Tuesday, 28 August 2012

हिंदू कॉलेज और जुबली हॉल (डी यू) में परवान चढ़ी नाकाम प्रेम-कहानी


                                                                       कहानी
हरसिंगार
                                                                  डॉ. रामवृक्ष सिंह

      हरसिंगार के फूल झरकर मृदा में समाविष्ट हो चुके थे। मई की तपती दोपहरी में भी अमलतास खड़ा इतरा रहा था। अंजू को किसी भी तरह रामेश्वर से नोट्स लेने थे। इसीलिए उस झुलसती गर्मी में लू के थपेड़े झेलकर भी वह होस्टल पहुँच गयी थी। अधिकतर कमरे बंद थे। दोपहर का भोजन करके छात्र या तो पढ़ने के लिए लाइब्रेरी चले गये थे या आराम कर रहे थे। कुछ की दूसरी पाली में परीक्षा थी। सभी गलियारे सूने पड़े थे। सहशिक्षा वाले इस कॉलेज में छात्रावास की सुविधा केवल लड़कों के लिए थी। लेकिन लड़कियों के आने-जाने पर भी किसी प्रकार की रोक-टोक न थी। कक्षाएं चल रही होतीं तो झुंड के झुंड लड़कों-लड़कियों का आना-जाना लगा रहता । होस्टल के मुख्य द्वार के सामने ही कॉलेज कैंटीन थी। यहाँ खाने-पीने और मौज-मस्ती के दौर चलते ही रहते। रंग-बिरंगी पोशाकों में सजी लड़कियाँ और तरह -तरह के रूप धरे लड़के अपनी गाड़ियों पर या फिर लॉन में छितरायी कुर्सियों पर बैठकर चहकते रहते। लेकिन परीक्षाएँ खत्म होते-होते यहाँ की रौनक भी चली जाती। कुछ दिनों से अंजू प्रायः ही रामेश्वर से नोट्स लेने आती है। बी.. तो उसने रामेश्वर से पहले ही कर लिया था, लेकिन उसके बाद उसने बी.एड. किया। फिर एम.. में प्रवेश लिया। रामेश्वर की पढ़ाई निर्बाध जारी थी। उसने अच्छे अंकों से बी.. किया और एम.. के सबसे कुशाग्र छात्रों में गिना जाता था। फिर वह लड़कियों को आसानी से अपने नोट्स दे भी देता था। बी.. के अच्छे परिणाम के आधार पर उसे सिंगल सीटर यानी अकेले के लिए पूरा कमरा मिल गया था। होस्टल आकर नोट्स लेना आसान और सुविधाजनक था। इसलिए अंजू प्रायः नोट्स  लेने आ जाती। अंजू ने धीरे से दरवाज़े को ठेला तो वह बिना आवाज़ किये, खुद ब खुद खुल गया। भीतर का तापमान भी कुछ कम नहीं था। पंखा फड़फड़ाता हुआ, हवा को जैसे चीर रहा था। रामेश्वर अपनी मेज पर झुका कुछ लिख रहा था। दरवाज़े की ओर गरदन मोड़कर उसने हल्के से मुस्कुराकर अंजू का स्वागत किया।
      ‘‘क्या लिखा जा रहा है? ’’ अंजू ने बहुत ही मंद स्वर में मादकता घोलते हुए पूछा और मेज पर झुक गयी।
      ‘‘खुद ही देख लो।’’ रामेश्वर ने कलम रोककर बायें हाथ से अंजू की कमर को बाँहों में कसकर अपने करीब घसीटते हुए लगभग फुसफुसाकर कहा- ‘‘ लेकिन प्लीज, ज़रा उससे पहले दरवाज़े की कुंडी चढ़ा दो।’’
      दरवाज़ा बन्द हो गया। रामेश्वर ने अंजू को उसकी इच्छानुसार सभी नोट्स दिखा दिये और जो-जो चाहिए थे, वे सभी नोट्स दे दिये। अंजू जब भी उससे नोट्स लेती, उसके आश्चर्य और आठाद की सीमा न रहती। उसने कभी कल्पना भी न की थी कि रामेश्वर के पास इतने अच्छे नोट्स होंगे। कुछ औपचारिक बातचीत के बाद, रामेश्वर के ही जूठे गिलास से ठंडा पेय पीने के बाद वह जाने को उद्यत हुई। खुद को संभालकर, बाहर निकलने के लिए वह तैयार ही थी कि दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी।
      ‘‘कौन? ’’ रामेश्वर ने अचकचाकर पूछा।
      ‘‘रामेश्वर, दरवाज़ा खोलो, मैं हूँ, संध्या।’’ वैसे संध्या अपना नाम न भी बताती तो भी रामेश्वर उसके स्वर को पहचान लेता।
