लेख
चौरपंचाशिकाः प्रणय-प्रेम की निर्भीक अभिव्यक्ति
की अमर कृति
डॉ. रामवृक्ष सिंह
अभिव्यक्ति के खतरे तो हमेशा से ही रहे हैं। गंग
कवि ने जब तक सम्राट की चापलूसी की, सम्राट खुश रहा। एक बार कुछ ऐसा कह दिया जो
बादशाह को नागवार गुजरा और गंग कवि को हाथी के पाँवों तले कुचलवा दिया गया। इसीलिए
नीतिकारों ने कहा- सच कहो, पर कड़वा सच न कहो। लेकिन वह व्यक्ति क्या करे, जिसका
पेशा ही अभिव्यक्ति पर आधारित है? भाँति-भाँति
की कलाओं के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति करके भाविक, सामाजिक, दर्शक और श्रोता का
मन रिझाने और उससे प्राप्त पारिश्रमिक, धन, पुरस्कार आदि के ज़रिए अपना जीवन-यापन
करनेवाले कलाकार को तो यह जोखिम उठाना ही पड़ता है। इस दृष्टि से कला-कर्म सर्कस के
नट-कर्म जैसा ही है। जब तक नट विभिन्न प्रकार के करतब दिखा रहा है, तब तक सारे
दर्शक तालियाँ बजाकर मजे ले रहे हैं, लेकिन जिस क्षण वह गलती करता है, अपनी जान से
हाथ गँवा बैठता है।
हमारे एक स्कूली शिक्षक डॉ राजसिंह भारद्वाज
प्रायः एक अंग्रेजी जुमला बोलते थे, जिसका भावार्थ था- कोई मुझे गलत सिद्ध करके
दिखाए। आशय यह था कि मैं गलत नहीं हूँ और यदि हूँ तो कोई मेरी गलती बता दे, ताकि
मैं उसे दुरुस्त कर लूँ।
हिंदी प्रांतों में अकबर-बीरबल के किस्सों में
बार-बार यह बात देखने में आती है। कई प्रकरण तो ऐसे हैं जिनमें अकबर अपने बादशाह
को गधा तक कहते और सिद्ध करते हैं। दक्षिण में यही स्थिति तेनाली रामा की थी। पता
नहीं वास्तविक जीवन में अकबर कितना उदार था। हो सकता है कि रहा ही हो। आजकल के
छुटभइयों के रंग-ढंग देखकर तो लगता है कि इतने बड़े भू-भाग का बादशाह अपनी आलोचना करनेवाले
विधर्मी को मरवा ही डालता रहा होगा, अपने दरबार के नवरत्नों में शुमार करना तो
बहुत दूर की बात है। और यदि अकबर में इतनी आलोचना सहने की ताब थी तो उसे उसकी सहिष्णुता
के लिए प्रणाम किया जाना चाहिए।
अकबर के ही एक नवरत्न अब्दुर्रहीम खानखाना ने
अपने दोहों में निंदकों को अपने आस-पास ही रखने की बात कही है। उन्होंने
कहा- निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय। बिन पानी-साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
कितना प्यारी बात है! रहीम का एक परिचय यह भी है कि वे अकबर को पाल-पोसकर बड़ा करनेवाले, कदम-कदम पर उसकी रक्षा करनेवाले, मुगलिया
सल्तनत को बुलंदी पर पहुँचानेवाले सिपहसालार बैरम खाँ के बेटे थे। बैरम खाँ का
कितना बड़ा कर्ज़ था अकबर पर इसे कोई भी समझ सकता है। सिर्फ तेरह साल की उम्र में
बाप हुमायूँ का साया अकबर के सिर से उठ गया था। उसके बाद जो कुछ हासिल हुआ, बैरम
खाँ की सरपरस्ती में ही हासिल हुआ। ऐसे खैरख्वाह सेनापति के बेटे रहीम, नीतिकार,सुकवि और
गज़ब के योद्धा रहीम का अकबर ने क्या हश्र किया, याद है? अकबर को शंका हुई कि रहीम बग़ावत करने वाले हैं।
उसने रहीम के बेटे का सिर कटवाकर एक थाल पर रखवाया, ऊपर से कपड़े से ढकवा दिया और
भेजा रहीम के पास। थाल पर कपड़े से ढकी गोल वस्तु देखकर रहीम ने लानेवाले से पूछा-
क्या लाए हो? लानेवाले ने जवाब दिया- बादशाह
ने तरबूज भिजवाया है। अच्छा दिखाओ- रहीम ने कहा। लानेवाले ने कपड़ा उठाया- या
