Tuesday, 7 August 2012

एक सरल-स्वभाव लड़की और एक चालबाज शहराती लड़के की सत्याधारित कहानी


                                                      सत्याधारित कहानी
अपने -अपने संदर्भ
                                                       - डॉ. रामवृक्ष सिंह

      मनोविज्ञान के छात्रों को शैक्षणिक यात्रा के लिए मनोचिकित्सालय ले जाया गया है। महिलाओं के वार्ड में सबका ध्यान आकर्षित करती है छिन्नमस्ता सीमा । उसके बिखरे व्यक्तित्व में भी अभी बहुत कुछ ऐसा बचा है, जो बरबस ही बाँध लेता है। वह हर आगंतुक से बस एक ही सवाल करती है- ‘‘डू यू नो व्हाट इस शीजोफ्रेनिया?’’ प्रायः आगंतुक किसी विक्षिप्त से इस प्रकार के सवाल की आशा नहीं करते, इसलिए अचकचाकर उसे देखते रह जाते हैं। सीमा का स्वगत जारी रहता है- ‘‘शीजोफ्रेनिया इज स्प्लिट ऑफ पर्सनैलिटी।’’
      मुझे लगता है कि यह महिला पागल नहीं हो सकती। मैं उसके बारे में और विस्तार से जानना चाहता हूँ। चिकित्सालय के सुपरिंटेंडेंट मुझे अपने कक्ष में बिठाकर बताना शुरू करते हैं-
      गंगादीन पाठक डाक विभाग के बड़े अफसर हो गये तो क्या, उन्होंने अपनी मिट्टी नहीं छोड़ी। पूर्वी उत्तर प्रदेश की यही तो खासियत है। इस मिट्टी ने न जाने कितने लेखक, शिक्षक, प्रशासक, वकील, डॉक्टर और सरकारी कर्मचारी पैदा किए जो देश-विदेश के तमाम बड़े-बड़े नगरों में जम गये, लेकिन पूर्वांचल की मिट्टी में कुछ न कुछ ऐसा है जो उन्हें अपने पास खींच लाता है। गंगादीन पाठक को बम्बई रहते लगभग तीस साल हो गया है। सावित्री देवी को गौना कराकर ले गये थे, तब से साथ ही थे। लेकिन हर साल जेठ-बैसाख में गाँव ज़रूर आते थे। गौने के पद्रह साल तक कोई आस-औलाद नहीं हुई। फिर न जाने कहाँ से, किस देवता-दानी के आशीर्वाद से एक बेटे का मुख देखना नसीब हुआ। वही बेटा रोहित अब सोलह साल का हो गया है। हर साल की तरह इस बार भी गंगादीन अपने परिवार के साथ गाँव लौटे हैं। लौटते भी क्यों नहीं, उनके बड़े भाई के सबसे छोटे बेटे रमेश की शादी जो पड़ी है। पूर्वांचल के इन गाँवों में सोलह-सत्रह वर्ष के किशोर -किशोरियों का विवाह हो जाना कोई अनहोनी नहीं है। रमेश अभी हाई स्कूल में पढ़ता है, लेकिन उसकी माँ को, और उनसे भी बढ़कर आजी-बाबा को उसके ब्याह की बड़ी साध है। देखहरू तो न जाने कबसे आते रहे हैं, लेकिन पाठक बाबा की हामी भरवा पाए तो बलिया के कामेश्वर दुबे। बड़े उत्साह से पूरा परिवार जुटा है। उसी गहमा-गहमी में लोगों की निगाह रोहित पर ठहर जाती है। सोलह साल का यह लड़का क्या निखरा है- लम्बाई लगभग छह फीट, उभरता हुआ गोरा रंग, सजीला बांका जवान- जैसे कामदेव का अवतार। तिसपर सुना है कि पढ़ने में बड़ा तेज है। हाई स्कूल में बम्बई की मेरिट लिस्ट में था। आस-पास के गाँवों ही नहीं, बल्कि पूरी करियात में और दूर-दराज की रिश्तेदारियों में भी रोहित के चर्चे थे। रमेश के ब्याह में न्यौते के लिए जुटे बड़े -बुजुर्गों, स्त्री-पुरुषों ने उसे देखा तो सबकी आँखें जुड़ा गयीं।
      अगली साल रोहित ने इंटर कर ली। बहुत अच्छे अंक मिले। अब वह सी.. की तैयारी कर रहा था। गंगादीन हर साल की तरह इस बार भी सपरिवार गाँव आये। फुरसत में बैठे तो अम्मां-बाबूजी और बड़े भैया ने उन्हें घेर लिया। शुरुआत अम्मां ने ही की-
      ‘‘भइया। रोहितो के बहुत देखहरू लागल बाटें। हमनी त परेसान हो गइलीं। अब तू लोगन आ गइल बाट..त बातचीत कर के उनहूं क बहुरिया हमनी के देखाय जा...’’