      ‘‘ठीक है। ज़रा रुको। अभी खोलता हूँ।’’ कहते हुए, रामेश्वर ने लपककर कमरे का पीछे का दरवाज़ा खोलकर अंजू को विदा किया और उसे बंद करके आगे का दरवाज़ा खोला।
      ‘‘कितनी देर से मैं लू के थपेड़े झेल रही हूँ, रामेश्वर। तुम सो रहे थे क्या? ’’ संध्या ने रोष जताते हुए कहा और दरवाज़ा भेड़ती हुई कमरे में खिसक आयी। छतरी लगाने के बावज़ूद उसका गोरा चेहरा गरमी से तमतमा रहा था।
      ‘‘हाँ, ज़रा देर के लिए आँख लग गयी थी। आजकल नोट्स तैयार करने में बड़ी मेहनत करनी पड़ रही है न।’’ रामेश्वर ने अंगड़ाई लेते हुए कहा। थक तो वह गया ही था।
      संध्या भी रामेश्वर से नोट्स लेती रही है। यह कहानी चार वर्ष पुरानी है।
      प्रवेश प्रक्रिया पूरी हो गयी, रैगिंग का दौर गुजरा और वातावरण में कुछ स्थिरता आयी तो छात्र संघ के चुनाव हुए। इस तमाम गहमागहमी के बाद अक्तूबर में नियमित कक्षाएं आरंभ हुईं। दिल्ली की हवा में गुलाबी ठंडक का आभास मिलने लगा। स्कूली यूनिफार्म और समय की पाबंदी से मुक्त हुए छात्र-छात्राएं रंग-बिरंगी, इत्र-वसित पोशाकों में सजे-धजे स्वतंत्रतापूर्वक कक्षाओं में आते। उनका अधिकांश समय गलियारों, कैंटीन या कॉमन रूम में बीतता। लड़के कक्षाओं में कम ही आते। आते भी तो बेतरतीब से। न किताब साथ लाते, न कापियाँ। कोई एक पैड उठाकर ले आता, तो कोई बगल में डायरी दबाए चला आता। लड़कियाँ फिर भी अलग-अलग डिजाइनों के बैग और किताब-कापी लेकर आती थीं। लड़कों में बस एक रामेश्वर ही था, जो हमेशा संबंधित विषय की पुस्तकें और लंबे, जिल्द चढ़े रजिस्टर लेकर क्लास करने आता था। वह बाकायदा नोट्स बनाता। लिखावट उसकी बेहद सुन्दर थी। कक्षा में सदैव सचेत रहता और विषय से संबंधित सभी प्रश्न तैयार करके आता। उसकी मेधा से सभी चकित थे।
      शाहदरा  से तीन लड़कियाँ एक साथ आती थीं- सुरेखा, स्मिता और संध्या। उनकी नाम-राशियाँ ही एक नहीं थीं, बल्कि उनका स्वभाव भी काफी मिलता था। तीनों ही सुन्दर थीं, किन्तु संध्या सबसे खिली-खिली, गौर-वर्णा और तीखे नैन-नक्श वाली थी। सुरेखा परंपरागत व्यावसायिक पृष्ठभूमि वाले मारवाड़ी परिवार से संबंधित थी और उसी अनुपात में अपेक्षाकृत धीर-गंभीर भी। स्मिता के पिता को दिवंगत हुए कुछ ही समय हुआ था। बड़े भाई और माँ मिलकर जनरल स्टोर चलाते थे और उससे उम्मीद करते थे कि वह बी.. करके अच्छा वर पाने योग्य बन जाए। संध्या के पिता रेलवे में अधिकारी थे और भाई कस्टम अधिकारी। खाता-पीता परिवार। पिता और भाई की लाड़ली संध्या में आत्म-विश्वास कूट-कूटकर भरा था। हालांकि सभी लड़कियाँ रामेश्वर से नोट्स लेने को उत्सुक रहती थीं, किन्तु उससे सीधे-सीधे पूछने की हिम्मत संध्या ने ही दिखाई -
      ‘‘रामेश्वर, मैंने इस विषय पर किताबें ढूंढ़ने की बहुत कोशिश की, लेकिन कोई किताब नहीं मिली। जो मिली भी, उसमें इस टॉपिक वाले पन्ने गायब थे। क्या तुम मुझे इसके नोट्स दे दोगे? ’’ संध्या ने एक दिन रामेश्वर से पूछ ही लिया।
      ‘‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं। लेकिन अभी तो नोट्स मेरे पास नहीं हैं। तुम क्लास के बाद साथ चलकर या फिर कल होस्टल में आकर ले लो।’’ रामेश्वर ने सहजता से कहा।
      ‘‘ठीक है, तो फिर मैं कल क्लास शुरू होने के पहले आकर ले लूँगी।’’ संध्या ने आश्वस्त होते हुए कहा। उसे उम्मीद नहीं थी कि रामेश्वर इतनी सरलता से मान जाएगा।