अल्ला, ये तो रहीम के बेटे का सिर निकला! माना कि बेहद ऐबी और शराबखोर था
बेटा, लेकिन था तो बेटा ही। कितना दुःख हुआ होगा रहीम को! ज़रा सोचिए। जिस बैरम खाँ ने इतनी बड़ी सल्तनत
खड़ी करने में अपनी जिन्दगी लगा दी, उसके पोते और जिस सेनापति रहीम ने पूरे दक्कन
में घोड़े की पीठ पर बैठे-बैठे यहाँ से वहाँ दौड़ने में ही सारी जवानी सर्फ कर दी,
उसके बेटे का इतनी निर्ममता से कत्ल! ये कैसी दयानतदारी
है! अकबर
ने बूढ़े, टूटे-दिल रहीम को जबरदस्ती हज के लिए रवाना किया और गुजरात पहुँचने पर उसकी भी हत्या करवा
दी।
इसी को सियासत कहते हैं। हम अपने चारों ओर आए दिन
इस तरह की दुर्नीतिपूर्ण बातें देख और सुन रहे हैं। संविधान हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता
है। लेकिन हम जानते हैं कि स्थितियों के अराजक हो जाने पर संविधान सिर्फ एक किताब
भर रह जाता है और सत्तासीन लोग उसे दरकिनार करके अपने हिसाब से काम करने लगते हैं।
मैं आपका मन खराब नहीं करना चाहता। एक किस्सा
सुनाता हूँ, जो बेहद रोचक और रोमानी है। एक राजकन्या को एक कवि से प्रेम हो गया। प्रेम
जब परवान चढ़ने लगा तो राजा को भी उसकी भनक लगी। राजा ने कवि को कैद करवा लिया और
राजकुमारी से प्रेम करने के एवज में उसे मृत्युदंड सुनाया। कवि को एक ऊँची जगह पर
ले जाकर मारने का आदेश हुआ। वहाँ पहुँचने के लिए पचास सीढ़ियाँ चढ़नी थीं। कवि ने अंतिम
इच्छा के तौर पर राजा से निवेदन किया कि मैं हर सीढ़ी पर चढ़ते समय एक-एक श्लोक पढ़ना
चाहता हूँ। राजा ने अनुमति दे दी। कवि चढ़ता गया और एक-एक श्लोक पढ़ता गया। राजा सुनता
रहा।
मित्रो, कवि के हर श्लोक में राजपुत्री के सौंदर्य
का बड़ा ही मार्मिक वर्णन है। साथ ही, कवि के उत्कट प्रेम की अभिव्यक्ति भी। दोनों ने संयोग के जो बेहद आनंददायक क्षण साथ गुजारे थे, उनकी मोहक स्मृतियों से लबरेज़ है इन श्लोकों का एक-एक शब्द। राजा
सुनता जाता था और मुग्ध होता जाता था। कवि के प्रेम-सिक्त श्लोकों का राजा पर
चमत्कारी प्रभाव पडा और उसने राज-कन्या से प्रेम का अपराध करनेवाले अकिंचन कवि को दोष-मुक्त
कर, रिहा कर दिया। आज उन पचास श्लोकों का संकलन- चौर-पंचाशिका नाम से उपलब्ध है, जो मैंने
नेट से डाउनलोड किया है और आप सबके पठन-सुख के लिए यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ।
चौरपंचाशिका
अद्यापि तां
कनकचम्पकदामगौरीं फुल्लारविन्दवदनां तनुरोमराजीम् ।
सुप्तोत्थितां मदनविह्वललालसाङ्गीं विद्यां प्रमादगुणिताम् इव चिन्तयामि ॥ चौप-१ ॥
अद्यापि तां शशिमुखीं नवयौवनाढ्यां पीनस्तनीं पुनर् अहं यदि गौरकान्तिम् ।
पश्यामि मन्मथशरानलपीडिताङ्गीं गात्राणि संप्रति करोमि सुशीतलानि ॥ चौप-२ ॥
अद्यापि तां यदि पुनः कमलायताक्षीं पश्यामि पीवरपयोधरभारखिन्नाम् ।
संपीड्य बाःुयुगलेन पिबामि वक्त्रम् उन्मत्तवन् मधुकरः कमलं यथेष्टम् ॥ चौप-३ ॥
अद्यापि तां निधुवनक्लमनिःसहाङ्गीम् आपाण्डुगण्डपतितालककुन्तलालिम् ।
प्रच्छन्नपापकृतमन्थरम् आवहन्तीं कण्ठावसक्तबाहुलतां स्मरामि ॥ चौप-४ ॥
अद्यापि तां सुरतजागरघूर्णमान तिर्यग्वलत्तरलतारकम् आयताक्षीम् ।
शृङ्गारसारकमलाकरराजहंसीं व्रीडाविनम्रवदनाम् उषसि स्मरामि ॥ चौप-५ ॥