      ‘‘हाँ हो भइया...अब हमनी क...कउन ठिकाना...एक गो ईहो बियहवा देख लेहल जाय...फिर त जाने का होई... ’’ बाबूजी ने भी हाँ में हाँ मिलायी।
      ‘‘आप लोगन के बतिया त ठीके बा...। लेकिन रोहित के त...अबहिन बहुत मेहनत करे के बा... सी.. करे में  उनके ध्यान लगावे के पड़ी... ’’ गंगादीन ने अपना पक्ष भी किंचित कमजोर स्वरों में रखा।
      ‘‘अरे त...अबहियन कहाँ सब हो जायी..। पहिले बियाह होई... ओकरे दू-तीन बरिस बाद गौना आयी....तब तक उनक..पढइया पूरिय हो जायी... कहो छोट्टक।’’ बड़े भइया ने भी अपनी तजवीज पेश की।
      ‘‘अब ज..सब लोग सोची लेहल..बा..त हम का कहीं... ’’ गंगादीन पूरे परिवार की इच्छा के सामने खुद को बिलकुल असहाय पा रहे थे। दरवाजे की ओट में बैठी रोहित की मम्मी भी इस बात को समझ रही थीं, लेकिन बड़े-बुजुर्गों की बात का विरोध करने अथवा किसी प्रकार के प्रतिवाद की प्रथा उनके परिवार में न थी।
      रोहित के लिए रिश्ते भी बड़े अच्छे-अच्छे आ रहे थे। लेकिन गंगादीन को अपने इकलौते बेटे के लिए ऐसी बहू चाहिए थी, जो घर में बेटी की कमी पूरी कर सके। उनका मानना था कि बेटी लो तो अपने से गरीब घर की, जो सबका सम्मान करती हो, छोटे-बड़े का लिहाज करना जानती हो। पढ़ी-लिखी और सुघड़ हो। बहुत देखने- भालने के पश्चात् गोरखपुर के एक खाते-पीते ब्राह्मण परिवार की कन्या उन्हें पसन्द आयी। लड़की देखी-भाली थी। इंटर में पढ़ रही थी। दूधिया गोरा रंग और सुन्दर नैन-नक्श। रोहित के मेल की थी सीमा । दोनों की जन्म-पत्रियाँ भी मिलती थीं। अगले मौसम में रोहित और सीमा का विवाह हो गया। मात्र एक दिन के लिए दुलहिन विदा होकर आयी। पड़पतोहू का मुख देखकर आजी-बाबा की आँखें जुड़ा गयीं । एक दिन के लिए पूरा घर जैसे खुशियों से महक उठा। सबकी चिर-संचित आकांक्षा पूरी हुई। अगले दिन सबके दिलों में एक हूक जगाकर दुलहिन विदा हो गयी। पाठक परिवार की दिनचर्या अपनी लीक पर लौट आयी।
      गंगादीन की सेवा-निवृत्ति का समय समीप आ रहा था। वे सोचते थे कि रोहित किसी तरह सी.. हो जायें, कहीं अच्छी नौकरी मिल जाए, तो बहू का गौना करा लाएँ और मजे से रिटायरमेंट का सुख भोगते हुए राम नाम जपें। इसी तमन्ना में पति-पत्नी, दोनों रोहित के आगे-पीछे लगे रहते। उसकी छोटी से छोटी ज़रूरत का वे अधिक से अधिक खयाल रखते। उनकी समस्त आशाओं का केद्र-बिन्दु रोहित ही तो था। रोहित ने भी उन्हें निराश नहीं किया। तीन वर्ष के भीतर ही उसने सी.. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। शीघ्र ही उसे एक कंपनी में मैनेजमेंट ट्रेनी के पद पर चुन लिया गया। गंगादीन भगवान को बार-बार धन्यवाद देते । अब तो बस एक ही साध बाकी थी- किसी तरह बहू आ जाय तो घर में रौनक हो जाये।
