Sunday, 16 September 2012

रामवृक्ष सिंह का व्यंग्य- जल्दी जागने के फायदे


                                                                             व्यंग्य
जल्दी जागने के फायदे

                                                                    डॉ. रामवृक्ष सिंह

     अपन के राम जब बच्चे थे तो प्रभात फेरियाँ निकालनेवाले भाई लोग अपने मुहल्ले में अक्सर गाते घूमते थे- उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ जो सोवत है, जो जागत है सो पावत है जो सोवत है सो खोवत है। उन दिनों हमें लगता था कि बाबा लोग पढ़ने वाले बच्चों को जगाने के लिए ही ऐसे भजननुमा गीत गा रहे हैं, ताकि वे जागकर पढ़ें-लिखें। साथ ही, हमारे शरारती मन में यह विचार भी आता था कि बाबा लोग सबको जगा रहे हैं कि उठो और हमारे कमंडल में कुछ डालो। लोग जागेंगे ही नहीं तो बाबाजी को भीख कैसे मिलेगी! अब जब हम सठियाने की दिशा में अग्रसर हैं, अचानक हमें तत्व-बोध हो गया है और उस प्रभात फेरी वाले भजन के और भी ढेरों निहितार्थ हमें समझ आने लगे हैं, जिनकी चर्चा हम आगे करने जा रहे हैं।

     जल्दी जागने के ढेरों लाभों में से एक लाभ का आभास हमें पिछली पोस्टिंग के दौरान हुआ। हमारे पड़ोस वाले फ्लैट में जो सहयोगी रहते थे, उनके वृद्ध माता-पिता भोर में ही जाग जाते और सुबह की सैरके लिए निकल पड़ते। दोनों के एक हाथ में एक-एक सोटी होती और दूसरे में प्लास्टिक की थैली। सोटियों के सिरे पर लोहे की कील या तार का एक हुक बना रहता। बूढ़ी आंटी एक दिशा में जातीं और बूढ़े अंकल दूसरी दिशा में। अभी पूरी बस्ती नींद की खुमारी में होती और अंकल-आंटी अपनी सोटी के हुक में फंसा-फंसाकर सभी मकानों के अहाते में खिले भांति-भांति के फूल तोड़कर अपनी थैली में भरते जाते। यह सिलसिला लगभग घंटा भर चलता। जब उनकी थैलियाँ भर जातीं तो वे लौटते। इस प्रकार तोड़कर लाए गए फूलों से वे भगवान की पूजा अर्चना करते- चौरकर्माणि आनयित्वा पुष्पानि समर्पयामि, गंधम समर्पयामि। जब उन्हें लगता कि अब भगवान की फूलों की भूख मिट चुकी और वे आगे और फूल खाने, पचाने या ओढ़ने-बिछाने या सूँघने में असमर्थ हैं तो वे उनके गणों यानी अपने परिजनों की ओर उन्मुख होते। नतीजतन उनकी पुत्रवधू, बूढ़ी आंटी सभी अपने बालों में आधा-आधा किलो फूलों के गजरे सजाए घूमतीं। फिर भी बहुत से फूल बच जाते, जिन्हें उनके फ्लैट के मुख्य द्वार के दोनों ओर सजा दिया जाता। इन सब अनुष्ठानों के बाद भी कुछ फूल बचते, जो फ्लैट के सामने स्थित कॉमन एरिया में रंगोली के रूप में सजाए जाते।

     सुबह जल्दी जागकर दूसरों के अहाते से फूल चुरा लाने और अपने घर-आँगन को महकाने का यह तरीका हमें बहुत अच्छा लगा। अपनी तो शुरू से ही लंबी तानकर सोने की आदत रही है, लेकिन एक दौर ऐसा भी आया कि तमाम भौतिक और थोड़े से आध्यात्मिक कारणों से कभी-कभार, साल-छह महीने में नींद जल्दी खुलने लगी। ऐसे में हम भी मौका नहीं चूकते थे और पन्नी जेब में ठूंसकर फूलों की फिराक में निकल पड़ते। फिर ट्रांस्फर होकर इस शहर आए जहाँ बैंक से लंबा कर्जा लेकर हमने अपना मकान बनाया है। इस मकान के सामने एक पार्क है। जब हम आए तो पार्क की हालत खराब थी। लंबी-लंबी घास उगी थी, बीच-बीच में कहीं-कहीं फूलों की क्यारियाँ थी, जो लंबी घास में ऐसे ही खो गई थीं, जैसे जंगल में खजुराहो के मंदिर कभी विलुप्त हो गए थे। घास के कारण अव्वल तो लोग उसमें आते नहीं थे और गलती से खिल आए गुलाब-गेंदे की टोह में जो लोग आते भी थे वे घास से बचते-बचाते दो-चार फूल तोड़कर चलते बनते थे। उसी पार्क में शिव जी की एक पिंडी रखी है, जिसे पार्क में लगे सरकारी नल से खूब सींचा जाता था। पुष्पानुरागी लोग सरकारी नल से जुड़ी प्लास्टिक की पाइप कभी इस झाड़ी में घुसेड़ देते कभी उस। फूलों और शिवजी, दोनों को बस यह मुफ्त की जल-सेवा ही उपलब्ध थी।  हमने आते ही पार्क का जीर्णोद्धार कराया। लोगों से चंदा लेकर पार्क के लिए एक माली रखा। क्यारियाँ ठीक कराईं और खाद-पानी देकर पार्क को बिलकुल गुलजार कर दिया। चारों ओर फूल ही फूल खिलने लगे।