      अगले दिन संध्या ने धड़कते दिल से रामेश्वर के कमरे में प्रवेश किया। तीन बिस्तरों वाला वह कमरा ज़रूरत से कुछ ज्यादा ही भरा-भरा दिखता था। लेकिन रामेश्वर का बिस्तर, उसकी किताबें, उसकी मेज, सब कुछ बिलकुल अलग नज़र आता था- साफ-सुथरा, धुला-पुंछा। मेज़ पर करीने से मेज़पोश बिछा था। बिस्तर की चादर खींच कर ठीक कर दी गयी थी। रैक में कवर चढ़ी किताबें बड़ी तरतीब से लगी थीं। रजिस्टरों पर खाकी कागज चढ़ा था। कमरे का वह कोना भीनी-भीनी खुशबू से महक रहा था। मेज के खाली हिस्से में अंजुरी भर हरसिंगार के फूल- रक्तिम वृन्तों पर धवल आभा लिए। लगता था कि सौन्दर्य की देवी की पूजा- अभ्यर्थना के लिए अभी-अभी कोई पुजारी उन फूलों को अंजुरी में भर लाया हो। संध्या मुग्ध भाव से देखती हुई खड़ी थी।
      ‘‘तुम बैठो, रामेश्वर अभी आता ही होगा।’’ रामेश्वर के रूममेट ने कहा, जो अपने बिस्तर पर बैठा कुछ घोट रहा था। उसकी बात अभी पूरी भी न हुई थी कि झक सफेद कुर्ता-पायजामा पहने रामेश्वर एक हाथ में दूध का गिलास और दूसरे में सैंडविच की प्लेट लिए कमरे में दाखिल हुआ।
      ‘‘अरे तुम आ भी गयीं। बैठो-बैठो।’’ कहते हुए उसने नाश्ते का सामान मेज पर रख दिया और खुद बिस्तर के किनारे बैठते हुए कुर्सी संध्या की ओर खिसका दी।
      ‘‘आओ, नाश्ता कर लें। खड़ी-खड़ी थक गयी होवोगी।’’ उसने मृदुल स्वर में कहा।
      ‘‘नहीं तुम खाओ। मैं घर से खाकर आयी हूँ।’’ संध्या ने सकुचाते हुए कहा।
      ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है! कुछ तो खाना ही पड़ेगा। यहाँ से कोई खाये बिना नहीं जा सकता।’’ और रामेश्वर के आग्रह के आगे उसकी एक न चली। उसके बाद रामेश्वर के आग्रह के आगे संध्या की कभी नहीं चली। उसके कमरे का जादुई परिवेश संध्या को बार-बार बुलाता। कमरे बदलते रहे। तीन सीटर से दो, और दो सीटर से एक, किन्तु परिवेश का जादू कायम रहा। आकर्षण के आयाम जुड़ते ही रहे, मिलने के बहाने बनते रहे, दो व्यक्तित्वों के अवगुंठन खुलते रहे।
      लम्बे, हृष्ट-पुष्ट, स्मार्ट, पढ़ने में होशियार और व्यवहारपटु रामेश्वर को पाकर संध्या बेहद खुश थी। वह कितना सुलझा हुआ, कितना संजीदा और बाकी छात्रों से कितना अलग था। सच कहें तो अपने सहपाठियों की तुलना में रामेश्वर लगभग दो वर्ष बड़ा और उनसे कुछ अधिक ही समझदार था। सहपाठियों से उसका व्यवहार कई बार बुजुर्गाना हो आता था और यह बात संध्या को जँचती थी। वह संध्या को जिस अधिकार से हैंडल करता था, वह उस लड़की के लिए अनजाना-अनचीन्हा था। उसका नारी मन तृप्त होकर सुरक्षा-बोध से सराबोर हो जाता।
      संध्या घर से टिफिन और किताब-कापियाँ लेकर नौ बजे तक रामेश्वर के कमरे पर पहुँच जाती। दिन भर पढ़ाई करने, सदर्भ जुटाने और फिर नोट्स लेने का सिलसिला चलता। कक्षाएं होतीं तो दोनों साथ ही जाते। कॉलेज लाइब्रेरी या विश्वविद्यालय की सेंट्रल लाइब्रेरी, रिज का पिकनिक स्पॉट हो या सिनेमा...कमलानगर का कोई रेस्ट्रां हो या विश्वविद्यालय का कैफे- प्रगति मैदान हो या कनॉट प्लेस। हर जगह वे साथ-साथ दिखते। फिर भी शाम को पाँच बजे तक संध्या घर लौट जाती। उनकी अंतरंगता बढ़ती ही जाती थी। वे तीन साल कैसे बीत गये पता ही नहीं चला।
      बी.. की परीक्षा में रामेश्वर को प्रथम श्रेणी के अंक मिले। विश्वविद्यालय में दूसरा स्थान। लेकिन संध्या बड़ी कठिनाई से बस उत्तीर्ण हो पायी। जब एम.. में प्रवेश का प्रश्न उठा तो संध्या को नियमित कोर्स में जगह नहीं मिली। घर में भैया-भाभी और माँ ने बहुत दिलासा दिया- ‘‘तुमको कौन सी नौकरी करनी है। स्नातक हो गयीं। अब घर-गृहस्थी लायक कुछ हुनर सीख लो। अपने घर जाओगी तो वही सब काम आयेगा।’’ संध्या ने लगभग समवयस्क भाभी को अपने दिल का राजदार बनाया था। उनके सामने एकान्त कमरे में वह फूट पड़ी- ‘‘भाभी, अब क्या होगा? रामेश्वर के बिना मैं जी नहीं पाऊँगी।’’
