते हैं। इससे प्रेम या कम से कम प्रेम का मुगालता बना रहेगा। लेकिन इधर पता नहीं लोगों को क्या बीमारी लगी है कि वे आपस में भी एक-दूसरे का सच उगलवाने में जुटे हुए हैं। खैर, सच उगलवा लो, लेकिन उसे सहने का माद्दा भी तो रखो। क्योंकि सच तो उस विषैले नाग की तरह है जो एक बार अपनी बांबी से निकल आया तो फिर जाने कितने लोगों को डसकर धराशायी कर देगा। इसीलिए अपने यहाँ कहा भी है- ब्रूयात् सत्यं अप्रियं।

      हम भी क्या करें, सच बोलने और बुलवाने की संक्रामक बीमारी एक दिन हमारे घर में भी घुस गयी। एक दिन जरा फुरसत में थे तो पत्नी ने पकड़ लिया। बोलीं - आज बड़ी फुरसत है, बिजली नहीं रही, टीवी-केबल सब बंद है। कल राष्ट्रीय छुट्टी रही, जिसके कारण आज पेपर भी नहीं आया। आइए टाइम पास करने के लिए सच का सामना खेलते हैं। हम सकपका गए। पत्नी को भी कैसा खतरनाक खेल सूझा। सच और अपने पास! अपन के राम स....री तंत्र में काम करने की क्वार्टर सेंचुरी मार चुके हैं और सत्यनिष्ठा को हजारों बार औँधे मुँह गिरते देखा है, जलील होते, बेआबरू होकर अपने कूचे से निकलते देखा है। हालांकि हर साल सतर्कता जागरूकता सप्ताह में सत्यनिष्ठा की कसम खाते हैं, पर शापित हैं झूठ का साथ देने को। सच की आँख में आँख डालकर उसका सामना हम कैसे कर सकते हैं? बहुत कोशिश की कि पत्नी की इस जिद से किसी तरह पीछा छुड़ा लें, किन्तु वे तो पूरी तरह आमादा ही हो गयीं सच का सामना खेलने के लिए।

      मरता क्या करता? झख मारकर हमें हथियार डालना पड़ा। लेकिन हम भी कोई कम घाघ नहीं हैं। हमने लेडीज फर्स्ट की रट पकड़ ली और पत्नी को विवश कर दिया कि पहले वे हमारे सवालों का सामना करें। विवश होकर पत्नी को सहमत होना पड़ा। हमने बड़े धांसू-धांसू सवाल पूछे, अच्छा हुआ कि हमारे पास कोई पोलीग्राफ मशीन नहीं थी, वरना उस दिन हमारे वैवाहिक जीवन का शीराजा बिखर जाता और जाने क्या से क्या हो जाता। हमारे कुछ सवालों की बानगी तो देखें- अच्छा तुम बताओ कि हमारे मुँह से सुबह-सुबह जो पायरिया की बदबू आती है, उसके कारण कभी तुम्हारे मन में यह विचार नहीं आता कि इस आदमी को फिनाइल की पूरी बोतल पिला दूँ ताकि इसकी बदबू हमेशा के लिए खत्म हो जाए?  ये बताओ कि रात-दिन पान खाने से सड़े हुए, मेरे काले-काले दाँत देखकर क्या तुम्हारे मन में कभी यह खयाल आया है कि सिल-बट्टे से इसकी सारी बत्तीसी झाड़ दूँ, ताकि जिन्दगी भर के लिए ऐसे गंदे दाँतों को सहने का झंझट ही खत्म हो जाए? अच्छा ये बताओ कि मेरे शरीर से आनेवाली पसीने की बदबू से क्या कभी तुम्हें मितली नहीं आयी है? जब मैं दफ्तर से लौटकर बदबू मारते मोजे से पैर निकालता हूँ और वैसे ही गंधाता हुआ पूरे घर में, यहाँ तक कि बिस्तर में भी घुस जाता हूँ तो क्या तुम्हें नहीं लगता कि ऐसे सड़ांध में पके औघड़ का तो दुनिया में न होना ही बेहतर है?  हमें पक्का विश्वास था कि इन सवालों के जवाब तो पत्नी सही-सही दे ही देंगी। यों सवाल तो बहुत-से हो सकते थे लेकिन हमें लगता है कि क्या गड़े मुरदे उखाड़ें?  अपनी ही पत्नी को झेंपने पर विवश करना क्या अच्छा लगेगा? इसलिए हमने पत्नी से ऐसे सवाल नहीं पूछे जिनके लिए शास्त्रकारों ने वर्जना की है- ब्रूयात् सत्यं अप्रियं।

