(1)
यादों का जंगल
चंद खतों का एक पुलिंदा कहीं छिपाकर रक्खा होगा
यादों की चादर के नीचे एक दफीने जैसा होगा।
दोपहरी का ताप साँझ को अक्सर अभी दहकता होगा
उसकी वेणी का गजरा भी सारी रात महकता होगा।
बहुत दिनों की बात है लेकिन प्यार का जज्बा ज़िन्दा होगा
और लोग भी मिले तो होंगे, अपना मिलना पहला होगा।
घनी जुल्फ की मस्त घटा में चाँदी का पुट आया होगा
आँखों के डोरों में लेकिन बीता स्वप्न सुनहला होगा।
बीते युग की सब बातों का कभी पिटारा खोला होगा
मेरे साथ बिताया हर पल उससे कुछ-कुछ बोला होगा।
एक बूँद उसकी आँखों से मोती-सा जल टपका होगा
बरसों से उन आँखों ने इक दरिया कैसे रोका होगा।
दुनिया की हर रीत निभाकर उसने मुड़कर देखा होगा
दूर कहीं यादों का जंगल उसके भीतर जलता होगा।
सोच रहा हूँ उस चेहरे पर वक्त ने क्या-क्या लिक्खा होगा
सारा आलम बदल गया जब, वो भी कितना बदला होगा।
(2)
माँ
जाने कब
सोती रातों को जाने कब जग जाती माँ।
खेतों पर
खटती है जाकर भोजन पुनः पकाती माँ।
जब सारा घर खा-पी लेता, बचा-खुचा तब खाती माँ।
इतना सब
करती है लेकिन, बदले में क्या पाती माँ?
इतना सब
करती है लेकिन, बदले में क्या पाती माँ?
कुटनी-पिसनी और मजूरी कर बच्चों को पाले माँ।
खुद रहती है अस्त-व्यस्त पर शिशु को खूब संभाले माँ।
अँधियारे से भरे हृदय में लाती नये उजाले माँ।
दे- देकर आशीष तनय को बिलकुल नहीं अघाती माँ।
इतना सब
करती है लेकिन, बदले में क्या पाती माँ?
ज्वर से तपती संतानों के साथ रात भर जगती माँ।
चिन्ता में डूबी देवी की प्रतिमा जैसी लगती माँ।
दीपक में ज्यों बिना तेल की बाती बनी सुलगती माँ।
एक नहीं
सौ बार ज़िन्दगी बच्चों को लौटाती माँ।
इतना सब
करती है लेकिन, बदले में क्या पाती माँ?
बिना किसी अपवाद नित्य प्रति शिशु का मैला धोती माँ।
चाहे जो अपराध करे वो कभी न आपा खोती माँ।
नन्हे नन्हे बच्चों को ले कितने ख्वाब संजोती माँ।
बनती गुरु पहली निज शिशु की अनगिन पाठ पढ़ाती माँ।
इतना सब
करती है लेकिन, बदले में क्या पाती माँ?
बच्चे खूब सयाने होकर माँ को सीख सिखाते हैं।
कौड़ी के मुहताज रहे जो लाखों लाल कमाते हैं।
बड़े हुए इतने अब माँ को माँ कहते शरमाते हैं।
गाँव-गाँव अपने बच्चों के गुण ही लेकिन गाती माँ।
इतना सब
करती है लेकिन, बदले में क्या पाती माँ?
बहुओं की उतरन मिलती है या जामाता की फटकार।
माँ अपनी ममता के मारे सब कुछ करती है स्वीकार।
इसी तरह
आगे बढ़ता है माँ के सपनों का संसार।
सबका बोझ उठाकर आखिर बोझ स्वयं कहलाती माँ।
इतना सब
करती है लेकिन, बदले में क्या पाती माँ?
मित्र ....इस सुंदर कृति को साझा कर रहा हूँ ............. -:))) संजय रावत
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