अद्यापि तां यदि पुनः श्रवणायताक्षीं पश्यामि दीर्घविरहज्वरिताङ्गयष्टिम् ।
अङ्गैर् अहं समुपगुह्य ततो ऽतिगाढं नोन्मीलयामि नयने न च तां त्यजामि ॥ चौप-६ ॥
अद्यापि तां सुरतताण्डवसूत्रधारीं पूर्णेन्दुसुन्दरमुखीं मदविह्वलाङ्गीम् ।
तन्वीं विशालजघनस्तनभारनम्रां व्यालोलकुन्तलकलापवतीं स्मरामि ॥ चौप-७ ॥
अद्यापि तां मसृणचन्दनपङ्कमिश्र- कस्तूरिकापरिमलोत्थविसर्पिगन्धाम् ।
अन्योन्यचञ्चुपुटचुम्बनलग्नपक्ष्म युग्माभिरामनयनां शयने स्मरामि ॥ चौप-८ ॥
अद्यापि तां निधुवने मधुपानरक्ताम् लीलाधरां कृशतनुं चपलायताक्षीम् ।
काश्मीरपङ्कमृगनाभिकृताङ्गरागां कर्पूरपूगपरिपूर्णमुखीं स्मरामि ॥ चौप-९ ॥
अद्यापि तत् कनकगौरकृताङ्गरागं प्रस्वेदबिन्दुविततं वदनं प्रियायाः ।
अन्ते स्मरामि रतिखेदविलोलनेत्रं राहूपरागपरिमुक्तम् इवेन्दुबिम्बम् ॥ चौप-१० ॥
अद्यापि तन्मनसि संपरिवर्तते मे रात्रौ मयि क्षुतवति क्षितिपालपुत्र्या ।
जीवेति मङ्गलवचः परिहृत्य कोपात् कर्णे कृतं कनकपत्रम् अनालपन्त्या ॥ चौप-११ ॥
अद्यापि तत् कनककुण्डलघृष्टगण्डम् आस्यं स्मरामि विपरीतरताभियोगे ।
आन्दोलनश्रमजलस्फुटसान्द्रबिन्दु मुक्ताफलप्रकरविच्छुरितं प्रियायाः ॥ चौप-१२ ॥
अद्यापि तत्प्रणयभङ्गगुरुदृष्टिपातं तस्याः स्मरामि रतिविभ्रमगात्रभङ्गम् ।
वस्त्राञ्चलस्खलतचारुपयोधरान्तं दन्तच्छदं दशनखण्डनमण्डनं च ॥ चौप-१३ ॥
अद्याप्य् अशोकनवपल्लवरक्तहस्तां मुक्ताफलप्रचयचुम्बितचूचुकाग्राम् ।
अन्तः स्मितोच्छ्वसितपाण्डुरगण्डभित्तिं तां वल्लभामलसहंसगतिं स्मरामि ॥ चौप-१४ ॥
अद्यापि तत् कनकरेणुघनोरुदेशे न्यस्तं स्मरामि नखरक्षतलक्ष्म तस्याः ।
आकृष्टहेमरुचिराम्बरम् उत्थिताया लज्जावशात् करघृतं च ततो व्रजन्त्याः ॥ चौप-१५ ॥
अद्यापि तां विधृतकज्जललोलनेत्रां पृथ्वीं प्रभूतकुसुमाकुलकेशपाशाम् ।
सिन्दूरसंलुलितमौक्तिकदन्तकान्तिम् आबद्धहेमकटकां रहसि स्मरामि ॥ चौप-१६ ॥
अद्यापि तां गलितबन्धनकेशपाशां स्रस्तस्रजं स्मिरसुधामधुराधरौष्ठीम् ।
पीनोन्नतस्तनयुगोपरिचारुचुम्बन् मुक्तावलीं रहसि लोलदृशम् स्मरामि ॥ चौप-१७ ॥
अद्यापि तां धवलवेश्मनि रत्नदीप मालामयूखपटलैर् दलितान्धकारे ।
प्राप्तोद्यमे रहसि संमुखदर्शनार्थं लज्जाभयार्थनयनाम् अनुचिन्तयामि ॥ चौप-१८ ॥
अद्यापि तां विरहवह्निनिपीडिताङ्गीं तन्वीं कुरङ्गनयनां सुरतैकपात्रीम् ।
नानाविचित्रकृतमण्डनम् आवहन्तीं तां राजहंसगमनां सुदतीं स्मरामि ॥ चौप-१९ ॥
अद्यापि तां विहसितां कुचभारनम्रां मुक्ताकलापधवलीकृतकण्ठदेशाम् ।
तत् केलिमन्दरगिरौ कुसुमायुधस्य कान्तां स्मरामि रुचिरोज्ज्वलपुष्पकेतुम् ॥ चौप-२० ॥
अद्यापि तां चाटुशतदुर्ललितोचितार्थं तस्याः स्मरामि सुरतक्लमविह्वलायाः ।
अव्यक्तनिःस्वनितकातरकथ्यमान संकीर्णवर्णरुचिरं वचनं प्रियायाः ॥ चौप-२१ ॥
अद्यापि तां सुरतघूर्णनिमीलिताक्षीं स्रस्ताङ्गयष्टिगलितांशुककेशपाशाम् ।
शृङ्गारवारिरुहकाननराजहंसीं जन्मान्तरे ऽपि निधने ऽप्य् अनुचिन्तयामि ॥ चौप-२२ ॥
अद्यापि तां प्रणयिनीं मृगशावकाक्षीं पीयूषपुर्णकुचकुम्भयुगं वहन्तीम् ।
पश्याम्य् अहं यदि पुनर् दिवसावसाने स्वर्गापवर्गनरराजसुखं त्यजामि ॥ चौप-२३ ॥
अद्यापि तां क्षितितले वरकामिनीनां सर्वाङ्गसुन्दरतया प्रथमैकरेखाम् ।