      सीमा ने भी घर पर ही रहकर बी.. कर लिया। नियमित पढ़ाई की कसर पिताजी पूरी कर देते थे, जो खुद शिक्षक थे। सीमा के माता-पिता का मन सदैव किसी आशंका से घिरा रहता। महानगर में पला-बढ़ा सुयोग्य जामाता कहीं अपनी ब्याहता पत्नी को विस्मृत न कर बैठे। अतः दिन-रात वे ईश्वर से यही प्रार्थना करते कि दामादजी जल्दी पढ़ाई पूरी करें और कोई काम-धंधा पकड़ें, ताकि बिटिया का गौना देकर वे गंगा नहाएँ। इसी ऊहा-पोह में एक दिन रोहित के बड़े बाबूजी गौने का दिन धर गये।
      रोहित को गाँव की यह गोरी शुरू-शुरू में बहुत अच्छी लगी। उसके टटके अनछुए, नैसर्गिक सौन्दर्य में वह आकंठ डूब जाता। सीमा हर प्रकार से पति व उसके पितृगृह को समर्पित रहती। बम्बई के जादुई परिवेश में शीघ्र ही वह रम गयी। सास-ससुर की सेवा, घर की देख-रेख, रसोई संभालना और पति पर प्रेम-सुधा बरसाना - यही उसकी दिनचर्या थी। पाठक दंपति इतनी सुशील बहू पाकर निहाल हो गये थे। सीमा अपने कर्तव्यों का निर्वाह भली भांति किए जाती थी। कुछ ही महीनों में उसने सास-ससुर की एक और इच्छा भी पूरी कर दी। जब सावित्री देवी को बहू की गोद में शिशु-आगमन का पता चला तो वे धन्य हो गयीं और पूरे समारोह के साथ सभी इष्ट-मित्रों, रिश्तेदारों को इस सुसमाचार से अवगत कराया।
      इधर सीमा के गर्भ में अजन्मे शिशु की हरकतें बढ़ती जाती थीं तो उधर रोहित का उसके प्रति प्रेम घटता जाता था। सीमा की सुन्दरता, भोलेपन और ग्राम्य निश्छलता में अब रोहित को अनेक अवगुणों के दर्शन होने लगे । सीमा को बाहर घुमाने-फिराने तो वह पहले भी नहीं ले जाता था, अब तो उसकी उपेक्षा ही करने लगा। सीमा इसे गर्भावस्था-जन्य परिवर्तन मानकर सहजता से लेती थी। रोहित के दफ्तर में समवयस्का महिलाओं की संख्या भी काफी थी, जिनसे उसकी बड़ी अच्छी मैत्री थी। किन्तु सबसे अधिक घनिष्ठता थी कविता राठौर के साथ। कविता की नियुक्ति रोहित से दो वर्ष बाद हुई थी। वह कंप्यूटर प्रोग्रामर थी और रोहित के सामने वाली सीट पर ही बैठती थी। छरहरी, कनक छरी सी काया, ऊँचा कद, सुन्दर मुखाकृति और स्टेप्स में कटे सजे-संवरे बाल । हमेशा खिली-खिली सी रहती थी कविता । दोनों को कंपनी के खातों व लेखा-पद्धतियों के कंप्यूटरीकरण का प्रोजेक्ट सौंपा गया था। चूंकि दोनों एक ही प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे, इसलिए दोनों को साथ-साथ देखकर किसी को जरा भी अटपटा नहीं लगता था । प्रोजेक्ट के सिलसिले में कविता का रोहित के घर निर्बाध आना-जाना भी शुरू हो गया । प्रायः देर रात तक वह रोहित के कमरे में रहती, कभी सॉफ्टवेयर लोड करती तो कभी किसी प्रोग्राम की गड़बड़ी दुरुस्त करती। कार्यशील महिलाओं के होस्टल में रहने के कारण उसके ऊपर पारिवारिक बंदिशें भी नहीं थीं, जिनका वह भरपूर लाभ उठा रही थी।
