Monday, 3 September 2012

रामवृक्ष सिंह का व्यंग्य- ईमानदारी से कहूं तो..


                                        व्यंग्य
ईमानदारी से कहूँ तो..
                                           डॉ. रामवृक्ष सिंह

     हमारे एक पड़ोसी हैं जो हर बात पर कहते हैं- ईमानदारी से कहूँ तो.. यानी यह उनका तकिया कलाम है। यह तकिया कलाम सुन-सुनकर जब हमारे कान पक गए तो एक दिन हमने उनसे जिरह करने की ठान ली। फिर क्या था! उस दिन पहली ही मुलाकात में जैसे ही वे बोले- ईमानदारी से कहूँ तो, कि मैंने उन्हें दबोच लिया। "क्या यार, भाई जी! ईमानदारी से कहूँ तो ..ईमानदारी से कहूँ तो! आपको ईमानदारी कहीं मिली है? कहीं देखा है आपने ईमानदारी को? पहचानते हैं उसे? तो आप उससे कहने कहाँ जाएँगे? कैसे पहचानेंगे? बताइए कहाँ रहती है ईमानदारी? उसका पता-ठिकाना कुछ मालूम है? या ऐसे ही ख्वाहिश लिए जीते हैं कि ईमानदारी से कहूँ तो..?"
      पड़ोसी बेचारे सकते में गए। उन्होंने मुझ जैसे शान्त-चित्त व्यक्ति से ऐसी आक्रामक प्रतिक्रिया और उससे भी धांसू प्रश्नों की उम्मीद ही नहीं की थी। अचानक हुई पृच्छाओं की इस बौछार से वे आतंकित हो उठे। सिर खुजलाते जाते और सोचते-सोचते बोलते जाते- "ईमानदारी कहाँ मिलेगी? किससे पूछूँ? अव्वल तो लोग यही नहीं बूझ पाएँगे कि ईमानदारी होती क्या बला है? कई सदियों से ऐसी किसी शै का नाम तक सुनने में नहीं आया है। एक बार चीनी विद्वान फाह् यान या फिर ह्वेन सांग ने उसे भारत में देखा था। उन दिनों इफरात थी उसकी। इतनी प्रचुर मात्रा में मिलती थी कि लोग घरों पर ताले तक नहीं लगाते थे। चारों ओर ईमानदारी ऐसे दिखती थी जैसे आजकल लोगों की जेब में मोबाइल दिखते हैं। फिर अचानक कलिकाल डिक्लेयर हो गया और अपमान के डर से या जाने किस कारणवश ईमानदारी ऐसे ही लुप्त हो गई जैसे कभी धरती से डायनासॉर लुप्त हो गये थे। बाबा तुलसीदास के समय में भी उसका कहीं अता-पता नहीं था। ईमानदारी के रहने से चोरों-उचक्कों का बोलबाला हो चला था। इसलिए बाबाजी ने तो साफ-साफ लिख भी दिया- भूमि चोर भूप भए। पता नहीं क्या गड़बड़ झाला हो गया? या तो जमीन चुरानेवाले राजा बन गए या राजा लोग जमीन चुराने का कारोबार करने लगे। लेकिन ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि ईमानदारी सिरे से ही गायब हो गई थी।"
      पड़ोसी का असमंजस देखकर हमें खुद पर कोफ्त हुई कि ये हमने उन्हें किस आफत में डाल दिया। बेचारे बेईमानी के बजबजाते गटर में आकंठ डूबा होने के बावज़ूद ईमानदारी को सहज ही पा लेने का सपना देखते हैं तो देखते रहें। यदि उनके सौभाग्य से ईमानदारी कहीं टकरा गई तो कह देंगे उससे जो भी कहना होगा। अब हमें क्या हक था कि उनसे सीधे-सीधे पूछ बैठे कि कहीं देखी है ईमानदारी? प्रायश्चित के तौर पर मन हुआ कि ईमानदारी को खोजने में उनकी थोड़ी मदद कर दें। लिहाजा हम भी जुट गए ईमानदारी के अनुसंधान में। जैसे मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक होती है, वैसे ही अपनी बुद्धि घूम-फिरकर साहित्य में ही जाकर अटक जाती है। उसी को खोदने-कुरेदने में पिल पड़े। तभी हमें कुछ याद आया, और हम बोलने लगे-
