यात्रा-वृत्तान्त
काला पानी जाकर मैंने क्या देखा- जानें आप भी
डॉ. रामवृक्ष सिंह
कोलकाता से उड़ान भरे दो घंटे
होनेवाले हैं। हम टकटकी लगाए खिड़की से बाहर देख रहे हैं। दूर-दूर तक फैले समुद्र
का स्थान अब हरियाली से आच्छादित टापुओं ने ले लिया है। छोटे-बड़े कई टापू और सब
पर श्यामल हरीतिमा का साम्राज्य। विमान धीरे-धीरे नीचे आ रहा है और उसी अनुपात में
हमारा कौतूहल बढ़ रहा है। पूरे दो घंटे की
उड़ान के बाद अंडमान के पोर्ट ब्लेयर शहर में वीर सावरकर अंतरराष्ट्रीय विमानपत्तन
पर अपना विमान उतरता है। जमीन पर पैर रखने से पहले उसे चूमने का मन करता है, माथे
पर उसका तिलक करने की लालसा होती है। मैं माथा नवाकर उन असंख्य
स्वतंत्रता-सेनानियों को नमन करता हूँ जिन्होंने बरसों घोर यातनाएं सहीं, लेकिन
हिन्दुस्तान की आजादी के सपने को कभी अपनी आँखों से ओझल नहीं होने दिया। हवाई
अड्डे पर बहती शीतल हवाएं जैसे उन पूर्वजों के आशीर्वाद-सी हर सैलानी को अपने
अंकवार में लेकर लाड़ जताती हैं। सैलानियों के कैमरों की क्लिक-क्लिक आरंभ हो गई
है। बगल में खड़ा सीआईएसएफ का जवान बरज रहा है, लेकिन सेनानियों के मन में इस
तीर्थ-तुल्य माटी के लिए जो श्रद्धा है, वह तमाम वर्जनाओं को तोड़ देना चाहती है।
लगता है कि जवान को भी इसका अहसास है।
छोटा-सा हवाई अड्डा है और उसी
अनुपात में सब कुछ छोटा। बड़ा है तो यह अहसास कि हम उस कुख्यात काला पानी में हैं,
जिसे अंग्रेजों ने प्रायः हर हिन्दुस्तानी के लिए घोर यातना और कठोर कारावास का
पर्याय बना दिया। सच कहें तो यहाँ की फिज़ाओं में माँ प्रकृति का कोमल स्पर्श है,
और यहाँ के लोगों में गजब का स्वागत-भाव है। इसका अहसास बार-बार होता है और हर बार
मन को भिगो जाता है। सामान समेटकर बाहर निकले तो टूर ऑपरेटर की मुहैया कराई हुई
टैक्सी तैयार मिलती है। जरा सी चढ़ाईदार सड़क पार कर हरियाली से गुजरते हुए टैक्सी
निकल पड़ती है हमारे होटल की ओर। प्रकृति ने इस द्वीप-समूह को अपार सुन्दरता से
नवाजा है। देश की माटी ने अपने सपूतों को जैसे जी खोलकर आशीष दिया है। ढेरों
जानी-अनजानी वनस्पतियाँ। अपना परिचय केवल तीन से-नारियल, आम और सुपारी। इन वृक्षों
से पूरा शहर गुलजार है। अब समझ आता है कि इन तीनों फलों का हमारे सांस्कृतिक जीवन
से इतना गहरा संबंध क्यों है। कुल मिलाकर बड़ी ही मनोरम दृश्यावली है। मुश्किल से
दो-ढाई किलोमीटर चले कि होटल आ गया। तिमंजिली बिल्डिंग- बेहद साफ-सुथरी और
व्यवस्थित। उससे भी व्यवस्थित कमरे। उत्सुकतावश खिड़की के ब्लाइंड्स हटाए तो
सुपारी और नारियल के ऊँचे-ऊँचे पेड़ दिख गए- फलों से लदे पेड़। जनवरी महीने में ही
आम पकने को हो आए हैं। मन खुश हो गया। जल्दी करें, बहुत कुछ देखना है। एक हम हैं
जो काला पानी का सौन्दर्य निरखने की हड़बड़ी में हैं। एक वे अभागे लोग थे,
जिन्होंने अपनी पूरी जवानी और बुढ़ापा इन टापुओं पर बिता दिया। अपने रिश्ते-नातेदारों
