Friday, 10 August 2012

कुछ काव्य रचनाएं- सबके लिए


चंद अशआर
 डॉ. रामवृक्ष सिंह

चंद अशआर मैं लिक्खूँगा रिसालों के लिए
चंद अशआर किन्हीं फूल से गालों के लिए

चंद अशआर किन्हीं शरबती आँखों के लिए
चंद अशआर किन्हीं रेशमी बालों के लिए

चंद अशआर में दुनिया के मसाइल होंगे
चंद अशआर महज़ अपने खयालों के लिए

चंद अशआर तो खालिक की परसतिश के लिए
चंद अशआर बस दोशीजा जमालों के लिए

चंद अशआर मेरे भोले कन्हैया के लिए
चंद अशआर महज़ गोपियों ग्वालों के लिए

चंद अंशआर जो मन में घुलेंगे मिसरी से
चंद अशआर किन्हीं तल्ख सवालों के लिए

चंद अशआर बहस के लिए मैं लिक्खूंगा
चंद अशआर तवारिख में मिसालों के लिए

जब भी ऐ दोस्त तेरे दिल में अँधेरा होगा
चंद अशआर मैं लिक्खूँगा उजालों के लिए



ग़ज़ल

खयाल -ए- उज्र नहीं है कि सताया मुझको।
तूने खादिम से जो मकदूम बनाया मुझको।।

तेरी जन्नत  के लिए शै न बनी थी मेरी।
अपने दोज़ख में किया तूने नुमाया मुझको।।
                                      
हम तेरे प्यार के काबिल न रहे हों, न सही।
तूने नफरत के मआकूल  तो पाया मुझको।।

हरेक शै  में मुझे  तू ही तू नजर आए।
उम्र भर इतनी शिफा  देना खुदाया मुझको।।

बस तेरा हो के रहूँ ये ही तो चाहा था कभी।
तूने अपना न किया करके पराया मुझको।।
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बाल-गीत

पूरब से आ गईं हवाएँ

पूरब से आ गईं हवाएँ
नभ पर लो छा गईं घटाएँ
जोर-जोर से कड़के बिजली
बादल उमड़-घुमड़ गरजाएँ

जी करता है उड़ें हवा में
भीगें रिमिर-झिमिर वर्षा में
जाकर बैठ रहें बादल पर
इन्द्रधनुष से तीर चलाएँ

छपक-छपक पानी के धारे
बहते हैं नारे-परनारे
चलो बना कागज की नौका
हम भी उनमें आज तिराएँ

धानी वसन धरा ने धारा
हर्षित हुआ जगत है सारा
मोर नाचते हैं बगिया में
मेंढकजी मलहार सुनाएँ

कुदरत की कितनी सौगातें
सुन्दर ऋतुएं सुखकर रातें
आओ मिलकर सभी सहेजें
कुदरत की सब सुन्दरताएँ
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स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में
आज़ादी के क्या थे मानी
डॉ. रामवृक्ष सिंह
आजादी के क्या थे मानी और हुए जाते हैं क्या
नए-नए आँकड़े जुटाकर साहब बतलाते हैं क्या

सात दशक की आजादी में कितना आगे आया देश
हरित क्रांति औ श्वेत क्रांति से खाया पिया अघाया देश
तीस कोटि लोगों को जुटती नहीं किन्तु रोटी अब भी
उनसे कोई जाकर पूछे भूख लगे खाते हैं क्या

अपराधों में लिप्त लोग शासनरत हैं राजन्य हुए
कोटि-कोटि जन भरत-भूमि के, पाकर उनको धन्य हुए
जन-प्रतिनिधि बस नाम मात्र के स्वार्थ-सिद्धि ही ध्येय बना
सत्ता मिल जाने पर जन-गण उन्हें याद आते हैं क्या

गहन अशिक्षा का अंधियारा फैलाए है अपने पाँव
पढ़-लिखकर सब शहर आ गए जाता नहीं है कोई गाँव
अध्यापक की मिली नौकरी वेतन मिलता है भरपूर
किंतु धूल में लोट के आए बच्चे भी भाते हैं क्या

पढ़-लिखकर कुछ बड़े हुए तो घृणित हो गया अपना ग्राम
दुबई, अमरीका, जरमनिया बसे, न अब आने का नाम
ठेल-ठेल कर अपना जीवन कैसे काटें माई-बाप
अनिवासी हो गए लोग जो कभी जान पाते हैं क्या

जोड़ रहे काला धन सब जन इधर-उधर कर भ्रष्टाचार
सदाचार रह गया कोश में, नहीं बचा उसका व्यवहार
दस्यु बने सत्ताधीशों से पूछेगा आखिर यह कौन
पुण्य-पवित पुरुषार्थ कमाया धन घर वे लाते हैं क्या

एक ओर बढ़ रही अमीरी, निर्धनता अतिशय इस ओर
सत्य-व्रती भूखों मरते हैं, मजे कर रहे डाकू-चोर
यही सुफल है आजादी का, इतना है स्वातंत्र्य सुलभ
लूट सकें तो प्रभो! लूट लें, नाहक शर्माते हैं क्या
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व्यंग्य-गीत
हम भी एक एनजिओ बनाएँ
डॉ. आर.वी. सिंह
हम भी एक एनजिओ बनाएँ । सब खाते हैं हम भी खाएँ।।
मन में आता है यह हरदम। इस मन को कैसे समझाएँ।।

चाय-पकौड़ी का लालच दे। सीढ़ी नीचे भीड़ जुटाएँ।।
फंडर के अफसर को लाकर। बढ़िया-सा लेक्चर दिलवाएँ।।

पीछे बैनर एक लगाकर। अच्छी-सी फोटू खिचवाएँ।।
पँचतारा होटल ले जाकर। अफसर से मुर्गा तुड़वाएँ।।

लेख लिखा था जो विकास पर। संपादित कर रपट बनाएँ।।
मुद्रक से उसको छपवाकर। फोटू सब उसमें चिपकाएँ।।

सचिव महोदय के दफ्तर जा। अपनी कीर्ति स्वयं ही गाएँ।।
महिला बाल निदेशक के घऱ। नकद-सुखद तोफे पहुँचाएँ।।

सुन्दर फोटू, चिकना कागज। आकर्षक सुन्दर ललनाएँ।।
कर अभिन्न एनजिओ समाहित। परियोजना शरतिया पाएँ।

कोटि-कोटि धन लगे बरसने। फॉरेन कंट्री घूम के आएँ।।
धूप जला, मेवा अर्पित कर। प्रभु से हर दिन यही मनाएँ।।

देव, बढ़े भुखमरी, गरीबी। कष्ट बढ़ें औ बढ़ते जाएँ।।
ताकि हमारे लिए काम हो। और आय के अवसर आएँ।।

मौका मिलते ही रच डालें। रपट छंद की कुछ कविताएं।।
स्वयं-सेविता में अविरत हम। अपना हर दिन-रात बिताएं।।

सबको सबका हिस्सा देकर। कागज में कल्याण दिखाएँ।।
इसी तरह हर गाँव-शहर में। हम अपना धन्धा फैलाएँ।

बड़ी साध है एक एनजिओ। हम भी पंजीकृत करवाएं।
हम भी एक एनजिओ बनाएँ । सब खाते हैं हम भी खाएँ।।









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