      पत्नी ने भी हमसे रियायत की। प्रश्न बड़ी ज्वलंत समस्याओं पर आधारित थे, किन्तु उन्होंने हमारे मनभावन उत्तर दिए। चापलूसी सबको पसंद है। हम पत्नी के जवाबों की लक्षणा-व्यंजना में नहीं गए। अभिधा में ही समझ लिया। यही सुकर और व्यावहारिक लगा। भारतीय महिला, वह भी बेचारी घरेलू महिला। माताजी और बूढ़ी ददिया ने शादी में विदाई करते हुए हिदायत देकर भेजा- जिय बिन देह नदी बिन बारी, तैसेहिं नाथ पती बिन नारी, दहेज और दावत के बाद लगभग लुट चुके बाप ने समझाया-पति के घर डोली उतरती है और वहाँ से अरथी ही उठती है।, बच्चे पंख निकलते ही घोंसला छोड़कर उड़ चुके हैं और अपनी दुनिया में रमे हुए हैं। कुल मिलाकर पति का ही आसरा। उस पति को कैसे नाराज़ कर सकती हैं? इसलिए उन्होंने भी मुरव्वत दिखाते हुए ऐसे सवाल पूछे, जिनके उत्तर हम सहजता से दे पाएँ, जैसे- आप ये बताएँ कि आपको दफ्तर ज्यादा अच्छा लगता है या घर? हमने कहा दफ्तर। पत्नी को हैरानी हुई, तफ्सील माँगी गई तो हमने तपाक से कहा- वहाँ हमारी पूरी खातिर तवज्जो होती है। गरमियों में दिन भर .सी. चलाओ, सर्दियों में हीटर। बिजली के बिल की कोई चिन्ता नहीं। कंप्यूटर मॉनीटर पर किसी की निगाह जाती हो तो दिन भर इंटरनेट की मनमाफिक वेबसाइट खोले बैठे रहो। चाहे वीडियो गेम खेलो। साथियों से गप्पें मारो। महिला सहकर्मी यदि सुदर्शना हों और लिफ्ट देती हों तो फ्लर्ट करो। इधर-उधर फोन मिलाकर रिश्तेदारों-नातेदारों से बातें करो, टेलीफोन बिल तो सरकार भरेगी। हमें उससे क्या? दफ्तर में मन न लगे तो आस-पास किसी पार्क में जाकर मूँगफली फोड़ो, सेल में घूम आओ। पास में कोई मॉल हो तो वहाँ जाकर आँखें सेंक आओ। घर में ये सब कहाँ! पत्नी को हमारी बेबाकी अच्छी लगी। फिर पत्नी ने बड़ी हिम्मत करके पूछा- अच्छा ये बताइए कि मैं आपको अच्छी लगती हूँ या पड़ोसिन? हमने इस मामले को गोल कर दिया और बिहारी के दोहे की एक लाइन सुना दी- समय-समय सुन्दर सबै, रूप-कुरूप कोय। पत्नी खुश हो गईं- चलो किसी समय तो मैं भी अच्छी लग ही जाती हूँ। मन ही मन सोचा होगा कि तुम ही कौन से कामदेव हो?