     अपन के राम की आदत अब भी वही पुरानी वाली। यहाँ कोई प्रभात फेरी भी नहीं निकलती। लिहाज़ा मुसाफिर देर तक सोता ही रह जाता। प्रत्येक शाम हमें पार्क में नई-नई कलियाँ दिखतीं, अगली सुबह सब की सब गायब। हमें बड़ा क्षोभ होता। तभी नवरात्र आये। नए घर में हमने देवीजी की स्थापना की। सोचा पार्क से फूल लाकर चढ़ाएँगे- देवी माँ प्रसन्न होंगी। परेवा वाले दिन, सुबह-सवेरे नहा-धोकर हम फूल लेने निकले। देखा आज तो ब्रह्म मुहूर्त में ही लोग फूल तोड़ ले गए हैं। हद्द हो गई। पहली बार बड़ी शिद्दत से अनुभव हुआ कि जल्दी जागने- बल्कि रात को सोने का कितना लाभ है! पार्क में महीनों के जतन से लगाए फूल चुरा ले जाओ और भगवान को खुश करो- चौरकर्मेन् आनयित्वा पुष्पानि समर्पयामि।

     कचरा सभ्य समाज का बाइ-प्रोडक्ट है। जो समाज जितना अधिक सभ्य, समुन्नत और संपन्न है, उसकी कचरा-उत्पादन क्षमता उतनी ही अधिक है। जब अपन के राम अपने अभावग्रस्त, गरीब और पिछड़े हुए गाँव में रहते थे तो कचरा नाम की चीज से अपना परिचय भी नहीं था। वहाँ कोई कूड़ा उठाने नहीं आता था। डस्टबिन थी ही नहीं। गइया-भैंसिया और बैल-बछड़े अलबत्ता कुछ उपोत्पाद करते थे, जो उठाकर घूरे में फेंक दिया जाता था। वहीं घर की झाड़ू-बुहारी से निकले घास-फूंस डाल दिए जाते। सब खाद बन जाते और बुवाई के पहले उसी को लोग खेत में फेंक आते। यहाँ शहर में कचरा उठाने के लिए लंबा-चौड़ा अमला है। हम ज्यादा उपभोग करते हैं, ज्यादा कचरा बनाते हैं। अमीरों के कचरे पर गरीबों का गुजर-बसर होता है। इस तरह एक मायने में अमीर लोग गरीबों पर बड़ा भारी अहसान करते हैं। व्यष्टि ही नहीं, समष्टि स्तर पर भी यही सच है। पश्चिम के उन्नत देशों का कचरा अल्पविकसित देशों में प्रसंस्करण के लिए आता है। उनके फेंके हुए जहाज हमारे यहाँ तोड़ने के लिए आते हैं। उनका रेडियोएक्टिव कचरा हिन्द महासागर में निस्तारित होता है। उनके उतारे हुए कपड़े- कोट आदि अपने यहाँ ठेलों पर बिकते हैं, जिससे लाखों गरीब लोग कोट पहनने की अपनी साध पूरी कर लेते हैं। पाठक सोच रहे होंगे कि कचरा-पुराण से जल्दी जागने का क्या संबंध? है। संबंध है। जो लोग जल्दी जागते हैं वे बड़े आराम से अपने घर का कचरा पड़ोसी के घर के सामने, या सार्वजनिक पार्क की बाउंड्री के भीतर या गली के नुक्कड़ पर छोड़ कर सकते हैं। अलस्सुबह जब सब लोग गहरी नींद में हों, तब अपने कचरे से निजात पाना कितना आसान है! यही क्यों, कुछ लोग तो नवजात शिशुओं को भी ऐसे ही, किसी कचरादान में लावारिस छोड़कर चल देते हैं। और यह काम अलस्सुबह, ब्रह्म मुहूर्त में ही होता है।