      समय आने पर सीमा ने फूल-सी  बच्ची को जन्म दिया। पाठक दंपति को थोड़ी-सी निराशा  हुई, लेकिन शीघ्र ही उन्होंने ईश्वर का निर्णय मानकर मन को तसल्ली दे ली। बच्ची के जन्म के पश्चात् सीमा पूरी तरह उसी में रम गयी। रोहित का अधिकाधिक समय अब कविता के साथ ही बीतने लगा । कविता ने भी अब कंपनी की लीज पर फ्लैट ले लिया था । सीमा बच्ची में व्यस्त थी तो रोहित कविता में। बच्ची थोड़ा संभल गयी तो सीमा ने अपनी ओर ध्यान देना आरंभ किया। वह रात के खाने पर अच्छे-अच्छे व्यंजन बनाती और पति से अनुरोध करती कि दफ्तर से जल्दी घर आ जाएँ। रोहित तो आ जाता किन्तु उसके साथ-साथ बिन्दास कविता भी चली आती। घंटों वह रोहित के साथ बेडरूम में बंद रहती और देर रात खाना खाने के बाद लौटते वक्त सीमा की तारीफ कुछ इस प्रकार करती-
      ‘‘भाभी आप खाना बहुत अच्छा बनाती हैं। इसीलिए तो मैं आपके हाथ का खाना खाने के लिए खिंची चली आती हूँ ।’’
      मन मसोस कर सीमा कोई औपचारिक-सा उत्तर देती और चुप हो रहती। फिर सारी रात करवट बदलते बीतती और रोहित आराम से खर्राटे लेता सोया रहता। बच्ची की किलकारियों से घर गूँजता रहता, लेकिन सीमा के मन का सूनापन बढ़ता ही जाता था । बच्ची को सब लोग प्यार से डॉली बुलाते थे । थी भी तो वह बिलकुल जापानी गुड़िया- गोल-मटोल, गोरी-चिट्टी और हरदम मुस्कुराती रहनेवाली। जब उसने चलना-फिरना शुरू किया तो पूरे घर में उसके नन्हें-नन्हें पैरों की रुनुक-झुनुक गूंजने लगी। घर के साजो-सामान में बिखराव आने लगा ।  दादा-दादी की वह लाड़ली थी, लेकिन रोहित उससे सर्वथा उदासीन ही रहता।
      महत्त्वाकांक्षिणी कविता को अमेरिका की किसी प्रतिष्ठित कंपनी से ऊँचे वेतन का प्रस्ताव मिला और वह उड़ चली। भग्न-हृदय रोहित उदासी के सागर में डूब गया।
      पाठक दंपति अब तक अपने इकलौते बेटे के भटकाव के मूक दर्शक बने हुए थे। वे सोचते थे कि जहाज का पंछी इधर-उधर भटकने के बाद थककर एक दिन पुनः जहाज पर आ जाएगा। सावित्री देवी का सोचना था कि बेटी के जन्म से मिली निराशा के कारण रोहित को पत्नी से विरक्ति हो गयी है। उनका मानना था कि यदि दूसरी संतान बेटा हो जाए तो रोहित को गृहस्थी में पुनः रमाया जा सकेगा । बेटे-बहू को एकान्त देने के उद्देश्य से पाठक दंपति ने योजना बनायी और एक दिन सावित्री देवी ने रोहित से अपनी बात कह ही डाली-
      ‘‘बेटा, मैं सोचती हूँ कि तुम कुछ दिनों के लिए बहू को कहीं घुमा लाओ। इधर देखती हूँ कि तुम दफ्तर के काम में इतने उलझे रहते हो कि अपने लिए समय ही नहीं निकाल पाते। बहू भी जबसे आयी है, बस गिरहस्ती में जुटी रहती है। इसलिए अच्छा होगा कि महीना-दो महीना कहीँ घूम आओ..’’
