Monday, 24 September 2012

जिन्दगी को अभिशाप की तरह जीती महिलाओं के नाम रामवृक्ष की कविता- क्या पाती हैं महिलाएँ?


                                                 कविता
                                                                        डॉ. रामवृक्ष सिंह



क्या पाती हैं महिलाएं?

पैदा होते ही पाती हैं हिकारत,
घृणा और उपेक्षा अपने लिए-
सबकी आँखों में।
यहाँ तक कि खुद की जननी और जनक की आँखों में भी।
उनके हिस्से आता है भय और त्रास।
कोई बधाइयाँ नहीं देता,
बँटती नहीं मिठाइयाँ, नहीं पीटता थाल कोई भी।
नेग नहीं हैं माँगे जाते।
कोई नहीं लेता उन्हें हाथों-हाथ
नन्हीं-सी जानें बन जाती हैं बोझ पूरे खानदान पर
उनका मुक्त हास, खेलना-कूदना, बोलना-बतियाना सब कुछ
सच-सच कहें तो उनका अस्तित्व मात्र
गुजरता है नागवार, सबको।
भइया का मनता है जन्म-दिन
जाता है अच्छे स्कूल
पाता है अच्छे खिलौने, कपड़े, साइकिल।
खाती है मार भाई की और उन्हीं हाथों पर बाँधती है राखियाँ
साल-दर-साल।
होते-होते किशोरी ब्याह बन जाता है मुद्दा
भरता हुआ शरीर चिन्ताएं भरता है दिमाग में सबके
समाज के भेड़िए रचने लगते हैं जाल
आफत की पुड़िया दिखने लग जाती है बिटिया
हर दिन दुश्चिन्ता में बीतने लगता है बाप का
किसी तरह निपटाएं इसे
उतारें अपना बोझ
करें कन्यादान और पाएं मुक्ति- सोचते हैं अभिभावक।
जैसे-तैसे जुटता है दहेज
ढूंढा जाता है वर- होती है सौदेबाजी
कर डाला जाता है ब्याह
येन-केन-प्रकारेण।
बिटिया जो जन्म से ही थी पराई
पाल-पोसकर, दान-दहेज सहित
सौंप दी जाती है वधिकों के हाथ।
अब जाने बिटिया, या जाने उसका नसीब
या वो भगवान- जो खुद पुरुष है अकर्मण्य (माया के बिना)।
हम तो नहाए गंगा।
बिटिया बन जाती है बहुरिया
पति, सास-ससुर, ननद-देवर, जेठ-जिठानी
सब की दासी
पकाती है भोजन, धोती है कपड़े, माँजती है बर्तन, करती है सफाई, बजाती है हुकुम
सुबह से शाम तक।
सजाती है सेज रात को या जब चाहे पति-परमेश्वर।
जनती है बच्चे
धोती है पोतड़े, पोंछती है रेंट, बदलती है लंगोट,
पकाती है टिफिन, भेजती है स्कूल, कराती है होमवर्क
रोज ब रोज।
और सजाती है सेज रात को या जब चाहे पति-ताकि उसका घर बसा रहे।
खाती है मार। लाती है दहेज। माँगें करती है पूरी।
और यदि न करे तो...?
तो जलाई जाती है पेट्रोल से।
गृहस्थी की धुरी बनी-
घिसती-पिसती-जलती रहती है रात-दिन।
अपना ही स्नेह लिए-लिए।
डोलती है घर-भर
सबका खयाल करती हुई।
सबको जिलाकर खुद तिल-तिल मरती हुई।
वह बीमार हो, या ठीक हो,
उसे जर हो-बुखार हो, दर्द हो, पीड़ा हो..तो क्या
है तो.. हुआ करे।
गृहस्थी का काम तो सब उसे ही करना है।
पति को ठसका है- कमाता है।
बच्चों को समय कहाँ- पढ़ते है।
न पढ़ रहे हों तो क्रिकेट खेलकर, टीवी पर कार्टून देखकर
कंप्यूटर पर कोई साइट खोले माँ पर अहसान जताते हैं।
बच्चे बड़े होकर घोंसला छोड़ देते हैं
पति हो जाता है यायावर
पीछे रह जाती है माँ-
अपनी खाँसी, अपनी टीबी, अपने कैंसर
अपनी बंध्या उम्मीदों के सहारे।
अपने घर में
अथवा
किसी वृद्धाश्रम में
अथवा
काशी मथुरा के किसी मंदिर की सीढ़ी पर
जिसके भीतर रहता है भगवान- पुरुष है जो
अकर्मण्य स्वयं – अपनी माया के बिना।
चली जाती हैं एक दिन निष्ठुर दुनिया से-
न उनका नाम बचता है न गोत्र न कुल
सब कुछ पुरुष को देकर
मैं पूछता हूँ सबसे
क्या पाती हैं महिलाएं?

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