      ऐसे ही सच का सामना खेलते-खेलते हम अपने कल्पना लोक में चले गये और सोचने लगे कि यदि नियोक्ता अपने प्रतिष्ठान के लिए कर्मचारियों की भर्ती हेतु साक्षात्कार लेते समय चुपके से उसकी सीट के नीचे या कुर्सी के किसी हिस्से में पोलीग्राफ मशीन फिट करा दे और कर्मचारी के मन की बातें जान सके तो क्या होगा? मसलन .... सेवा ...योग में देश के चुनिंदा प्रशा...क पदों पर साक्षात्कार के समय उम्मीदवार बड़े आदर्शपरक उत्तर देकर नियुक्ति पा लेते हैं। यदि पोलीग्राफ मशीन से उनके मनोभाव जाने जा सकें तो क्या हो? एक बानगी देखें-
प्रश्न  : आप ....... सेवा में क्यों आना चाहते हैं?
उम्मीदवारः देश-सेवा के लिए (सत्यान्वेषी यंत्रः अरे बुढऊ, ये भी कोई पूछने की बात है? हम आना चाहते हैं, अपने वारे-न्यारे करने के लिए। करोड़ों रुपये पीटने के लिए। सेवा-वेवा तो खाली तुमको पागल बनाने के लिए कह रहे हैं। तनख्वाह छुएँगे नहीं। देश को लूटकर अपना घर भरेंगे)
प्रश्न : वर्षा कम होने से देश को क्या नुकसान है?
उम्मीदवारः फसलें कम होंगी और किसान को बहुत कष्ट होगा (सत्यान्वेषी यंत्र- तभी तो मजा आएगा। खूब सारी सरकारी मदद आएगी। विश्व बैंक से सहायता मिलेगी। नेता, ठेकेदार, अफसर और गैर सरकारी संगठन सब मिलकर उसकी बंदरबाँट करेंगे। हम होंगे इस सारी लूट के केंद्र में।)
यदि इसका उलटा कर दें,  यानी कि सत्यान्वेषी यंत्र प्रश्नकर्ता की सीट में फिट कर दें तो क्या स्थिति निर्मित होगी? एक बानगी देखें-
उम्मीदवार एक सुदर्शना और सुन्दर देहयष्टि वाली युवती है। वह जैसे ही साक्षात्कार-कक्ष में प्रवेश करती है, सबकी बाँछें खिल उठती हैं। साक्षात्कर्ता उसका स्वागत करता हैः आइए-आइए, बैठिए (सत्यान्वेषी यंत्रः वाह! क्या माल है! ऐसी सुन्दर लड़की अपनी जिन्दगी में जाए तो अपनी ऐश हो जाए। लाइफ बन जाए।)
उम्मीदवारः जी , धन्यवाद।
साक्षात्कर्ताः आपकी क्वालिफिकेशन क्या है? क्या कोई अनुभव है? (सत्यान्वेषी यंत्रः आपके मेज़रमेंट्स क्या हैं? इतनी सुन्दर देहयष्टि वाली लड़की होकर भी क्या आप अभी तक डेट पर नहीं गई हैं? इंटरव्यू के बाद क्या आप मेरे साथ डेट पर जाना पसंद करेंगी?)
उम्मीदवारः बी.एस.सी.। एम.बी..। अनुभव नहीं है।
साक्षात्कर्ताः अच्छा-अच्छा। अनुभव नहीं है तो भी कोई बात नहीं। (सत्यान्वेषी यंत्रः मन तो नहीं मानता कि अनुभव नहीं है। पर नहीं है तो अच्छा ही है।)

यानी आप सोच भी नहीं सकते कि कैसी-कैसी विकट स्थितियाँ पैदा होंगी। लोग एक-दूसरे के मन की बातें जान लेंगे तो उनका आपस में उठना-बैठना मुश्किल हो जाएगा। एक जगह मिलजुलकर काम करना और साथ रहना कठिन हो जाएगा। बॉस को पता चल जाएगा कि जो अधीनस्थ उसे रोज सुबह नमस्कार करता है, खींसें निपोर-निपोरकर हर बात में हाँ में हाँ मिलाता है, दरअसल उसके  मन में बॉस के लिए ढेरों गालियाँ भरी होती हैं। वह रात-दिन प्रार्थना करता है कि बॉस किसी तरह निपट जाए तो इसका पद मुझे मिल जाए। इसी प्रकार अधीनस्थों को भी पता चल जाएगा कि बॉस तो हमें बस पागल बनाता है। किसी तरह अपना काम निकलवाता है। टीन-एजर लड़के जिस सुदर्शना प्रौढ़ा पड़ोसिन को आंटी-आंटी कहकर आदर दिखाते नहीं थकते, उसे लड़कों के असली मनोभाव पता लगेंगे तो वह भला क्या सोचेगी? और उसके सोचने के विषय में अगर उसके पति को पता लगेगा तो उस बेचारे अंकल पर क्या बीतेगी? हे राम! सब गड़बड़ झाला हो जाएगा। पूरी समाज-व्यवस्था का शीराजा बिखर जाएगा। ऐसे घर-फोड़ू सच से तो अपना झूठ ही सही।

