Wednesday, 19 September 2012

रामवृक्ष सिंह का चुभता हुआ व्यंग्य- बॉस और भगवान


                                   व्यंग्य
बॉस और भगवान
                                डॉ. रामवृक्ष सिंह

      बहुत बार यह खयाल मन में आया है कि बॉस और भगवान में कौन बड़ा है। किसकी आराधना की जाए? किससे मुरादें माँगी जाएँ? ग़मगुसारी के लिए किसके पास जाया जाए? मन का पेंडुलम कभी भगवान की ओर खिंचता है तो कभी बॉस की ओर। बस इसी उधेड़-बुन में यह लेख लिख जाता है, अपने-आप, बिना किसी विशेष प्रयत्न के। अपन के राम इधर बहुत प्रैक्टिकल हो चले हैं। आदर्श-वादर्श गए भाड़ में। उनको अब कौन पूछता है! जो कुछ है सब प्रैक्टिकल में है। लिहाजा अब हम लगभग समूचे के समूचे बॉसवादी हो चले हैं। भगवान का भी स्थान है अपने मन में, लेकिन उनकी गिनती बॉस के बाद। पाठक पूछेंगे कि ये क्या बात हुई! बॉस का रुतबा भगवान से ऊँचा कैसे हो सकता है? तो लीजिए आपकी पृच्छा-पूर्ति के लिए अपनी इस प्रपत्ति की थोड़ी-सी तफसील भी बयां कर दें।

      सबसे पहले तो ये समझ लें कि बॉस आपसे एकांतिक भक्ति चाहता है। उसे यह कतई गवारा नहीं कि आप उसके जीते-जी किसी और की ओर अपना मन लगाएँ। चाहे घर में उसकी लुगाई उसके दफ्तर आते ही किसी और से आशनाई करती हो, बेटे-बेटियाँ घास डालते हों, किन्तु मातहत से वह पूरा समर्पण चाहता है। फुल डिवोशन। भगवान के साथ ऐसा नहीं है। वहाँ लिबर्टी ली जा सकती है। सोमवार को आप एक भगवान की पूजा करें, मंगल को दूसरे, बुध को किसी तीसरे की। यदि एक ही दिन और एक ही स्थान पर अलग-अलग भगवान लोगों की पूजा करना चाहें तो भी कोई दिक्कत नहीं है। एक ही मंदिर में अपने-अपने स्थान पर विराजे हुए और अपने-अपने हिस्से का भोग लगाते हुए भगवान लोगों को हर मंदिर-गामी प्राणी ने प्रायः देखा होगा। बॉस को यह सब गवारा नहीं। उसे तो अपना अलग मंदिर चाहिए। हर बॉस को अपना अलग केबिन चाहिए। दो बॉस एक केबिन में नहीं रह सकते। कहावत प्रसिद्ध है कि कभी दो तलवारें एक म्यान में नहीं रह सकतीं। इस लिहाज से बॉस और तलवार में कोई फर्क नहीं है। अगर आपने एक बॉस से मन हटाकर दूसरे में लगाया तो आप गए काम से। हमने अक्सर ऐसा देखा है कि रिटायर या ट्रांस्फर होनेवाले बॉस को लोग केवल इसलिए समारोहपूर्वक विदाई देने से कतराते हैं कि नया आनेवाला बॉस बुरा मान जाएगा। सो बेहतरी इसी में है कि जो जा रहा है, वह चाहे कितना ही अच्छा क्यों रहा हो, उसे चुपचाप विदा करो और जो नया वाला आया है, उसकी पाँव-पूजा की तैयारी में जुट जाओ।

      भगवान के साथ एक बहुत बड़ी सुविधा है। आप चाहें तो उसे मानें और चाहें तो मानें। भगवान कभी आपसे यह कहने नहीं आएगा कि भइए, तू मुझे मानता क्यों नहीं। बॉस के साथ ऐसी कोई सुविधा नहीं है। उसकी सत्ता में विश्वास किए बिना आपका निस्तार नहीं। आप भगवान की पूजा करें तो ठीक, करें तो ठीक। पूजा में शॉर्ट कट मार जाएँ तो भी कोई दिक्कत नहीं है। अक्सर अपने पुजारी-पुरोहित लोग ऐसा ही करते हैं। खासकर जब उन्हें थोड़े समय में ज्यादा यजमानों को निपटाना होता है तो वे संस्कृत मंत्रों को बस अंट-शंट बुदबुदाकर काम चला लेते हैं। भगवान को मानकर उसपर मेहरबानी करनेवाले बहुत-से लोग सुबह जल्दी में होने के कारण पूजा नहीं निबटा पाते तो दफ्तर जाते हुए बस में ही अपना पाठ पूरा कर लेते हैं। कर्म-कांड-विरोधी कबीर साहब ने तो यहाँ तक कह दिया कि तुम जो कुछ करते हो वह सब पूजा ही है, जो कुछ कहते हो वही भजन है। वाह! भगवान के साथ तो बड़ी सुविधा है। लेकिन बॉस के साथ ऐसा कुछ नहीं!! सुबह दफ्तर पहुँचते ही अगर आपने बॉस को दंडवत नहीं पेला तो समझिए कि उसके खाते में आपके नंबर कटने शुरू हो गए।