शृङ्गारनाटकरसोत्तमपानपात्रीं कान्तां स्मरामि कुसुमायुधबाणखिन्नाम् ॥ चौप-२४ ॥
अद्यापि तां स्तिमितवस्त्रम् इवाङ्गलग्नां प्रौढप्रतापमदनानलतप्तदेहम् ।
बालाम् अनाथशरणाम् अनुकम्पनीयां प्राणाधिकां क्षणम् अहं न हि विस्मरामि ॥ चौप-२५ ॥
अद्यापि तां प्रथमतो वरसुन्दरीणां स्नेहैकपात्रघटिताम् अवनीशपुत्रीम् ।
हंहोजना मम वियोगहुताशनो ऽयं सोढुं न शक्यतेति प्रतिचिन्तयामि ॥ चौप-२६ ॥
अद्यापि विस्मयकरीं त्रिदशान् विहाय बुद्धिर् बलाच् चलति मे किम् अहं करोमि ।
जानन्न् अपि प्रतिमुहूर्तम् इहान्तकाले कान्तेति वल्लभतरेति ममेति धीरा ॥ चौप-२७ ॥
अद्यापि तां गमनम् इत्य् उदितं मदीयं श्रुत्वैव भीरुहरिणीम् इव चञ्चलाक्षीम् ।
वाचः स्खलद्विगलदाश्रुजलाकुलाक्षीं संचिन्तयामि गुरुशोकविनम्रवक्त्राम् ॥ चौप-२८ ॥
अद्यापि तां सुनिपुणं यतता मयापि दृष्टं न यत् सदृशतोवदनं कदाचित् ।
सौन्दर्यनिर्जितरति द्विजराजकान्ति कान्ताम् इहातिविमलत्वमहागुणेन ॥ चौप-२९ ॥
अद्यापि तां क्षणवियोगविषोपमेयां सङ्गे पुनर् बहुतराम् अमृताभिषेकाम् ।
तां जीवधारणकरीं मदनातपत्राम् उद्वत्तकेशनिवहां सुदतीं स्मरामि ॥ चौप-३० ॥
अद्यापि वासगृहतो मयि नीयमने दुर्वारभीषणकरैर् यमदूतकल्पैर् ।
किं किं तया बहुविधं न कृतं मदर्थे वक्तुं न पार्यतेति व्यथते मनो मे ॥ चौप-३१ ॥
अद्यापि मे निशि दिवाट् हृदयं दुनोति पूर्णेन्दुसुन्दरमुखं मम वल्लभायाः ।
लावण्यनिर्जितरतिक्षतिकामदर्पं भूयः पुरः प्रतिपदं न विलोक्यते यत् ॥ चौप-३२ ॥
अद्यापि ताम् अवहितां मनसाचलेन संचिन्तयामि युवतीं मम जीविताशाम् ।
नान्योपभुक्तनवयौवनभारसारां जन्मान्तरे ऽपि मम सैव गतिर् यथा स्यात् ॥ चौप-३३ ॥
अद्यापि तद्वदनपङ्कजगन्धलुब्ध भ्राम्यद्द्विरेफचयचुम्बितगण्डदेशाम् ।
लीलावधूतकरपल्लवकङ्कणानां क्वाणो विमूर्च्छति मनः सुतरां मदीयम् ॥ चौप-३४ ॥
अद्यापि तां नखपदं स्तनमण्डले यद् दत्तं मयास्यमधुपानविमोहितेन ।
उद्भिन्नरोमपुलकैर् बहुभिर् समन्ताज् जागर्ति रक्षति विलोकयति स्मरामि ॥ चौप-३५ ॥
अद्यापि कोपविमुखीकृतगन्तुकामा नोक्तं वचः प्रतिददाति यदैव वक्त्रम् ।
चुम्बामि रोदिति भृशं पतितो अस्मि पादे दासस् तव प्रियतमे भज मं स्मरामि ॥ चौप-३६ ॥
अद्यापि धवति मनः किम् अहं करोमि सार्धं सखीभिर् अपि वासगृहं सुकान्ते ।
कान्ताङ्गसंगपरिहासविचित्रनृत्ये क्रीडाभिरामेति यातु मदीयकालः ॥ चौप-३७ ॥
अद्यापि तां जगति वर्णयितुं न कश् चिच् शक्नोत्य् अदृष्टसदृशीं च परिग्रहं मे ।
दृष्टं तयोर् सदृशयोर् खलु येन रूपं शक्तो भवेद् यदि सैव नरो न चान्यः ॥ चौप-३८ ॥
अद्यापि तां न खलु वेद्मि किम् ईशपत्नी शापं गता सुरपतेर् अथ कृष्णलक्ष्मी ।
धात्रैव किं नु जगतः परिमोहनाय सा निर्मिता युवतिरत्नदिदृक्षयाट् वा ॥ चौप-३९ ॥
अद्यापि तन्नयनकज्जलम् उज्ज्वलास्यं विश्रान्तकर्णयुगलं परिहासहेतोर् ।
पश्ये तवात्मनि नवीनपयोधराभ्यां क्षीणां वपुर् यदि विनश्यति नो न दोषः ॥ चौप-४० ॥
अद्यापि निर्मलशरच्शशिगौरकान्ति चेतो मुनेर् अपि हरेत् किम् उतास्मदीयम् ।
वक्त्रं सुधामयम् अहं यदि तत् प्रपद्ये चुम्बन् पिबाम्य् अविरतं व्यधते मनो मे ॥ चौप-४१ ॥
अद्यापि तत् कमलरेणुसुगन्धगन्धि तत्प्रेमवारि मकरध्वजपातकारि ।