      अभी वे अपनी बात पूरी भी नहीं कर पायी थीं कि रोहित बीच में ही बोल पड़ा- ‘‘ लेकिन मम्मी, मैं इतनी लंबी छुट्टी नहीं ले सकता। आप तो जानती हैं कि मेरा काम कितना जरूरी है। आप ही क्यों नहीं घुमा लातीं।’’
      सावित्री देवी इतनी जल्दी हार माननेवाली नहीं थीं- ‘‘ठीक है, तुम लंबी छुट्टी नहीं ले सकते तो हफ्ते दो हफ्ते के लिए ही कहीं बाहर हो आओ। दूर नहीं जाना चाहते तो आस-पास ही कहीं हो आओ।’’
      ‘‘बेटा। मम्मी ठीक ही तो कह रही हैं। कुछ दिन घूम आओ। फिर काम तो लगा ही रहेगा।’’ पाठकजी ने भी उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा।
      रोहित राजी हो गया। सीमा ने सुना तो खुशी का ठिकाना न रहा। उसे लगा कि खोये पति को फिर से पा लेने का सुअवसर मिल गया। उसका रोम-रोम सास-ससुर को दुआएँ देता था । बच्ची के जन्म के बाद रोहित ने पहली बार सीमा के साथ फुरसत से, अंतरंगता के कुछ क्षण गुजारे थे। प्रसव के बाद सीमा का भरा-भरा सौन्दर्य उसे मोहक लगा । लेकिन जब भी वह सीमा को बाहुपाश में लेता, कल्पना में कविता आ जाती । सीमा उसका यथार्थ थी, तो कविता आदर्श । यथार्थ के लिए वह आदर्श को छोड़ नहीं पाता था । हिसाब-किताब दुरुस्त करने में माहिर चार्टर्ड एकाउंटेंट के लिए सीमा एक बोझ बनती जा रही थी, जबकि कविता हर दृष्टि से काम्य प्रतीत होती थी । पति के मन में चल रहे आलोड़न से सर्वथा अनभिज्ञ सरलहृदया सीमा की प्रसन्नता का कोई पारावार न था । छुट्टी मनाकर लौटे तो जीवन पुराने ढर्रे पर चल निकला। डॉली अब ढाई वर्ष की हो चली थी । सीमा ने एक बार फिर मातृत्व की ओर कदम बढ़ाए। पाठक दंपति के मन में आशा का नवांकुर पुनः फूट चला । उत्कंठित हृदय लिए सावित्री देवी बहू के खान-पान, उठने-बैठने और टीके-टॉनिक का पूरा ध्यान रखने लगीं । लेकिन विधि ने सीमा के साथ कोई मुरव्वत न की । दुबारा बिटिया का जन्म हुआ । सावित्री देवी तो जैसे बैठ ही गयीं। उन्होंने कहा तो कुछ नहीं, किन्तु प्रसूता के प्रति अपने कर्तव्य-पालन के अलावा कुछ भी काम करने का उत्साह अब उनमें शेष न था । रोहित के खाते में सीमा एक देयता थी, डॉली देयता बनकर आयी थी और अब एक नयी देयता ने जन्म ले लिया था । 
      दूसरी पोती को थोड़ा संभालकर पाठक दंपति लंबी तीर्थयात्रा पर चले गये। सीमा दो-दो बच्चियों को पालने और घर-गृहस्थी की चक्की में अकेली जुत गयी। रोहित कभी रस्मी तौर पर बच्चियों को गोद ले लेता, तो ले लेता, वरना सीमा को ही पूरा दायित्व अकेले निभाना पड़ता ।
      रोहित की कंपनी में प्रबंध प्रशिक्षुओं का नया दल आ गया । उसके प्रोजेक्ट में कविता की जिम्मेदारी नयी कंप्यूटर विशेषज्ञा प्राची को दी गयी। प्राची की परवरिश दिल्ली में हुई थी। बेंगलूर की प्रसिद्ध संस्था से एमसीए करने के बाद उसे यहाँ नौकरी का प्रस्ताव मिला था । चेहरे से प्राची अनिंद्य सुन्दरी तो नहीं थी, किन्तु उसकी सुघड़ देहयष्टि और सौम्य लावण्यमय मुखड़े पर दृष्टि जमकर रह जाती थी । प्रायः वह पश्चिमी परिधान ही पहनती, जिसमें उसकी सुन्दर काया का प्रत्येक उभार, प्रत्येक वलय सुस्पष्ट हो उठता था। चेहरे पर हमेशा खेलती रहनेवाली मुस्कान बरबस ही ध्यान खींचती थी। कार्यालयी संबंध कब घनिष्ठता में परिणत हो गये, दोनों को पता ही नहीं चला। दफ्तर से छुट्टी पाकर दोनों घंटों एक-दूसरे की बाँहों में खोये हुए, समुद्र किनारे घूमते रहते और अब तो रोहित के पास कार भी थी, जिसके रंगीन शीशे चढ़ाकर दुनिया से घंटों बेखबर रहा जा सकता था।