किसी पुरानी हिन्दी फिल्म का एक मशहूर रोमांटिक गीत है- पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले, झूठा ही सही। सच कहें तो इस झूठ में बड़ी ताकत है। दुनिया के करोड़ों जोड़े जिन्दगी भर किसी और की यादों में खोए रहते हैं लेकिन रोज-मर्रा का सारा कारोबार पति या पत्नी के साथ पूरा करते हैं। करोड़ों लोग फैंटेसी की दुनिया में रहते हैं और अपने पसंदीदा हीरो-हीरोइन की कल्पना करके ही दैनंदिन के काम निपटा लेते हैं। रूमानियत अपने-आप में झूठ है, फरेब है, कोरी कल्पना है। लेकिन रूमानियत से शून्य संसार की कल्पना करना भी असंभव है। तर्कवादियों के तईं भगवान का अस्तित्व अपने-आप में सबसे बड़ी रूमानी कल्पना है। उनकी दृष्टि में ईश्वर की परिकल्पना ही सबसे बड़ा झूठ है। लेकिन अंततः प्रायः हर आदमी अपने दिल की तसल्ली के लिए भगवान की शरण में जाता है। दिल के बहलाने को गालिब खयाल अच्छा है। ये सुन्दर संसार छोड़ने का मन नहीं करता। मृत्यु शाश्वत सत्य है। इस सुन्दर, चित्र-विचित्र दुनिया को छोड़कर जाना तो पड़ेगा ही। फिर हम झूठ का सहारा लेते हैं और दिल को बहलाते हैं- ऊपर बिग बॉस यानी भगवान के घर में इससे भी सुन्दर संसार है, जिसका नाम है स्वर्ग। अच्छे-अच्छे काम करो- तुम्हारी देह के मर जाने पर भी तुम नहीं मरोगे- न म्रियते जायते वा। बल्कि इस मृत्युलोक से भी सुन्दर, ऐशो-आराम वाली दुनिया में डेपुटेशन पर भेजे जाओगे। भगवान ने स्थायी नियुक्ति पर बुला लिया तो सीधे बैकुंठ धाम। और यदि इस जन्म में उतने अच्छे काम नहीं कर पाए, सी.आर. में अच्छी एंट्री कराकर, बॉस को खुश करके स्वर्ग की सीट नहीं बुक करा पाए तो अपने कर्मानुसार चौरासी लाख योनियों में से किसी न किसी योनि में जन्म पाकर फिर से इसी दुनिया में आओगे। तुम्हारा पुनर्जन्म होगा। मृत्यु नामक वीभत्स सच्चाई की विभीषिका से डरा-सहमा हमारा दिल इस कोरी गप्प से बहल जाता है। तर्कवादी गालिब कहता है- हमको मालूम है जन्नत की हकीकत।

इधर टेलीविजन महाराज दूर से दर्शन कराने के बजाय माइक्रोस्कोपिक हो गए हैं और लोगों के निजी जीवन की एक्स रे मशीन की भूमिका में आ गए हैं। टीवी चैनल वाले कैमरा और माइक्रोफोन लिए-लिए लोगों के बेडरूम में जा घुसे हैं। सब कच्ची-पक्की बातें सार्वजनिक हो रही हैं। कामदेव और रति की अस्थि-मज्जा-युक्त कमनीय काया में छिपी अंतड़ियों में भरा मल-मूत्र सबके सामने उजागर हो गया है। मस्तिष्क में भरा कचरा बाहर आकर बदबू मारने लगा है। अति परिचय होने के कारण अब उनके प्रति अनादर की भावना जन्म लेने लगी है। ये तो होना ही था। ग्राम-वासिनी दादी अम्मा की कहावत है- पहनी ओढ़ी मेहरी, लीपी पोती देहरी- सबको अच्छी लगती है। मेहरिया को जरूरत से ज्यादा उघाड़ो मत और देहरिया को भली-भांति लीप-पोतकर रक्खो। जिन्दगी में कुछ तो भरम रहने दो। ज्ञानी लोग इसी को माया कहते हैं। लाख झूठा और छलावा सही लेकिन माया का आवरण है तो जिन्दगी खूबसूरत है। माया के आवरण को हटाओ मत। झूठी माया के पीछे ऐसा भयानक सच छिपा बैठा है, जिसकी झलक मिलते ही, गश खाकर गिर पड़ोगे।■■■

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