      ‘‘अरे पगली, रोती क्यों हो! मैं तुम्हारे भैया से बात करती हूँ। वे ज़रूर कोई न कोई रास्ता निकाल लेंगे।’’ भाभी ने संध्या के कंधे पर आश्वस्ति भरा हाथ रखकर, उसके बालों में उंगलियाँ फिराते हुए कहना जारी रखा- ‘‘वैसे भी, रामेश्वर और हमारी जाति एक हैं। स्मार्ट है। होनहार है। समझदार है। कोई अवगुण नहीं है उसमें। उससे अच्छा लड़का तो दीया लेकर ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलेगा।’’
      भाभी की बातें सुनकर संध्या के दग्ध हृदय को कुछ दिलासा मिला।
      ‘‘और जहाँ तक उससे मिलने-जुलने का सवाल है, तुम पत्राचार से एम.. करो। इसी बहाने यूनिवर्सिटी जाना-आना रहेगा।’’ भाभी ने संध्या की तात्कालिक समस्या का भी हल सुझा दिया।
      संध्या ने पत्राचार पाठय़क्रम में प्रवेश ले लिया। उसकी कक्षाएं कभी-कभार ही लगती थीं। इसलिए नियमित रूप से कॉलेज या विश्वविद्यालय जाने का सिलसिला धीरे-धीरे समाप्त हो गया। वहीं दूसरी ओर नियमित छात्रों की कक्षाएं हर दिन लगतीं। जब कक्षाएं नहीं होतीं, तो छात्र लाइब्रेरी में बैठकर नोट्स बनाते। कॉलेज लाइब्रेरी का स्थान अब सेंट्रल लाइब्रेरी ने ले लिया था। रामेश्वर के नोट्स का जादू अब भी बरकरार था। वह अब भी हरसिंगार के अंजुरी भर कोमल, टटके फूल तोड़कर अपनी सजी-धजी मेज पर रखता और उनकी कोमल सुवास का आनन्द लेकर अगली सुबह कचरे में फेंक देता। ताजे फूल- आनन्द की नूतन अनुभूति, नवीन पुलक, साँसों का उन्मत्त  उत्थान-पतन।
      नोट्स माँगनेवालों की रामेश्वर को कभी कमी न रही। अंजू को उसके नोट्स की गुणवत्ता का स्वाद हाल ही में मालूम हुआ था। संध्या को कोई मुगालता नहीं था। शुरुआत के दिन कैशोर्य भावुकता में बीत गये, किन्तु शीघ्र ही उसे आभास हो गया था कि जीवन के लिए केवल प्रिय की मधुसिक्त वाणी और मज़बूत बाँहों का सहारा ही पर्याप्त नहीं होता, बल्कि आर्थिक सशक्तता, आत्म-निर्भरता भी उसका उपजीव्य है। भाभी ने भैया को मना लिया था। वे तो चाहते थे कि रामेश्वर से उसका विवाह करा दें, लेकिन किस रामेश्वर से? उससे जो होस्टल का बिल चुकाने के लिए अपने बड़े भैया से तीन सौ रुपये का मनी आर्डर मिलने की हर माह प्रतीक्षा करता है। खोंच लगी पैंट पर रफू कराकर पहनने के अलावा जिसके पास कोई दूसरा उपाय नहीं होता। ऐसे पराश्रित जीव से अपनी फूल सी प्यारी, नाजों पली बहन के रिश्ते की बात कैसे चलाएँ? न जाने कितनी बार भैया ने भी रामेश्वर की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहायता की। कभी दिवाली पर पैंट-कमीज उपहार स्वरूप दी तो होली पर किताबों का नया सेट खरीद दिया। जन्म-दिन पर घड़ी दी तो नववर्ष पर नया पुलोवर। यह दूसरी बात है कि संध्या और रामेश्वर रह-रहकर नादानियाँ कर जाते। उनकी सबसे बड़ी नादानी का जब भाभी को पता चला था तो उन्होंने माथा पीट लिया था। यह तो अच्छा हुआ कि समय अधिक नहीं बीता था और लेडी डॉक्टर ने सहयोग किया, नहीं तो वे कहीं मुँह दिखाने लायक न बचते।
      संध्या को प्रतीति थी। एम.. करते ही रामेश्वर नौकरी के प्रयास करेगा। संघ लोक सेवा आयोग के फार्म उसने भरे ही थे। संध्या को यह प्रतीति भी थी कि यदि और कहीं नहीं मिली तो भी किसी न किसी कॉलेज में तो रामेश्वर को लेक्चररशिप मिल ही जाएगी। दो प्राणियों के जीवन-यापन के लिए और क्या चाहिए। सपनों के हिंडोले पर झूलते हुए वे दो वर्ष भी बीत गये। उदार-चरित्र रामेश्वर के जीवन में आये अंजू को भी दो साल पूरे हो रहे थे। अमलतास के फूलों को रामेश्वर ने कभी मेज पर नहीं सजाया, लेकिन वे जब भी खिलते, पूरे वातावरण को मनोहर बना जाते।