      रोहित का परिवार बिखरता देख कंपनी ने उसका स्थानांतरण दिल्ली कर दिया। इस आदेश की खबर पर सबसे मर्मांतक पीड़ा प्राची को हुई । रो-रोकर उसने अपना बुरा हाल कर लिया। रोहित ने उस शाम जुहू बीच के एकान्त अंधेरे में प्राची को दिलासा दिया था- ‘‘अरे पगली, चिन्ता क्यों करती हो। दिल्ली में तो तुम्हारा घर है। कहीं कोई नयी कंपनी पकड़ लो। फिर मैं जल्द ही तलाक लेकर हमेशा के लिए तुम्हारा हो जाऊँगा।’’
      ‘‘सच। तुम मुझसे दूर तो नहीं चले जाओगे न ? मुझे धोखा तो नहीं दोगे न? ’’ प्राची ने रोहित के चौड़े सीने में चेहरा छुपाते हुए मासूमियत से पूछा था।
      ‘‘नहीं भई। मेरा विश्वास करो। हम जल्दी ही पति-पत्नी होंगे। फिर कोई ताकत हमें अलग नहीं कर पायेगी।’’ रोहित ने प्राची से एकाकार होते हुए कहा था।
      स्थानान्तरण पर जाने से पहले रोहित ने एक दिन सीमा से कहा- ‘‘मम्मी-पापा तो न जाने कब तीर्थयात्रा से लौटेंगे, इधर मेरा ट्रांस्फर हो गया है। ऐसे में तुम कहाँ अकेले परेशान होवोगी। चलो मैं तुम्हें मायके पहुँचा आता हूँ। कुछ दिन वहाँ रहने से तुम्हारी तबीयत भी बहल जाएगी। फिर मैं थोड़ा सेटल हो जाऊँगा तो तुमको भी ले जाऊँगा।’’
      ‘‘मैं तो आपके साथ ही खुश रहूँगी। फिर नयी जगह आपके खाने-पीने का खयाल कौन रखेगा? आप मुझे भी साथ ले चलिए न।’’ सीमा ने लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा था।
      ‘‘वहाँ रहने के लिए मकान खोजना होगा। फिर नयी जगह है। तुम छोटी बच्चियों को लेकर कहाँ परेशान होती फिरोगी? इसलिए अभी साल-छह महीने तुम्हारा मायके में रहना ही ठीक है।’’ रोहित ने अपना फैसला सुना दिया। तीर्थाटन पर गये मम्मी-पापा का फोन आया तो उनको भी उसने बता दिया कि वे लौटकर गाँव में ही रहें और कुछ सेटल होकर वह उन्हें लिवा ले जाएगा ।
      बेजुबान गाय की तरह सीमा और दोनों बच्चियों को ससुराल पहुँचाकर रोहित ने दिल्ली की राह पकड़ी। दिल्ली पहुँचते ही उसने फ्लैट ले लिया। कुछ ही दिनों में प्राची ने भी त्यागपत्र देकर दिल्ली की ही एक अच्छी फर्म में नौकरी तलाश ली। अब वहाँ रोहित था और प्राची। दोनों अपनी दुनिया में रम गये ।
      तीर्थाटन से लौटकर पाठक दंपति पूर्वांचल स्थित अपने पुश्तैनी घर में जम गये। बेटे-बहू का मुँह देखे महीनों बीत गये थे। पोतियों की चिन्ता उनको सताए जाती थी। रोहित के दफ्तर का पता भी न था कि कुछ मालूम करते, नये ठिकाने का पता उसने बताया नहीं था। रोहित के स्थानान्तरण को लगभग एक साल होने को आया, लेकिन उसने माँ-बाप की कोई खोज-खबर न ली। क्या करें, क्या न करें, इसी ऊहापोह में दिन बीते जाते थे कि एक रोज रोहित के ससुर दरवाजे पर आ धमके। राम-रमौवल और गले मिलने के बाद  दोनों समधी बैठके में करीने से सजे पलंग पर आमने -सामने बैठे ।