प्राप्नोम्य् अहं यदि पुनः सुरतैकतीर्थं प्राणांस् त्यजामी नियतं तदवाप्तिहेतोर् ॥ चौप-४२ ॥
अद्याप्य् अहो जगति सुन्दरलक्षपूर्णे ऽन्यान्यम् उत्तमगुणाधिकसंप्रपन्ने ।
अन्याभिर् अप्य् उपमितुं न मया च शक्यं रूपं तदीयम् इति मे हृदये वितर्कः ॥ चौप-४३ ॥
अद्यापि सा मम मनस्तटिनी सदास्ते रोमाञ्चवीचिविलसद्विपुलस्वभावा ।
कादम्बकेशररुचिः क्षतवीक्षणं मां गात्रक्लमं कथयती प्रियराजहंसी ॥ चौप-४४ ॥
अद्यापि सा हि नवयौवनसुन्दराङ्गी रोमाञ्चवीचिविलसच्चपलाङ्गयष्टिः ।
मत्स्वान्तसारसचलद्विरहोच्चपंकात् किंचिद्गमं प्रथयति प्रियराजहंसी ॥ चौप-४४* ॥
अद्यापि तां नृपती शेखरराजपुत्रीं संपूर्णयौवनमदालसघूर्णनेत्रीम् ।
गन्धर्वयक्षसुरकिंनरनागकन्यां स्वर्गाद् अहो निपतिताम् इव चिन्तयामि ॥ चौप-४५ ॥
अद्यापि तां निजवपुः कृशवेदिमध्याम् उत्तुंगसंभृतसुधास्तनकुम्भयुग्माम् ।
नानाविचित्रकृतमण्डमण्डिताङ्गी सुप्तोत्थितां निशि दिवा न हि विस्मरामि ॥ चौप-४६ ॥
अद्यापि तां कनककान्तिमदालसाङ्गीं व्रीडोत्सुकां निपतिताम् इव चेष्टमानाम् ।
अगांगसंगपरिचुम्बनजातमोहां तां जीवनौषधिम् इव प्रमदां स्मरामि ॥ चौप-४७ ॥
अद्यापि तत्सुरतकेलिनिरस्त्रयुद्धं बन्धोपबन्धपतनोत्थितशून्यहस्तम् ।
दन्तौष्ठपीडननखक्षतरक्तसिक्तं तस्या स्मरामि रतिबन्धुरनिष्ठुरत्वम् ॥ चौप-४८ ॥
अद्यापि अहं वरवधूसुरतोपभोगं जीवामि नान्यविधिनाट् क्षणम् अन्तरेण ।
तद् भ्रातरो मरणम् एव हि दुःख शान्त्यै विज्ञापयामि भवतस् त्वरितं लुनीध्वम् ॥ चौप-४९ ॥
अद्यापि नोज्झति हरः किल कालकूटं कूर्मो बिभर्ति धरणीं खलु पृष्टभागे ।
अम्भोनिधिर् वहति दुःसहवडवाग्निम् अङ्गीकृतं सुकृतिनः परिपालयन्ति ॥ चौप-५० ॥
सुप्तोत्थितां मदनविह्वललालसाङ्गीं विद्यां प्रमादगुणिताम् इव चिन्तयामि ॥ चौप-१ ॥
अद्यापि तां शशिमुखीं नवयौवनाढ्यां पीनस्तनीं पुनर् अहं यदि गौरकान्तिम् ।
पश्यामि मन्मथशरानलपीडिताङ्गीं गात्राणि संप्रति करोमि सुशीतलानि ॥ चौप-२ ॥
अद्यापि तां यदि पुनः कमलायताक्षीं पश्यामि पीवरपयोधरभारखिन्नाम् ।
संपीड्य बाःुयुगलेन पिबामि वक्त्रम् उन्मत्तवन् मधुकरः कमलं यथेष्टम् ॥ चौप-३ ॥
अद्यापि तां निधुवनक्लमनिःसहाङ्गीम् आपाण्डुगण्डपतितालककुन्तलालिम् ।
प्रच्छन्नपापकृतमन्थरम् आवहन्तीं कण्ठावसक्तबाहुलतां स्मरामि ॥ चौप-४ ॥
अद्यापि तां सुरतजागरघूर्णमान तिर्यग्वलत्तरलतारकम् आयताक्षीम् ।
शृङ्गारसारकमलाकरराजहंसीं व्रीडाविनम्रवदनाम् उषसि स्मरामि ॥ चौप-५ ॥
अद्यापि तां यदि पुनः श्रवणायताक्षीं पश्यामि दीर्घविरहज्वरिताङ्गयष्टिम् ।
अङ्गैर् अहं समुपगुह्य ततो ऽतिगाढं नोन्मीलयामि नयने न च तां त्यजामि ॥ चौप-६ ॥
अद्यापि तां सुरतताण्डवसूत्रधारीं पूर्णेन्दुसुन्दरमुखीं मदविह्वलाङ्गीम् ।
तन्वीं विशालजघनस्तनभारनम्रां व्यालोलकुन्तलकलापवतीं स्मरामि ॥ चौप-७ ॥
अद्यापि तां मसृणचन्दनपङ्कमिश्र- कस्तूरिकापरिमलोत्थविसर्पिगन्धाम् ।
अन्योन्यचञ्चुपुटचुम्बनलग्नपक्ष्म युग्माभिरामनयनां शयने स्मरामि ॥ चौप-८ ॥
अद्यापि तां निधुवने मधुपानरक्ताम् लीलाधरां कृशतनुं चपलायताक्षीम् ।
काश्मीरपङ्कमृगनाभिकृताङ्गरागां कर्पूरपूगपरिपूर्णमुखीं स्मरामि ॥ चौप-९ ॥
अद्यापि तत् कनकगौरकृताङ्गरागं प्रस्वेदबिन्दुविततं वदनं प्रियायाः ।