      संध्या ने पत्राचार से तृतीय श्रेणी में एम.. कर लिया। रामेश्वर की प्रतिभा और परिश्रम रंग लाया। उसने पुनः प्रथम श्रेणी के अंक पाये। लेकिन प्रतिस्पर्धा अधिक थी, इसलिए स्थान उसे तीसरा ही मिला। अब उसका रास्ता सुस्पष्ट था- शोध और तदनन्तर अध्यापन। संध्या के सभी रास्ते घूम-फिरकर एक ही मंजिल पर पहुँचते थे। अंजू को भी इतने अंक नहीं मिल पाये कि शोध-छात्रा के रूप में नामांकन हो पाये। रामेश्वर का अधिकांश समय अब सेंट्रल लाइब्रेरी के शोध-तल पर बीतता। वहाँ न संध्या की पहुँच थी न ही अंजू की। अंजू को भी अब नोट्स की ज़रूरत नहीं थी। उसके दो साल हँसी-खुशी बीत गये। बी.एड. के आधार पर उसे किसी सरकारी स्कूल में शिक्षिका की नौकरी मिल गयी। अब वह पाँच फीट पाँच इंच, आयु 25 वर्ष, सुशील, सुन्दर, गोरी, गृहकार्य दक्ष, सरकारी स्कूल में शिक्षिका, प्रति माह पाँच हजार रुपये का वेतन पाने वाली सर्वगुण संपन्न कन्या थी- बाबुल के घर को भूलकर पिया के घर जाने को तैयार।
      संध्या अब भी रामेश्वर का इंतजार करती थी।वह उसे कभी फैकल्टी लाइब्रेरी तो कभी नये होस्टल के कमरे में घेर लेती। भाभी उसकी पीड़ा को समझती थीं- ‘‘एक बार आप ही उससे मिलकर सारी बातें स्पष्ट क्यों नहीं कर लेते।’’ उन्होंने अपने पति को कोंचते हुए कहा था। और सचमुच ही अगले रविवार को बिना किसी पूर्व-सूचना के भैया रामेश्वर के होस्टल आ धमके थे।
      ‘‘रामेश्वरजी, कैसी चल रही है, रिसर्च। आप तो बहुत व्यस्त हो गये। अब मिलना -जुलना भी छोड़ दिया है हमसे।’’ उन्होंने बात शुरू करते हुए कहा।
      ‘‘जी, आजकल वाकई बहुत व्यस्तता है। मैं चाहता हूँ कि जितनी जल्दी हो डिसर्टेशन जमा कर दूं। इसीलिए अब कहीं आना-जाना नहीं हो पाता।’’ रामेश्वर ने  विनम्रता से उत्तर दिया।
      ‘‘तो कहीं कोशिश कर रहे हैं क्या?’’  उन्होंने रामेश्वर के कैरियर की बाबत थाह लेने के लिए पूछा।
      ‘‘जी, वैसे तो यूपीएससी की परीक्षा दी है। लेकिन मैं यूनिवर्सिटी टीचिंग में ही जाना चाहता हूँ। और उसके लिए अप्लाई करने योग्य होने में अभी कम से कम दो वर्ष लगेंगे।’’ रामेश्वर ने पूरी तफसील बयां कर दी। वह चाहता था कि ये सज्जन किसी तरह टलें।
      ‘‘संध्या के विषय में कुछ सोचा है आपने? भई हम लोग तो लड़की वाले हैं, चिन्ता लगी ही रहती है।’’ भैया अब सीधे मूल विषय पर ही आ गये।
      ‘‘सच कहें तो इस बारे में अभी कुछ सोच नहीं पाया हूँ। वैसे भी यह ऐसा मामला है, जिसमें मेरे बड़े भैया और बाबूजी ही कुछ निर्णय कर सकते हैं। लेकिन वे चाहते हैं कि पहले मैं पूरी तरह व्यवस्थित हो जाऊँ तभी आगे की सोची जाए।’’ रामेश्वर ने जैसे शब्दों की जुगाली करते हुए कहा।
      ‘‘यह तो बड़ी विकट समस्या है। हमारे इंतजार की भी तो कोई सीमा है। वह बेचारी लड़की कब तक आपकी बाट जोहेगी।’’ भैया के स्वर में न जाने कहाँ से कंपन झलक उठा था।
      ‘‘मैं कब कहता हूँ कि संध्या को इंतजार करना चाहिए। यदि उसे विवाह की जल्दी है तो मैं क्या कर सकता हूँ...मेरे सेटल होने में तो दो-चार वर्ष लगेंगे ही।’’ रामेश्वर ने जैसे अपना पल्ला झाड़ते हुए कहा।