से दूर। चाहकर भी जो कभी यहाँ से वापस अपने गाँव-देस नहीं जा पाए।
कमरे में सामान रखा, जूते खोले, बीच पर नहाने के कपड़े और
तौलिए लिए, कैमरा उठाया और चल दिए। बाहर टैक्सी खड़ी मिली। होटल से बमुश्किल दो
किलोमीटर की दूरी पर है छिछला समुद्र-तट। अंडमान का पानी बिलकुल साफ और पारदर्शी
है। मेन-लैंड से आए हम सैलानी बड़े विस्मय भाव से इसके साफ-निर्मल तटों को देखते
रह जाते हैं। खूब जी-भर नहाए। लहरों ने हमसे अठखेलियाँ कीं और कानों में कुछ कहा।
लगा जैसे ये लहरें हमें दुलरा रही हैं, पुचकार रही हैं और भारत की आजादी के लिए
जान न्यौछावर करनेवाले स्वतंत्रता-सेनानियों का प्यार हम पर लुटा रही हैं। मन नहीं
भरा, लेकिन आगे अभी बहुत कुछ देखना बाकी था।
सेल्यूलर जेल का निर्माण अक्तूबर 1896 में आरंभ हुआ और 1906 में पूरा हुआ।
इसके निर्माण पर लगभग 5,17,352 रुपये खर्च हुए। इसमें साढ़े तेरह गुणा साढ़े सात
फुट की 698 कोठरियाँ थीं, जिनमें आजादी के दीवानों को कैद करके रखा जाता था।
कोठरियों यानी सेलों की बहुलता के कारण ही इसका नाम सेल्यूलर जेल पड़ाय़ 11 फरवरी
1978 को तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री मोरारजी देसाई ने इसे आज़ादी के अमर शहीदों
के नाम समर्पित किया।
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टैक्सी में बैठे और चल दिए सेल्यूलर जेल की ओर। किताबों में
पढ़ा था, लोगों के मुख से सुना था, आज साक्षात दर्शन कर रहे हैं। हम कितने भाग्यशाली
हैं! देश के कितने लोगों को यह नज़ारा मयस्सर हुआ है! सेल्यूलर जेल की ऊँची-ऊँची दीवारें। हल्के क्रीम रंग में
पुती हैं। टिकट कुछ खास महँगा नहीं। कैमरा ले जाना हो तो टिकट ले लें और जी भर
फोटो खींचें। फाटक से घुसते ही सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों की चित्र-प्रदर्शनी लगी
है। मन ही मन सबको पुनः नमन किया। भारत के हर प्रांत के लोग हैं। किन्तु अधिकता
पंजाबियों की ही लगी। फिर बंगाली, मराठी और अन्य भाषा-भाषियों की। चित्र-वीथिका से
बाहर निकले तो सामने जेल की तिमंजिला इमारत नजर आई। सेल्यूलर जेल का नक्शा किसी
मोटर साइकिल के अलॉय व्हील जैसा है, जिसमें बाहरी रिम गायब है और तीलियों की जगह
है सात इमारतों ने ले ली है। हर इमारत तीन मंजिल की। ये सब इमारतें एक धुरी पर मिलती हैं, जहाँ ऊँचा
वॉच टावर बना है, जहाँ से जेल के हर विंग पर निगाह रखी जा सकती है। सात खंडों
मिलन-बिन्दु पर खड़े इस वॉच टावर में निचले तल्ले पर सेल्यूलर जेल का मॉडल रखा है।
लगता है कि वास्तुकार ने इस इमारत को किसी नारियल के पेड़ की शक्ल में डिजाइन किया
होगा। सबसे लंबी भुजा नारियल का तना है और शेष छह भुजाएं पत्तियाँ। इस समय तीन
भुजाएं ही साबुत बची हैं, जिनमें से सबसे लंबी भुजा की तीनों मंजिलें
दर्शनार्थियों के लिए खुली हैं। इस इमारत के गलियारों से गुजरते हुए अजीब सी हूक
कलेजे में उठती है। तीसरी मंजिल की सबसे आखिरी कोठरी में अमर स्वतंत्रता सेनानी