     यही नहीं, आप अपने नाजों पाले कुत्ते (सॉरी... उसका प्यारा सा नाम तो सिर्फ आप ही जानते होंगे, इसलिए फिलहाल तो मजबूरन उसे कुत्ता कहना ही पड़ेगा) को हाजत कराने के लिए भी जल्दी जागें तो ही ठीक है। यह तत्व बोध भी हमें कुछ ही दिन पहले हुआ। अपनी आदत है सामने देखकर चलने की। लेकिन एक दिन यह आदत भारी पड़ गई। हम कहीं से आए, गाड़ी लगाई और सीधे घर में घुस गए। पत्नी आईं तो उनके नथुने फूले हुए थे। बोलीं- कुछ बस्सा रहा है। आपको नहीं लग रहा? उनकी प्रेरणा से हमें भी बदबू का आभास होने लगा। तभी पत्नी की निगाह हमारे जूतों पर गई। वे जोर से चिल्लाईं जैसे कोई लाश देख ली हो। तुरन्त हमें बाहर निकलने का फरमान जारी किया। सच्ची! हमारे जूते किसी पड़ोसी के कुत्ते की विष्ठा में सन गए थे। हमारे समझदार पड़ोसी जानते हैं कि हम देर से जागते हैं। वे सुबह-सुबह अपने कुत्ते को हाजत कराने हमारे मकान के सामने ले आते हैं। उनको जल्दी जागने का लाभ मिलता है और हमें देर से उठने का खामियाजा भुगतना पड़ता है। अब यदि हमें ऐसी भयानक दुर्घटनाओं से बचना है तो या तो सुबह जल्दी उठकर सड़क पर निकल आएँ और पड़ोसियों उनके कुत्तों के ऊपर किसी बुलडॉग की तरह गुरगुराएँ या फिर हमेशा गरदन झुकाकर, निगाहें सड़क पर गड़ाकर, अपना दामन बचाकर चलें। फिलहाल तो हमने दूसरा वाला तरीका ही अपनाया है, क्योंकि प्रभु यीशु की बात मानते हुए हम भी अपने पड़ोसी से प्यार करते हैं, लव यौर नेबर। अब यह अपनी बदकिस्मती ही है कि हमारे मरदुआ पड़ोसी (और पड़ोसिनें भी) हमसे अधिक अपने कुत्ते से प्रेम करते हैं।

     सच कहें तो जागने के मामले में हमसे अच्छे तो कचरा बीनने वाले हैं। वे जल्दी उठकर पूरा शहर छान मारते हैं और कचरा- प्लास्टिक की बोतलें, पन्नियाँ, कागज, कार्टन सब बीन ले जाते हैं। जो काम अरबों खर्च करके भी नगर पालिका नहीं कर पातीवही काम अपने कंधों पर बोरी लटकाए घूमने वाले ये नीमजान बच्चे और महिलाएँ  कर डालती हैं। यह दीगर बात है कि कभी-कभी वे बाहर पार्क की गई गाड़ियों के शीशे तोड़कर स्टीरियो, व्हील कैप आदि पर भी हाथ साफ कर देते हैं।

     फ्लैटों में रहते थे और कभी गलती से (या उम्र के साथ बढ़ते जाते अवसाद के कारण) जल्दी आँख खुल जाती तो लपक कर दरवाजा खोलते कि चलो अखबार लाकर पढ़ें। अखबार वाला दरवाजे पर ही अखबार फेंक जाता था। कई बार हमें अखबार मिलता ही नहीं था। कारण? ऊपर-नीचे के एक-दो घरों में लोग पढ़ा-लिखा होने के बावजूद अखबार मँगाने की जहमत नहीं उठाते थे। अलबत्ता वे जल्दी उठ जाते और हम जैसे किसी लेट लतीफ का ही अखबार लाकर पढ़ लेते। जब तक हम उठते, वे पढ़-पढ़ाकर अखबार हमारे दरवाज़े पर डाल चुके होते। लेकिन अगर कभी इस बीच हम भी जाग गए तो फिर वे अखबार पढ़कर हमारे दरवाजे पर फेंकने का खतरा नहीं उठाते थे। कई बार मन में आया कि ऐसे लोग पकड़ में जाएँ तो उन्हें दिल्ली की एक प्रेस का विज्ञापन पढ़ाएँ- क्या आप माँग कर खाते हैं? क्या आप माँग कर कपड़े पहनते हैं? तो फिर माँग कर (या चुराकर) पढ़ते क्यों हैं? लेकिन हमारे वे पुरुषार्थी पड़ोसी कभी पकड़ में नहीं आये। आते भी कैसे? जो जागत है सो पावत है। इति सिद्धम।
☺☺☺

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