      भैया खुद को बहुत अपमानित अनुभव कर रहे थे। किस कुपात्र से संध्या ने नाता जोड़ा। बदनामी का डर न होता तो वे इस दुष्ट की हड्डियाँ तुड़वा देते। सिर झुकाए, क्लान्त मुख भैया ने इन्हीं विचारों में खोये हुए घर में प्रवेश किया।
      ‘‘क्या हुआ ? क्या कहा उसने ? ’’ भाभी ने पीछे से कमरे में प्रवेश करते हुए, बेहद धीमे स्वरों में पूछा।
      ‘‘कहेगा क्या? वही हुआ, जिसका डर था। अभी उसे चार साल और लगेंगे व्यवस्थित होने में। और चार साल का भी क्या भरोसा? कौन जाने चार साल बाद कहे कि अब मुझे नहीं करनी तुम्हारी बहन से शादी। तब क्या करेंगे।’’ भैया ने अपने मन का गुबार निकालते हुए कहा।
      ‘‘जरा धीरे बोलो न आप। अगर संध्या ने सुन लिया, तो कोई ऐसा-वैसा कदम न उठा ले।’’ भाभी ने पति के मुख पर हाथ रखते हुए कहा।
      संध्या दरवाज़े की ओट से सब बातें सुन रही थी। आज उसका स्त्रीत्व अपनी पूरी गरिमा के साथ जाग उठा था। एकान्त पाते ही उसने भाभी के आगे हथियार डालते हुए कहा था - ‘‘भाभी, मैंने जो नादानियाँ कीं, उनकी काफी सजा पा चुकी हूँ। अब मैं वही करूँगी जो आप लोग कहेंगे।’’ संध्या की आँखों में आँसुओं का सैलाब उमड़ रहा था। उसने आखिर फैसला कर ही लिया था।
      रामेश्वर अब उतना निरीह नहीं रह गया था। लगभग चार हजार रुपये की शोध-वृत्ति उसे मिलने लगी थी। एम. फिल. के दौरान ही उसने शोध-तल पर एक क्यूबिकल लपक लिया था। बगल वाले क्यूबिकल में एक साँवली सी लड़की बैठती थी। धीर-गंभीर, सदा सिर झुकाकर पढ़ती रहने वाली। उस लड़की में न जाने क्या था कि रामेश्वर उसे अनदेखा नहीं कर पाता था। शोध-तल पर ही छोटी सी कैंटीन थी।रामेश्वर प्रायः चाय पीने के लिए वहाँ चला जाता। एक दिन वहीं उस लड़की से भी मुलाकात हो गयी। सभी कुर्सियाँ भरी थीं। केवल रामेश्वर के बगल वाली कुर्सी खाली थी, जहाँ वह आकर बैठने ही वाली थी कि रामेश्वर ने उसे जगह देते हुए कहा-       ‘‘हेलो।’’
      ‘‘हाय।’’ धीरे से बोलकर वह बैठ गयी थी।
      ‘‘मैं रामेश्वर। आपके बगल वाले क्यूबिकल में बैठता हूँ।’’ रामेश्वर ने अपना परिचय देते हुए कहा।
      ‘‘हाँ मैंने आपको देखा तो है कई बार।’’ अंकिता ने कहा था। और उसके बाद अंकिता व रामेश्वर का मेल-जोल धीरे-धीरे बढ़ने लगा। अंकिता ने शहर की दूसरी यूनिवर्सिटी से एम.., एम.फिल. किया था, जहाँ उसके पिताजी विभागाध्यक्ष थे। माँ की मृत्यु तभी हो गयी थी, जब वह मात्र 13 और बड़ी बहन अपरा 15 वर्ष की थी। पिताजी ने दो वर्ष बीतते न बीतते डी.लिट. की एक शोध छात्रा से विवाह रचा लिया। दोनों बहनें पहले जिस महिला को दीदी कहती थीं, अब उसे ही मम्मी कहकर संबोधित करने की नौबत आ गयी थी। शीघ्र ही नयी माँ भी उसी विभाग में नियुक्त हो गयी थीं। व्यवहारकुशल अपरा ने तो जल्द ही परिवर्तित परिस्थिति में खुद को व्यवस्थित कर लिया था, किन्तु अंकिता के लिए यह असंभव था। घर और बाहर हर समय नयी माँ से आतंकित रहने वाली अंकिता ने जिद करके इस दूसरे विश्वविद्यालय में पीएच.डी. आरंभ की, जहाँ कम से कम दिन के वक्त तो वह माँ से दूर रह ही सकती थी। रामेश्वर की प्रतिभा ने अंकिता को सहज ही प्रभावित किया। अपने जन्मदिन पर उसने रामेश्वर को भी घर पर आमंत्रित किया। प्रोफेसर साहब और मम्मी, दोनों ही रामेश्वर से मिलकर प्रभावित हुए बिना न रह सके। ड
      ‘‘रामेश्वर इनसे मिलो, मेरी दीदी अपरा। हैं तो मुझसे सिर्फ दो साल बड़ी लेकिन एम.. में टॉप करने के कारण इनको तुरन्त ऑफर मिल गया था। अब ये कॉलेज में पढ़ाती हैं। और दीदी ये रामेश्वर हैं, मेरे साथ ही रिसर्च कर रहे हैं। हमारे क्यूबिकल साथ-साथ हैं।’’ अंकिता ने अपनी बड़ी बहन से रामेश्वर का परिचय कराते हुए कहा था।
