Monday, 6 August 2012

तीन ग़ज़लें- मेरे ज़मीर से मुखातिब

                         तीन ग़ज़लें
- डॉ. रामवृक्ष सिंह
(1)
साबित हुआ था कत्ल पर मकतूल थे बरी।
वरदी बजा रही थी अमीरों की चाकरी।।

मुकरे थे कठघरे में गुनह के सभी गुवाह।
ताबूत में एक लाश थी बेहद डरी-डरी।।

हाथों में तराजू था, बँधी आँख पे पट्टी।
सुनसान शहर में थी कोई रूह भटकती।।

मैं सोचता हूँ दोस्त कि यूँही कभी-कभी।
मुर्दों की बस्तियों में सिसकती है ज़िन्दगी।।

कलदार काम आएँगे मरने के बाद भी।
गिनने में जुट गये थे सभी नेक आदमी।।

मैं दोस्त हिरासां हूँ कि अंधों के शहर में।
आएगी तो आएगी भला कैसे रोशनी।।

सबकी रगों का खून सियह हो चला है दोस्त।
यह देश यकीनन करेगा खूब तरक्की।।

(जेसिका लाल, मधुमिता, कविता, गीतिका और अब फिज़ा....
कितनी सस्ती है औरत की अस्मत और ज़िन्दगी !!!)

(2)

अपनी रहमत के उजाले में मुब्तला रखना।
मेरे मौला मुझे खुद से तू बावफा रखना।।

मेरी गुमनाम सी हस्ती का सिला जो भी हो
मेरे मेआर को हरदम जरा ऊँचा रखना।

मेरे नसीब में सेहरा की गश्तो ग़र्द सही
किसी की याद की खुशबू मगर बचा रखना।

तेरे ही नूर का जलवा है जिसके चेहरे में
मेरे दिल में सदा उसको युंही निहा रखना।

ये ज़माने की धूप-छाँह आनी-जानी है
अपने बंदों में इलाही ये हौसला रखना।
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(3)

किसको पता था क़ौम को रुसवा करेंगे वो।
खादी पहन के सत्य की हत्या करेंगे वो।।

मंदिर या मसाजिद का ही मसला नहीं है ये
उनकी तो ये आदत है कि बलवा करेंगे वो।

कल रात मेरे कत्ल में शामिल रहा है जो
उसकी ही सदारत में तो जलसा करेंगे वो।

सूखा पड़े कि बाढ़ भुगतना हमीं को है
उनका तो ये वादा है कि चर्चा करेंगे वो।

दस साल में इक बार गिने जाएँगे हम भी
फिर दो दफा दस साल में दौरा करेंगे वो।

बेशक निज़ामतें हैं आम आदमी की ये
हम फस्ल उगाएंगे औ काटा करेंगे वो।
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