      ‘‘बताएं समधीजी, कैसे कष्ट किया? सब कुशल-मंगल तो है?’’  पाठकजी ने ही बात आरंभ की ।
      ‘‘अब आप मुझसे कुशल पूछ रहे हैं भाई साहब। मरे हुए को मत मारिए समधीजी, मैं बरबाद हो जाऊँगा। कोई गलती हो गयी हो तो मुझे चार जूते मार लीजिए, किन्तु मेरी फूल सी बेटी और अपनी नन्हीं-नन्हीं पोतियों पर तो रहम कीजिए।’’ दुबेजी ने रिरियाते हुए जैसे दया की गुहार लगायी ।
      ‘‘भाईजी, बात क्या है? कुछ खुलासा करके बताइए। हम तो कुछ समझ ही नहीं पा रहे।’’ पाठकजी ने चिन्तित स्वर में  बड़ी आत्मीयता से पूछा ।
      ‘‘तो क्या आप बिलकुल नहीं जानते कि क्या बात है? क्या जमाई बाबू ने आपको कुछ भी नहीं बताया है?’’ दुबेजी ने आश्चर्य से पूछा ।
      ‘‘भाईजी, हम लोग तो कई महीने तीर्थ-यात्रा करते रहे। फिर सुना कि उसका ट्रांस्फर दिल्ली हो गया है। हमसे कहा कि तीर्थ-यात्रा से गाँव ही लौटें। बाद में फ्लैट वगैरह लेकर हमें बुलाने की बात थी, किन्तु उसको भी कई महीना बीत गया, अभी तक कोई खोज खबर ही नहीं ली। हम तो खुद चिन्ता में हैं कि छोटी-छोटी बच्चियों को वे दोनों कैसे संभालते होंगे।’’ पाठक जी ने अपना पक्ष रखा।
      ‘‘भाई साहब, हमारे ऊपर कुछ दया कीजिए। उन्होंने एक साल पहले सीमा और दोनों बच्चियों को हमारे पास भेज दिया और अब ....’’ दुबेजी ने साथ लाए बैग में से एक कागज निकालकर सामने रखते हुए कहा ‘‘यह देखिए, जमाई बाबू के वकील ने  नोटिस भेजा है कि चूंकि सीमा जमाई बाबू के साथ नहीं रहना चाहती और साल भर से अलग रह रही है, इसलिए उनको तलाक चाहिए।’’ दुबेजी की आँखें नम हो आयीं, गला भर्रा आया ‘‘अब हम आपसे क्या कहें भाई साहब। गलती हो गयी हमसे। अपनी औकात भूल गये थे हम। जबसे बिटिया ने सुना है बिलकुल पागल हो गयी है। न हो तो एक बार चलकर आप भी देख लें।’’ कहते-कहते उनकी हिचकियाँ बँध गयीं।
      पाठकजी को काटो तो खून नहीं। दरवाजे की ओट में बैठी सावित्री देवी का सिर घूमने लगा। जिसने भी सुना माथा पकड़कर बैठ गया।
      सीमा की विदाई तो हुई, किन्तु अपने पिया के घर नहीं, बल्कि पागलखाने के लिए। अब वह मनोविज्ञान के विद्यार्थियों के लिए शीजोफ्रेनिया का बहुत अच्छा केस है।
      सुपरिंटेंडेंट के चुप होते ही विचारों का मंथन आरंभ हो जाता है। मन में कहीं से आवाज आती है कि दुबे पागल थे, तो किसी कोने से कराहता हुआ कोई कहता है कि नहीं पाठक पागल थे। कभी रोहित पागल प्रतीत होता है, तो कभी प्राची। शीजोफ्रेनिया की शिकार सीमा की दुर्दशा देखकर मेरा भारतीय संस्कार चीत्कार कर उठता है- नहीं, ऐसी सुघड़, सुन्दर, सभ्य और सुशील ग्राम्य ललनाएँ भौतिकवादी, चालू समाज के पैमाने पर चाहे पागल करार दे दी गयी हों, सुसंस्कारी भारतीय घरों में अनादि काल से उनकी पूजा होती आयी है। सहिष्णुता की इन सुन्दर, ममतामयी प्रतिमाओं को हम पागल कैसे कह सकते हैं? फिर खुद पर ही संदेह होने लगता है- अपने-अपने संदर्भों में कहीं हम सभी तो पागल नहीं हैं?
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