      ‘‘आपसे मिलकर मुझे बड़ी खुशी हुई अपरा जी।’’ रामेश्वर ने अपरा को ऊपर से नीचे देखते हुए कहा। उसका भरा-भरा सौन्दर्य रामेश्वर को बहुत भला लगा था।
      फिर तो गाहे--गाहे रामेश्वर का अंकिता के घर आना-जाना लगा ही रहता। छुट्टी वाले दिन कभी वह अंकिता-अपरा को सिनेमा दिखाने ले जाता, कभी दोनों के साथ पिकनिक निकल जाता। अंकिता उसके लिए हर दिन घर का बना लंच लाती। दोनों साथ बैठकर भोजन करते। साथ-साथ कैंटीन जाते और प्रायः रामेश्वर के कमरे में बन्द होकर अपनी-अपनी शोध-सामग्री से एक-दूसरे को परिचित कराते।
      इस होस्टल के अहाते में हरसिंगार नहीं खिलते थे। जेठ की दुपहरी में डह-डहा उठने वाले अमलतास भी यहाँ नज़र नहीं आते थे। अलबत्ता बड़े करीने से निराई-गुड़ाई की गयी क्यारियों में काले-पीले और सफेद गुलाब ज़रूर खिलते थे। रामेश्वर ने होस्टल के माली को अपनी बातों से प्रभावित कर गुलाब के फूल हासिल करने की जुगत बिठा ली थी। लिहाज़ा अब वह अपनी मेज पर गुलाब की स्टिक सजाने लगा था। अंकिता उसकी सादगी और नफासत देखती तो मुग्ध हुए बिना नहीं रह पाती थी। वह रामेश्वर पर बार-बार वारी जाती। कुशाग्रबुद्धि रामेश्वर ने समय रहते शोध-कार्य पूरा करके अपनी थीसिस जमा कर दी।
      ‘‘रामेश्वर, अग्रसेन कॉलेज में दो वैकेन्सी हैं। तुम अप्लाई कर दो। पापा सेलेक्शन कमिटी में होंगे। मैं उनसे कह दूँगी। तुम्हारा चयन जरूर हो जाएगा।’’ एक दिन अंकिता ने चहकते हुए रामेश्वर से कहा ।
      ‘‘अरे वाह। यही तो मैं चाहता था। शायद तुम जानती हो कि मैंने उसी कॉलेज से बी.. और एम.. किया है। वहाँ की न जाने कितनी यादें मेरे दिमाग में अंकित हैं। मैं ज़रूर अप्लाई करूंगा।’’ रामेश्वर की बाँछें खिल आयीं।
      ‘‘मुझे तुम्हारी पूरी जन्मपत्री पता है। इसीलिए तो कह रही हूँ।’’ अंकिता ने चहकते हुए कहा था। अगला सत्र शुरू होते-होते रामेश्वर के जीवन की गाड़ी सरपट दौड़ने लगी थी। पीएच.डी. अवार्ड हो चुकी थी और वह स्थायी लेक्चरर नियुक्त हो गया था। अंकिता बहुत खुश थी। चाहे उसकी पीएच.डी. नहीं पूरी हो सकी, लेकिन रामेश्वर भी तो उसका अपना ही था। यही सोच-सोचकर वह खुश थी। रामेश्वर के लिए तो वह अपना सर्वस्व अर्पण कर सकती थी।
      इसी बीच प्रोफेसर साहब को लगभग तीन सप्ताह के लिए दक्षिण के कुछ विश्वविद्यालयों में विभिन्न पदों पर भर्ती के साक्षात्कार लेने और शोधार्थियों की मौखिक परीक्षा के लिए जाना पड़ा। अंकिता को भी अपने शोध के लिए दक्खनी के कुछ साक्ष्य जुटाने थे। इसलिए पिता-पुत्री दोनों एक ही ट्रेन से दक्षिण के लिए निकल पड़े।
      ‘‘तुम्हारे बिना मैं ये दिन कैसे काटूंगी, कह नहीं सकती। लेकिन शोध पूरा करने के लिए मेरा जाना ज़रूरी है। एक बार थीसिस जमा हो जाए, तो हम शीघ्र ही विवाह कर लेंगे, ताकि कभी एक-दूसरे से जुदा होने की नौबत ही न आये।’’ अंकिता ने जाने के पूर्व रामेश्वर से गुपचुप कहा था।
      ‘‘तुम अपना शोध कार्य अच्छी तरह पूरा कर लो। फिर विवाह तो होता ही रहेगा।’’ रामेश्वर ने ढाढस बंधाते हुए उसे विदा दी थी।
      प्रोफेसर साहब का दक्षिण दौरा कुछ लम्बा ही खिंच गया। दक्षिण के विश्वविद्यालयों में उनके ढेरों प्रशंसक थे। अनेक संस्थाओं के वे सलाहकार थे। अभिनन्दन समारोहों, विशेष विचार-गोष्ठियों और परिसंवादों का ऐसा सिलसिला चला कि वे महीने भर वहीं अटककर रह गये। अंकिता भी पिताजी के साथ थी। वह वृद्ध पिता को छोड़कर कैसे आ सकती थी!