      "अरे भाई जी! हमें लगता है कि पिछली सदी में भी ईमानदारी कहीं से प्रकट हो गई थी। हमारे राष्ट्र-पिता महात्मा गाँधी के साथ उसके रहने के भी प्रमाण मिलते हैं। इसीलिए उनका इतना मान था। सारी दुनिया उनका लोहा मानती थी। उनके पास ईमानदारी थी, इसके पक्के प्रमाण हैं।" पड़ोसी सज्जन को कुछ आशा बंधी। उनका कुम्हलाया मुख कुछ खिल आया। हमें अच्छा लगा। ईमानदारी से कुछ कहने की इच्छा रखनेवाला आदमी जीवित बचा रहे यही काफी है। फिर वह बदस्तूर मुस्कुराए भी, यह तो बिलकुल ही दुर्लभ घटना है। बिल्कुल ऐसे जैसे हेली के धूमकेतु के पृथ्वी की ओर आने की घटना। लेकिन दूसरे ही क्षण वे गहन उदासी में डूब गए- "अमां यार! गाँधीजी के पास ईमानदारी रही होगी तो रही होगी। उससे हमें क्या लाभ? हमारी तात्कालिक समस्या तो यह है कि अब वो कहाँ है? कोई बता दे तो हम जाके उससे कहें।"
      हम फिर इतिहास में गोत लगाने लगे। वहीं से, गहरे ही गहरे, कभी साहित्य में भी हो आते। कभी इतिहास तो कभी साहित्य। हमारी मुश्किल यह थी कि इतिहास भी हमें साहित्य जैसा ही लगता था। हर इतिहासकार अपने हिसाब से चीजों की मीमांसा करता है। एक ही ढाँचे को कोई मस्जिद लिखता है तो कोई मंदिर। कोई-कोई उसी को बौद्ध विहार लिखता है। अजीब उलझन थी। साहित्य और इतिहास की इसी उठा-पटक में ईमानदारी जाने कब शहीद हो गई- पता ही नहीं चला। तभी हमारे दिमाग की बत्ती जल गई और हमने उछलकर कहा- "अरे भाईजी! सुनिए! वो पिछली सदी में एक कवि हुए हैं- भवानी प्रसाद मिश्र। कुछ लोग उनको भवानी भाई भी कहते थे। इस साल उनकी जन्म-शती भी मनाई जा रही है।"
      पड़ोसी को आशा की किरण दिखी। वे हमारे एकदम करीब गए और लगभग मनुहार करते हुए बोले- "हाँ-हाँ! उनके घर में रहती है क्या ईमानदारी? या उन्होंने कोई नक्शा-वक्शा छोड़ा है ईमानदारी के गाँव का?"
      हमें पड़ोसी के भोलेपन पर ढेर सारा प्यार उमड़ आया। कवि और नक्शा? हाँ "नक्शा" शब्द का निकाल दो तो सत्य के कुछ निकट पहुँचा जा सकता है। लेकिन यह कहकर हम पड़ोसी महोदय के मन में कवियों के लिए उमड़े सद्भावों का गला नहीं घोटना चाहते थे। इसलिए हमने तुरन्त उनकी पृच्छा का समाधान कर देना ही उचित समझा- "नहीं भाईजी! ईमानदारी का नक्शा तो वो नहीं छोड़ गए। लेकिन अपनी "गीत फरोश" शीर्षक कविता में उन्होंने ये जरूर लिखा था कि- लोगों ने तो बेच डाले ईमान।"
      "धत् तेरे की।" पड़ोसी सज्जन ने निराशा में पैर पटकते हुए कहा। "बेच डाले ईमान! अरे तो किसी ने खरीदा तो होगा, यार ईमान और ईमानदारी को।"
      ईमानदारी की खोज में बेतरह परेशान और लगभग उन्मत्त हो चुके अपने उन पड़ोसी महोदय के सामने से खिसक लेने में ही हमें समझदारी लगी। हम वहाँ से पतली गली से निकल लिए, लेकिन धीरे-से एक मित्रवत समझाइश देकर- "भाईजी, ईमानदारी को खोजने में अपना टाइम खोटा करने का कोई लाभ नहीं होगा। अब तो ईमानदारी को भूल जाने में ही समझदारी है।"
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