अन्ते स्मरामि रतिखेदविलोलनेत्रं राहूपरागपरिमुक्तम् इवेन्दुबिम्बम् ॥ चौप-१० ॥
अद्यापि तन्मनसि संपरिवर्तते मे रात्रौ मयि क्षुतवति क्षितिपालपुत्र्या ।
जीवेति मङ्गलवचः परिहृत्य कोपात् कर्णे कृतं कनकपत्रम् अनालपन्त्या ॥ चौप-११ ॥
अद्यापि तत् कनककुण्डलघृष्टगण्डम् आस्यं स्मरामि विपरीतरताभियोगे ।
आन्दोलनश्रमजलस्फुटसान्द्रबिन्दु मुक्ताफलप्रकरविच्छुरितं प्रियायाः ॥ चौप-१२ ॥
अद्यापि तत्प्रणयभङ्गगुरुदृष्टिपातं तस्याः स्मरामि रतिविभ्रमगात्रभङ्गम् ।
वस्त्राञ्चलस्खलतचारुपयोधरान्तं दन्तच्छदं दशनखण्डनमण्डनं च ॥ चौप-१३ ॥
अद्याप्य् अशोकनवपल्लवरक्तहस्तां मुक्ताफलप्रचयचुम्बितचूचुकाग्राम् ।
अन्तः स्मितोच्छ्वसितपाण्डुरगण्डभित्तिं तां वल्लभामलसहंसगतिं स्मरामि ॥ चौप-१४ ॥
अद्यापि तत् कनकरेणुघनोरुदेशे न्यस्तं स्मरामि नखरक्षतलक्ष्म तस्याः ।
आकृष्टहेमरुचिराम्बरम् उत्थिताया लज्जावशात् करघृतं च ततो व्रजन्त्याः ॥ चौप-१५ ॥
अद्यापि तां विधृतकज्जललोलनेत्रां पृथ्वीं प्रभूतकुसुमाकुलकेशपाशाम् ।
सिन्दूरसंलुलितमौक्तिकदन्तकान्तिम् आबद्धहेमकटकां रहसि स्मरामि ॥ चौप-१६ ॥
अद्यापि तां गलितबन्धनकेशपाशां स्रस्तस्रजं स्मिरसुधामधुराधरौष्ठीम् ।
पीनोन्नतस्तनयुगोपरिचारुचुम्बन् मुक्तावलीं रहसि लोलदृशम् स्मरामि ॥ चौप-१७ ॥
अद्यापि तां धवलवेश्मनि रत्नदीप मालामयूखपटलैर् दलितान्धकारे ।
प्राप्तोद्यमे रहसि संमुखदर्शनार्थं लज्जाभयार्थनयनाम् अनुचिन्तयामि ॥ चौप-१८ ॥
अद्यापि तां विरहवह्निनिपीडिताङ्गीं तन्वीं कुरङ्गनयनां सुरतैकपात्रीम् ।
नानाविचित्रकृतमण्डनम् आवहन्तीं तां राजहंसगमनां सुदतीं स्मरामि ॥ चौप-१९ ॥
अद्यापि तां विहसितां कुचभारनम्रां मुक्ताकलापधवलीकृतकण्ठदेशाम् ।
तत् केलिमन्दरगिरौ कुसुमायुधस्य कान्तां स्मरामि रुचिरोज्ज्वलपुष्पकेतुम् ॥ चौप-२० ॥
अद्यापि तां चाटुशतदुर्ललितोचितार्थं तस्याः स्मरामि सुरतक्लमविह्वलायाः ।
अव्यक्तनिःस्वनितकातरकथ्यमान संकीर्णवर्णरुचिरं वचनं प्रियायाः ॥ चौप-२१ ॥
अद्यापि तां सुरतघूर्णनिमीलिताक्षीं स्रस्ताङ्गयष्टिगलितांशुककेशपाशाम् ।
शृङ्गारवारिरुहकाननराजहंसीं जन्मान्तरे ऽपि निधने ऽप्य् अनुचिन्तयामि ॥ चौप-२२ ॥
अद्यापि तां प्रणयिनीं मृगशावकाक्षीं पीयूषपुर्णकुचकुम्भयुगं वहन्तीम् ।
पश्याम्य् अहं यदि पुनर् दिवसावसाने स्वर्गापवर्गनरराजसुखं त्यजामि ॥ चौप-२३ ॥
अद्यापि तां क्षितितले वरकामिनीनां सर्वाङ्गसुन्दरतया प्रथमैकरेखाम् ।
शृङ्गारनाटकरसोत्तमपानपात्रीं कान्तां स्मरामि कुसुमायुधबाणखिन्नाम् ॥ चौप-२४ ॥
अद्यापि तां स्तिमितवस्त्रम् इवाङ्गलग्नां प्रौढप्रतापमदनानलतप्तदेहम् ।
बालाम् अनाथशरणाम् अनुकम्पनीयां प्राणाधिकां क्षणम् अहं न हि विस्मरामि ॥ चौप-२५ ॥
अद्यापि तां प्रथमतो वरसुन्दरीणां स्नेहैकपात्रघटिताम् अवनीशपुत्रीम् ।
हंहोजना मम वियोगहुताशनो ऽयं सोढुं न शक्यतेति प्रतिचिन्तयामि ॥ चौप-२६ ॥
अद्यापि विस्मयकरीं त्रिदशान् विहाय बुद्धिर् बलाच् चलति मे किम् अहं करोमि ।
जानन्न् अपि प्रतिमुहूर्तम् इहान्तकाले कान्तेति वल्लभतरेति ममेति धीरा ॥ चौप-२७ ॥
अद्यापि तां गमनम् इत्य् उदितं मदीयं श्रुत्वैव भीरुहरिणीम् इव चञ्चलाक्षीम् ।
वाचः स्खलद्विगलदाश्रुजलाकुलाक्षीं संचिन्तयामि गुरुशोकविनम्रवक्त्राम् ॥ चौप-२८ ॥