      आखिर लगभग पैंतीस दिन के प्रवास के बाद पिता-पुत्री लौटे। प्रिय से मिलने को उतावली अंकिता रामेश्वर के होस्टल की ओर बढ़ी। द्वार पर ही उसे दरबान ने सूचित किया- ‘‘डॉ. साहब ने तो होस्टल छोड़ दिया है। अब वे एक फ्लैट किराये पर लेकर रहते हैं। सुना है अगले महीने ही उनकी शादी होने वाली है।’’ उदास अंकिता ने चारों ओर नज़र दौड़ाई। शिशिर के आगमन का संकेत देते सूखे पत्ते होस्टल के लॉन में खड़खड़ा रहे थे। कटिंग किये हुए गुलाबों की क्यारी में ठूंठ ही ठूंठ नज़र आ रहे थे। गुलाबों के खिलने का मौसम काफी पहले गुज़र चुका था।
      शाम हो चुकी थी। रामेश्वर के कॉलेज जाने पर भी किसी से मुलाकात की संभावना न थी। निराश होकर अंकिता घर लौट गयी। उसने बहुत बेचैनी में रात काटी। अगली सुबह जल्दी-जल्दी तैयार होकर वह घर से निकलने ही वाली थी कि अपरा ने उसे रोक लिया- ‘‘अरे कहाँ चल दीं, डॉ. साहिबा ? ’’
      ‘‘यूं ही, दीदी, ज़रूरी काम है। सोचती हूँ जो नोट्स तैयार करके लायी हूँ, अपनी थीसिस के अध्याय में जोड़ लूँ। कुछ संदर्भ भी देखने थे, इसलिए यूनिवर्सिटी जा रही थी।’’ अंकिता ने सफाई से झूठ बोल दिया।
      ‘‘वह तो ठीक है, लेकिन जरा यह कार्ड तो देख। तू तो भाषा पर रिसर्च कर रही है। इसमें कोई गलती हो तो सुधार दे।’’ अपरा ने एक सादा सा कागज़ उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा।
      ‘‘मंगलम् भगवान विष्णु मंगलम् गरुड़ध्वजः. ’’  थोड़ा सा पढ़कर अंतरा ने जिज्ञासा की-‘‘दीदी यह तो शादी का कार्ड लगता है। किसकी शादी होने जा रही है? ’’
      ‘‘इस नाचीज की।’’ अपरा ने इतराकर अपने बालों में बेला की वेणी सजाते हुए कहा।
      ‘‘सच दीदी। लेकिन पापा ने तो मुझे कुछ भी नहीं बताया।’’ भोलेपन से बोली अंकिता।
      ‘‘पापा को मालूम नहीं था। अभी शायद मम्मी ने उनसे बात नहीं की है।’’ अपरा लापरवाही से बोली।
      ‘‘मम्मी को भला इन सब बातों में क्या रुचि होने लगी? उनको अपनी पार्टियों से फुरसत मिले तब तो।’’ अंकिता के स्वर में अपनी चालीस वर्षीया सौतेली माँ के लिए तल्खी साफ झलक रही थी।
      ‘‘खैर, तू छोड़ उन बातों को। तू तो आगे पढ़ और बता कि कोई गलती तो नहीं रह गयी कार्ड में। अभी मुझे तेरे होने वाले जीजाजी के साथ प्रिंटर के यहाँ जाना है। फिर ढेरों शॉपिंग करनी है।’’ अपरा ने व्यग्रता से कहा। उसकी वेणी से चटकती कलियों की खुशबू अब कमरे में फैलने लगी थी।
      ‘‘ठीक है दीदी, पढ़ती हूँ।’’ कहकर अंकिता कार्ड का मजमून बाँचने लगी। वह कुछ ही आगे बढ़ी थी कि जैसे उसकी साँसें थम गयीं, शरीर सुन्न हो गया और आँखें पथरा गयीं-
      ‘‘अपरा परिणय रा..रामे...श्....र।’’ उसके स्वर ही नहीं फूटते थे। उसके बाद उसने सरसरी निगाह से पूरा कार्ड बाँचकर बड़ी बहन के हाथ में थमा दिया।
      ‘‘बधाई हो दीदी। कार्ड का मज़मून बिलकुल ठीक है। आप भला मज़मून तैयार करने में कैसे गलती कर सकती हैं!! ’’  भग्नहृदया अंकिता ने अपनी भीगी पलकों को चतुराई से छिपाते हुए कहा और तेजी से बाहर निकल गयी। पोर्च में अपनी बाइक खड़ी करके मुख्य द्वार की ओर मुड़ते हुऐ रामेश्वर के कपड़ों से आती फूलों की खुशबू पहचान लेने के बावज़ूद अंकिता ने उसकी ओर पलट कर देखने की ज़रूरत तक महसूस नहीं की। लॉन में खिले हरसिंगार अब भी झर रहे थे।
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