वीर सावरकर रहे। एक दो नहीं, पूरे ग्यारह साल।
मन हुआ कि हर कोठरी में जाएँ। जहाँ हमारे पुरखे स्वतंत्रता सेनानियों
ने अपनी जिन्दगियाँ बिताईं, वहाँ कुछ पल बिताकर देखें। लेकिन उससे पहले हमें देखने
को मिला- तेल निकालने कारखाना और फाँसीघर। अंडमान में चारों ओर नारियल ही नारियल
हैं। काला पानी के कैदियों को नारियल तेल निकालने का काम दिया जाता था। पहले सूखे
नारियल की जटा छीलो, फिर उसे फोड़कर गरी निकालो और कोल्हू में पेरो। बैलों का काम
कैदी करते। यदि निश्चित मात्रा में तेल नहीं निकाल पाए तो लकड़ी के एक फ्रेम पर
पेट के बल बाँध दिया जाता और नंगी पीठ पर चाबुक पड़ते। अक्सर ही कैदियों को इस
यातना-चक्र से गुजरना पड़ता। बगल में ही है फाँसीघर। कहते हैं कि काला पानी में
बहुत कम लोगों को फाँसी लगी। सैलानी इस फाँसी घर के निचले हिस्से में, यानी तखते
के नीचे उतरकर अनुभव कर सकते हैं कि फाँसी पाए कैदी का शरीर कितनी गहराई में लटक
जाता था। फाँसी घर के बगल में ही है सेल्यूलर जेल का सबसे बड़ा विंग जो अपनी
पुरानी अवस्था में आज भी विद्यमान है और दर्शकों के लिए खुला है। इस तीन मंजिला
इमारत के भूतल की पहली तीन कोठरियाँ फाँसी की सजा पाए कैदियों के लिए रिजर्व थीं।
तेरह फुट गुना नौ फुट की इन कोठरियों के दरवाजे लोहे की मोटी सींखचों से बने हैं। दरवाजों
पर कुंडा चढ़ाने और ताला लगाने की व्यवस्था दीवार में बने एक आले में है। अंदर बंद
कैदी का हाथ इन कुंडों तक नहीं पहुँच सकता।
आम तौर पर जेलों में कई-कई कैदी
बड़े-बड़े वार्डों में रखे जाते हैं। किन्तु सेल्यूलर जेल में हर कैदी के लिए एक
कमरा था। किसी दूसरे इन्सान को देखना तो दूर उसकी आवाज सुनने को आदमी तरस जाए।
सुनाई देती थीं तो बस परिन्दों की आवाजें, हवा की सायं-सायं, नारियल और सुपारी के
पत्तों की सरसराहट और यातना-गृह में सटाक-सटाक बरसते कोड़ों के साथ मातृ-भूमि के
वीर सपूतों की उधड़ती चमड़ी की आर्त चीखें। हमारे पूज्य स्वतंत्रता सेनानियों ने
इन उमस और अंधेरे से भरी कोठरियों में अपनी जिन्दगी के स्वर्णिम दिन बिताए, यह
सोचकर कलेजा मुँह को आता है। वीर सावरकर की कोठरी में खड़े ही हुए कि मुंबई के
दस-बारह सैलानियों का एक दल पहुँच गया। इन अधेड़ स्त्री-पुरुषों ने सावरकर की ही
रची कोई पद्य-रचना समवेत स्वरों में गाकर अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित किए। सबने
मिलकर वंदे मातरम का नारा लगाया। हम भी उसमें शामिल हुए। कहते हैं कि जब वीर
सावरकर काला पानी की सजा काटने के लिए देश छोड़ रहे थे, तब उनकी नव-विवाहिता पत्नी
रोने लगीं। वीर सावरकर ने उनको ढाढस बंधाते हुए कहा था कि अपना घोंसला बनाकर अपने
बच्चे तो चिड़िया भी पाल लेती है। इन्सान तो वह है जो अपने देश और देशवासियों के
लिए जिए। ऐसी उत्कट देश-भक्ति का जज्बा रखनेवाले वीर सावरकर की इस कठिन तपोभूमि के
दर्शन हुए। अहा, हम कितने सौभाग्यशाली हैं!