अद्यापि तां सुनिपुणं यतता मयापि दृष्टं न यत् सदृशतोवदनं कदाचित् ।
सौन्दर्यनिर्जितरति द्विजराजकान्ति कान्ताम् इहातिविमलत्वमहागुणेन ॥ चौप-२९ ॥
अद्यापि तां क्षणवियोगविषोपमेयां सङ्गे पुनर् बहुतराम् अमृताभिषेकाम् ।
तां जीवधारणकरीं मदनातपत्राम् उद्वत्तकेशनिवहां सुदतीं स्मरामि ॥ चौप-३० ॥
अद्यापि वासगृहतो मयि नीयमने दुर्वारभीषणकरैर् यमदूतकल्पैर् ।
किं किं तया बहुविधं न कृतं मदर्थे वक्तुं न पार्यतेति व्यथते मनो मे ॥ चौप-३१ ॥
अद्यापि मे निशि दिवाट् हृदयं दुनोति पूर्णेन्दुसुन्दरमुखं मम वल्लभायाः ।
लावण्यनिर्जितरतिक्षतिकामदर्पं भूयः पुरः प्रतिपदं न विलोक्यते यत् ॥ चौप-३२ ॥
अद्यापि ताम् अवहितां मनसाचलेन संचिन्तयामि युवतीं मम जीविताशाम् ।
नान्योपभुक्तनवयौवनभारसारां जन्मान्तरे ऽपि मम सैव गतिर् यथा स्यात् ॥ चौप-३३ ॥
अद्यापि तद्वदनपङ्कजगन्धलुब्ध भ्राम्यद्द्विरेफचयचुम्बितगण्डदेशाम् ।
लीलावधूतकरपल्लवकङ्कणानां क्वाणो विमूर्च्छति मनः सुतरां मदीयम् ॥ चौप-३४ ॥
अद्यापि तां नखपदं स्तनमण्डले यद् दत्तं मयास्यमधुपानविमोहितेन ।
उद्भिन्नरोमपुलकैर् बहुभिर् समन्ताज् जागर्ति रक्षति विलोकयति स्मरामि ॥ चौप-३५ ॥
अद्यापि कोपविमुखीकृतगन्तुकामा नोक्तं वचः प्रतिददाति यदैव वक्त्रम् ।
चुम्बामि रोदिति भृशं पतितो अस्मि पादे दासस् तव प्रियतमे भज मं स्मरामि ॥ चौप-३६ ॥
अद्यापि धवति मनः किम् अहं करोमि सार्धं सखीभिर् अपि वासगृहं सुकान्ते ।
कान्ताङ्गसंगपरिहासविचित्रनृत्ये क्रीडाभिरामेति यातु मदीयकालः ॥ चौप-३७ ॥
अद्यापि तां जगति वर्णयितुं न कश् चिच् शक्नोत्य् अदृष्टसदृशीं च परिग्रहं मे ।
दृष्टं तयोर् सदृशयोर् खलु येन रूपं शक्तो भवेद् यदि सैव नरो न चान्यः ॥ चौप-३८ ॥
अद्यापि तां न खलु वेद्मि किम् ईशपत्नी शापं गता सुरपतेर् अथ कृष्णलक्ष्मी ।
धात्रैव किं नु जगतः परिमोहनाय सा निर्मिता युवतिरत्नदिदृक्षयाट् वा ॥ चौप-३९ ॥
अद्यापि तन्नयनकज्जलम् उज्ज्वलास्यं विश्रान्तकर्णयुगलं परिहासहेतोर् ।
पश्ये तवात्मनि नवीनपयोधराभ्यां क्षीणां वपुर् यदि विनश्यति नो न दोषः ॥ चौप-४० ॥
अद्यापि निर्मलशरच्शशिगौरकान्ति चेतो मुनेर् अपि हरेत् किम् उतास्मदीयम् ।
वक्त्रं सुधामयम् अहं यदि तत् प्रपद्ये चुम्बन् पिबाम्य् अविरतं व्यधते मनो मे ॥ चौप-४१ ॥
अद्यापि तत् कमलरेणुसुगन्धगन्धि तत्प्रेमवारि मकरध्वजपातकारि ।
प्राप्नोम्य् अहं यदि पुनः सुरतैकतीर्थं प्राणांस् त्यजामी नियतं तदवाप्तिहेतोर् ॥ चौप-४२ ॥
अद्याप्य् अहो जगति सुन्दरलक्षपूर्णे ऽन्यान्यम् उत्तमगुणाधिकसंप्रपन्ने ।
अन्याभिर् अप्य् उपमितुं न मया च शक्यं रूपं तदीयम् इति मे हृदये वितर्कः ॥ चौप-४३ ॥
अद्यापि सा मम मनस्तटिनी सदास्ते रोमाञ्चवीचिविलसद्विपुलस्वभावा ।
कादम्बकेशररुचिः क्षतवीक्षणं मां गात्रक्लमं कथयती प्रियराजहंसी ॥ चौप-४४ ॥
अद्यापि सा हि नवयौवनसुन्दराङ्गी रोमाञ्चवीचिविलसच्चपलाङ्गयष्टिः ।
मत्स्वान्तसारसचलद्विरहोच्चपंकात् किंचिद्गमं प्रथयति प्रियराजहंसी ॥ चौप-४४* ॥
अद्यापि तां नृपती शेखरराजपुत्रीं संपूर्णयौवनमदालसघूर्णनेत्रीम् ।
गन्धर्वयक्षसुरकिंनरनागकन्यां स्वर्गाद् अहो निपतिताम् इव चिन्तयामि ॥ चौप-४५ ॥