      मध्य काल में भगवत-प्राप्ति के दो मार्ग सुझाए गए- भक्ति और ज्ञान। आप चाहें तो अपने ज्ञान के बल पर भी उसके समीप पहुँच सकते हैं, उसे हासिल कर सकते हैं। फिर आए सूफी, जो भगवान को महबूबा मानते थे। इन सूफियों का प्रभाव बढ़ा तो एक तीसरी विचारधारा ने जन्म लिया- प्रेम की विचारधारा। अब भगवान को हासिल करने के तीन रास्ते हो गए- भक्ति, ज्ञान और प्रेम का रास्ता। बॉस के यहाँ आपके ज्ञान और प्रेम की कोई बिसात नहीं।  अव्वल तो आपके ज्ञान को वह सिरे से नकारता है, और यदि उसके तईं, उसे ज्ञान का पूरा एकाधिकार देने के पश्चात् भगवान ने गलती से आपको भी कुछ ज्ञान-व्यान दे दिया है, तो भी बॉस आपको कुछ खास तवज्जो नहीं देता। ऐसा बॉस ही क्या जो अपने अधीनस्थ को तनिक भी ज्ञानवान समझ ले! अधीनस्थ बोले तो जन्म-जन्मांतर का मूर्ख और बॉस बोले तो पैदाइशी पीर, ज्ञान का आगार। इसलिए ज्ञान की जोत जलाकर उसे रिझाने का तो विचार ही मन से निकाल दें। अब बचा प्रेम। आप चाहें तो उससे प्रेम करें,  जितना जी में आए उतना करें। लेकिन प्रेम के बदले में प्रेम या प्रेम से मिलता-जुलता कुछ और पाने की उम्मीद बिलकुल करें। बल्कि बेहतर तो ये होगा कि अपने प्रेम का बॉस से इजहार भी करें, नहीं तो लेने के देने पड़ सकते हैं। अब बची भक्ति- खालिस भक्ति, नवधा भक्ति। सच कहें तो इसमें बड़ा फायदा है। भक्त अपना सब कुछ अपने आराध्य को समर्पित कर देता है- तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा!! बस कुछ-कुछ इसी इश्टाइल में आप भी यदि अपना सब कुछ बॉस को अर्पित कर दें तो आपका आगा-पीछा सब सँवर जाए।

      सरकारी तंत्र में ही नहीं, प्राइवेट सेक्टर में भी ऐसे बहुत से लोग हैं जो बॉस की भक्ति कर-करके दुनिया की सारी नेमतें हासिल कर चुके हैं। ऐसे लोगों के लिए तो बॉस ही भगवान है। अपने संत कबीर इस मामले में बड़े चतुर थे। वे जानते थे कि उनके छह सौ साल बाद दुनिया में बॉस नाम की एक नई प्रजाति विकसित हो जाएगी और उस समय इंसान के सामने यह पशोपेश की स्थिति उत्पन्न होगी कि किसे बड़ा मानें- बॉस को या भगवान को? इसलिए उन्होंने अपने हिसाब से एक फ्यूजन किया और एक ऐसा शब्द सुझाया जो उनके तईं तो भगवान का द्योतक था, किन्तु आधुनिक युगीन दफ्तरी समाज के लिए बॉस का। ऐसे अनोखे प्राणी के लिए कबीर ने साहेब शब्द का इस्तेमाल किया। अपने देश में भगवान के लिए लंबे समय तक इस्तेमाल होने के बाद उन्नीसवीं सदी में साहेब या साहब शब्द का इस्तेमाल अंग्रेजों के लिए होने लगा। सारे अंग्रेज हमारे तईं साहब थे और उनमें सबसे बड़ा था- लाट साहब। अंग्रेज चले गए। उनका उत्तराधिकार हिन्दुस्तानी साहबों को मिल गया। मजे की बात यह है कि स्वतंत्र भारत में हर साहब लाट साहब है और वह खुद को भगवान से भी बड़ा मानता-मनवाता है। कबीर साहब अगमजानी थे। उन्होंने इस मर्ज़ का भी तोड़ बताया। बॉस जो स्वघोषित भगवान है, आप यानी मातहत भी उसे भगवान मान लें और कबीर साहब की तर्ज़ पर उसकी बहुरिया और छुटक लहुरिया बनकर कार्यालयीन जीवन के मजे लूटें। दुलहिन गाहु मंगलचार, हम घर आए बॉस भरतार।
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2 comments:

  1. Waah waah, kya suvichaar hain ... bhai sahab yeh vyang hi nahin, aaj ke zamane ki sachchaai lagti hai.

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  2. साहित्य समाज का दर्पण होता है। ऐसा तो हमने बचपन से सुना है। लेकिन साथ ही, यह भी सुना है कि साहित्य समाज का दीपक भी होता है। लिहाजा, अपनी कोशिश तो यही रहती है कि समाज के बुरे लोगों को दर्पण दिखाते रहें और यदि कहीं अच्छाई अंधेरे में छिपी रह गई हो तो उसे दीपक की रोशनी में लाते रहें। इसी प्रकार यदि कोई सन्मार्ग पर उन्मुख न हो पा रहा हो तो उसे सन्मार्ग दिखाएँ।
    यही तो सत्साहित्य का उद्देश्य है। बहरहाल, आपकी उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रिया के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। सादर.

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