वॉच टावर में बनी सीढ़ियों के
रास्ते हम सेल्यूलर जेल की छत पर चले गए। सात में से तीन ही विंग खड़े हैं। शेष का
पता नहीं। पिछवाड़े वाले हिस्से में कुछ और इमारतें बन गई हैं, जिनमें संभवत
सरकारी विभाग चलते हैं। जहाँ तक नजर जाती है, हरियाली से घिरे टापू ही टापू दिखते
हैं। बीच-बीच में समुद्र। जेल के जिस हिस्से में इमारत नहीं है, वहाँ अन्य
वनस्पतियों के साथ-साथ सुपारी के ऊंचे-ऊंचे पेड़ खड़े हैं पके हुए फलों से लदरे
हुए। यहाँ से निकलने का मन नहीं करता, किन्तु प्रहरी को ताला लगाने की जल्दी है।
पाँच बजे जेल के फाटक बंद हो जाएंगे। अमर शहीदों को मन ही मन अनंत नमन करते हुए हम
वॉच टावर के सबसे निचले तल पर उतर आते हैं। यहाँ दीवारों में विभिन्न
क्रांतिकारियों द्वारा रचित बड़ी ही भावपूर्ण काव्य-पंक्तियाँ प्रदर्शित हैं,
जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
नाम जिंदों में लिखा जाएंगे मरते-मरते/ लाज भारत की बचा जाएंगे मरते-मरते
जान पर खेल जाएंगे हम अगर तो भी/ सैकड़ों को भी जिला जाएंगे मरते-मरते
रूहो-तन होंगे जुदा, उनको तो होना ही है /हम तो बिछुड़ों को मिला जाएंगे मरते-मरते
बिस्मिल
मेरा मजहब हकपरस्ती है/ मेरी मिल्लत कौम परस्ती है
मेरी इबादत मुल्क परस्ती है/ मेरी अदालत मेरा अंतःकरण है
मेरा मंदिर मेरा दिल है और/ मेरी उमंगें सदा जवान हैं
लाला लाजपत राय
वतन के फूलों की संगंध हैं वे /स्वतंत्रता की पूजा के पुष्प हैं वे
वीरगति पाकर धन्य हैं वे/ उन्हें युगों का प्रणाम बोलो
उन्हें हमारा सलाम बोलो
कृष्ण मित्र
देखो मृत्यु निमंत्रण उसके द्वार आया /अत्याचारी से आगे बढ़ जो पहले टकराया
बन्द हो गया मेरा भी आज भाग्य का द्वार
लेकिन कहो बिना बलि पाई किसने आजादी उपहार
शहीद महावीर सिंह
जेल परिसर में एक ओर शहीदों की स्मृति में एक ज्योति जलती रहती है। हम उसके
आगे खड़े होकर अपने परिवार के साथ फोटो खिंचाते हैं। पता नहीं अब फिर कब यहाँ आना
हो, या क्या पता अब कभी इस पुण्य भूमि के दर्शन न हो पाएँ!
किन्तु ऐसा नहीं है। थोड़ी ही देर में यहाँ ध्वनि और प्रकाश (लाइट एंड साउड
शो) होगा। जेल से बाहर निकले और बड़े-बड़े हरे नारियलों का पानी पीकर अपनी प्यास
बुझाई। टूर ऑपरेटर ने पहले ही हमारी टिकट खरीद रखी है। हम पुनः जेल के प्रांगण में
हैं। सामने खुली रंगशाला जैसी सीढीदार व्यवस्था है, जिसपर दर्शकों के बैठने के लिए
प्लास्टिक की सैकड़ों कुर्सियाँ बिछी हैं। उनके सामने एक मंच बना है, जिसपर काठ की
मजबूत चमचमाती कुर्सी रख दी गई है। लकड़ी का आदमकद फ्रेम किसी कलाकार के आइजल की
तरल तिरछी मुद्रा में खड़ा है, जिसपर एक मजबूत काठी वाले युवक का पुतला पेट के बल
बँधा हुआ है। झुटपुटा होते ही शो आरंभ हो जाता है। हमारी बाईं ओर खड़ा पीपल का
पुराना पेड़ बोलने लगता है। यह पेड़ सेल्यूलर जेल के निर्माण से लेकर अब तक के हर
क्षण का साक्षी है। इस जेल की सारी कोठरियाँ, सारे गलियारे, सारी दीवारें, सारी
ईंटें, सींखचों लगे दरवाजे, आदमजात की पहुँच से बहुत ऊपर कसे, कोठरियों के
छोटे-छोटे झरोखे, फाँसीघर, तेल निकालने का कारखाना और कोल्हू सब कुछ जैसे जीवन्त