अद्यापि तां निजवपुः कृशवेदिमध्याम् उत्तुंगसंभृतसुधास्तनकुम्भयुग्माम् ।
नानाविचित्रकृतमण्डमण्डिताङ्गी सुप्तोत्थितां निशि दिवा न हि विस्मरामि ॥ चौप-४६ ॥
अद्यापि तां कनककान्तिमदालसाङ्गीं व्रीडोत्सुकां निपतिताम् इव चेष्टमानाम् ।
अगांगसंगपरिचुम्बनजातमोहां तां जीवनौषधिम् इव प्रमदां स्मरामि ॥ चौप-४७ ॥
अद्यापि तत्सुरतकेलिनिरस्त्रयुद्धं बन्धोपबन्धपतनोत्थितशून्यहस्तम् ।
दन्तौष्ठपीडननखक्षतरक्तसिक्तं तस्या स्मरामि रतिबन्धुरनिष्ठुरत्वम् ॥ चौप-४८ ॥
अद्यापि अहं वरवधूसुरतोपभोगं जीवामि नान्यविधिनाट् क्षणम् अन्तरेण ।
तद् भ्रातरो मरणम् एव हि दुःख शान्त्यै विज्ञापयामि भवतस् त्वरितं लुनीध्वम् ॥ चौप-४९ ॥
अद्यापि नोज्झति हरः किल कालकूटं कूर्मो बिभर्ति धरणीं खलु पृष्टभागे ।
अम्भोनिधिर् वहति दुःसहवडवाग्निम् अङ्गीकृतं सुकृतिनः परिपालयन्ति ॥ चौप-५० ॥
(श्लोकों में कहीं-कहीं वर्तनी संबंधी विसंगतियाँ हो सकती हैं, किंतु उनका मूल माधुर्य अक्षुण्ण है।)
दोस्तो, आपमें से जो लोग परिश्रम-पूर्वक उक्त
श्लोकों में से कुछ को भी पढ़ेंगे, वे संस्कृत काव्य की रस-माधुरी पर रीझे बिना नहीं
रह पाएँगे। मेरा ऐसा दावा है। कवि ने स्वयं राजा के समक्ष उसकी युवा पुत्री के
सुविकसित अंग-प्रत्यंग का बड़ा ही माँसल बिंब प्रस्तुत किया है, साथ ही, उसके साथ रमण
और अपने रति-संबंधों का भी जी खोलकर, काव्यात्मक वर्णन करने की हिम्मत दिखाई है। सामने
मौत खड़ी है और कवि उसी की याद में खोया है जो मौत का सबब है। मरने जा रहे हैं और
प्रेमिका के रमण-स्मरण में डूबे हैं। इसे ही कविता का सुख कहते हैं।कविता हमें आनंद के उस लोक में ले जाती है, जहाँ मृत्यु का भय भी नहीं व्यापता।
इन श्लोकों में से प्रत्येक में शृंगार-रस का
अद्भुत परिपाक हुआ है। लेकिन कवि का श्रोता कौन है, जरा यह तो सोचिए। बाप के सामने
बेटी का प्रेम-सिक्त रूप-बखान! इस
पृष्ठभूमि में उस सक्षम पिता के उदार मन का भी विचार कीजिए, जिसने केवल कवित्व के
लालित्य के वशीभूत होकर अपनी ही पुत्री के चौर-प्रेमी किंतु सुकवि को जीवन-दान दे दिया।
थोड़ी-सी बात हास्य और व्यंग्य की। बहुत पहले कहीं
पढ़ा था कि दूसरों पर हँसने से पहले हमें खुद पर हँसना सीखना चाहिए। इसमें मुझे तो कोई परेशानी नहीं दिखती।
ये बिलकुल ऐसे ही है, जैसे होली वाले दिन खुद ही अपने चेहरे पर सिल्वर पेंट या
काला पेंट लगाकर मुहल्ले में निकल पड़ना। अब आओ और लगाओ, जितना रंग लगाना है! जिसका अहंकार बहुत बड़ा हो, उस इन्सान का ऐसा बन
पाना बड़ा कठिन है। कबीर बनना पड़ेगा ऐसा होने के लिए- कबिरा खड़ा बजार में, लिए
लकुटिया हाथ। जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हासिल
करने में अपना घर तो जल ही जाता है कभी-कभी। लेकिन यदि सामने पारखी समाज हो तो अच्छा
पुरस्कार भी मिल जाता है। खतरा है तो पुरस्कार की संभावना भी।
अभिव्यक्ति की ऐसी स्वतंत्रता और प्रेम की ऐसी
महान परंपरा वाले अपने इस देश के साहित्य-भंडार में कितने रत्न हैं, हमें इसका इल्म नहीं। अन्य बातों के साथ-साथ, इन अनूठी कृतियों के कारण भी भारत देश इतना महान है।
दोस्तो, हो सके तो इस पर अपनी
टिप्पणी दें।
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