हो जाते हैं। क्रान्तिकारियों की चीखों से जेल का जर्रा-जर्रा काँपने लगता है।
पीपल दादा अपने सामने घटित हर बात का रेशा-रेशा बयान कर रहे हैं। दर्शकों में
स्तब्धता है। इतना जुल्म, इतना अत्याचार, ऐसी घृणा, ऐसी बर्बरता! अपने आपको दुनिया की सबसे समुन्नत, सभ्य और न्यायप्रिय कौम
कहलाने का दंभ पालनेवाले अंग्रेजों का यह गंदा, घिनौना रूप देखकर क्षण भर के लिए
मन न जाने कैसा-कैसा हो आया।
शो खत्म हुआ। भारी मन से सब लोग बाहर आए। टैक्सी में बैठकर होटल की ओर चल दिए।
अभी परिवार यहाँ रहेगा। लगभग पाँच सौ द्वीपों वाले अंडमान-निकोबार में प्रकृति के
कितने ही सुन्दर और दर्शनीय नज़ारे हैं। लेकिन अपना उद्देश्य तो पूरा हो गया।
सेल्यूलर जेल देख ली तो समझिए इन्सान का यह चोला धन्य हो गया। जैसे भरतभूमि का
सबसे बड़ा तीर्थ कर लिया।
बस सौजन्यवश हमने टैक्सी चालक युवक से पूछ लिया- भइया, आप यहीं के मूल निवासी
हैं क्या?
हाँ साहब, हम कैदियों के बच्चे हैं। उसका बड़ा ही सरल सा उत्तर था। मैं चौंका।
बात-बात पर अपने त्याग और देशभक्ति का बखान करके मिट्टी से कर्ज वसूलने पर आमादा
करोड़ों मेनलैंड वासियों के बिलकुल विपरीत इस सरल हृदय युवक ने यह क्या कह दिया! क्या काला पानी की सजा काटने वाले हमारे पूर्वजन सामान्य
कैदी थे? नहीं-नहीं। उन्हें आम कैदी मत कहो। वे हमारे देवता थे, वे
ऋषि दधीचि के परंपरा के महामानव थे, जिन्होंने अपने देशवासियों के सुखद भविष्य की
कामना में अपने वर्तमान को ले जाकर कठिन कारा में बंद कर दिया, अंग्रेजों के कोड़े
खाए, भूखे-प्यासे रहे और फिर भी वंदे मातरम के नारे लगाते रहे। निरीह पशु की तरह
जिनको अंग्रेजों ने फाँसी चढ़ाकर मौत के घाट उतार दिया, उनका दोष केवल इतना था कि
वे अपने वतन को अपनी जान से भी अधिक प्यार करते थे।
मैंने उसके इस कथन पर आपत्ति जताई- अरे ऐसा न कहो भाई। अपने पूर्वजों को साधारण
कैदी न कहो। उनको स्वतंत्रता सेनानी कहो, आजादी के सिपाही कहो, भारत माता के सच्चे
सपूत कहो, चाहे जो कहो, किन्तु सामान्य कैदी कहकर उनके कर्तृत्व और इतने महान
त्याग का अपमान न करो।
काला पानी की पावन माटी को माथे से लगा अगले दिन मैं वापस चला आया। लेकिन मेरा
मन अब भी वहीं है, क्योंकि वहाँ के कण-कण में हमारे महान देश-सेवी पूर्वजों के
यातनामय जीवन का स्पन्दन है। ऐसा जीवन जो पल-पल मृणमान्य होकर भी हर क्षण अनुक्षण
जिजीविषा का संदेश देता है, ऐसा जीवन जो अहर्निश जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि
गरीयसी का आख्यापन करता है।
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अंडमान व निकोबार द्वीपसमूह के बारे में जानने योग्य कुछ तथ्य
आदिवासी
जनसंख्या (2001 जनगणना)
शॉम्पेन- 398
निकोबारी 28653
ओंग- 98
जरावा- 248
ग्रेट
अंडमानी- 43
सेंटिनेली-
39
राष्ट्रीय
पार्क -9
वन्यपशु
अभयारण्य- 96
जैवीय
पार्क- 1
जैवमंडल
रिजर्व- 1
राजकीय
पशु- डुगौंग
राजकीय
पक्षी- अंडमान वुड पिजन
राजकीय वृक्ष-
अंडमान पडौक
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