व्यंग्य
आदमी की पहचान
डॉ. रामवृक्ष सिंह
हम इतने बड़े हो
गए (यानी वय के हिसाब से) और अब तक आदमी की पहचान करना हमें नहीं आया। जब-जब इस
बारे में सोचते हैं तब-तब हमें खुद पर शर्म आती है। लेकिन फिर सोचते हैं कि हमने
यदि वाकई इतना शर्मनाक काम किया है तो दुनिया के ज्यादातर लोगों को भी यही शर्मनाक
काम करने के कारण शर्मसार होना चाहिए, क्योंकि दुनिया के ज्यादातर लोग न केवल खुद
आदमी नहीं पहचान पाते हैं, बल्कि स्वयं बने भी ऐसे रहते हैं कि दुनिया के दीगर
आदमी भी उनको पहचान न पाएँ। सारे संसार का पूरा कारोबार बस इसी तरह चल रहा है। न
दूसरों को पहचानो न दूसरों की पहचान में आओ।
इधर कहीं पढ़ने
में आया कि प्रसिद्ध गायिका मैडोना की उम्र चौवन वर्ष है। साथ में उनकी दिलकश फोटो
छपी है। यदि उनकी उम्र न बताई गई होती तो हम मैडोना को चौंतीस-पैंतीस वर्ष की
महिला ही समझते- सावन के हरहाए जो ठहरे। इस नाते सच कहें तो हमें आदमी ही नहीं,
औरत की भी पहचान नहीं है। बल्कि औरत की पहचान तो हमें बिलकुल ही नहीं है। लेकिन
मैडोना के बारे में जो गजब की बात है वह उसके बाद लिखी है। मैडोना के एक बॉय
फ्रेंड हैं, जिनकी उम्र सिर्फ चौबीस वर्ष है। इन बॉय फ्रेंड की माताश्री की उम्र
छियालीस वर्ष है। और छियालीस वर्षीया माताश्री को यह अच्छा नहीं लग रहा कि उनका
चौबीस वर्षीय होनहार बेटा अपनी माँ से भी आठ वर्ष अधिक उम्र वाली मैडोना मैडम से
इश्क लड़ाए। गलती छैल-छबीले छोकरे की नहीं है। गलती है दुनिया के इस दस्तूर की, कि
हममें से अधिकतर लोगों को आदमी (और उससे भी बढ़कर औरत) की पहचान ही नहीं है।
दूसरे लोग हमें
पहचान न पाएं यह बहुत बड़ी नेमत है। किसी-किसी को प्रकृति ने अपनी ओर से ही यह
विशेषता बख्शी है। उदाहरण के लिए गिरगिट को ही लें, जो अपने वातावरण के हिसाब से
रंगत बदल लेता है। आजकल इसी को प्रैक्टिकल होना कहा जाता है। गिरगिट की तरह रंग
बदलना प्रैक्टिकैलिटी का सर्वोच्च मुकाम है। जिधर की हवा चले, उसी ओर चलना शुरू कर
दीजिए। जिनको यह नेमत कुदरत ने नहीं बख्शी, उन्होंने इसे खुद, अपने बूते हासिल
किया है। हम देखते हैं कि बड़े-बड़े हुक्मरान, अफसरान, व्यवसायी और उद्योगपति लोग
सूट-बूट चढ़ाए, टाई-वाई लगाए दुनिया के सामने नमूंदार होते हैं। यदि उनके नजदीक
जाने का मौका मिले तो पता चलता है कि उन्होंने बढ़िया इत्र-फुलेल भी छिड़का हुआ
है। यह सब ऊपरी ताम-झाम इसलिए कि लोग उनकी सही शख्सियत की पहचान न कर सकें, बल्कि
उनके सूट-टाई, इत्र-फुलेल से उन्हें जाना जाए। इधर कुछ लोग अपने मोबाइल फोन,
चश्मों और जूतों से भी अपनी पहचान बताने की कोशिश करते दिख जाते हैं। बहुत-से लोग
कारों से पहचान बताने की कोशिश करते हैं। जितनी बड़ी कार, उतनी बड़ी पहचान।
ऐसा नहीं कि यह
ताम-झाम केवल ऊपर-ऊपर का है। सच कहें तो पहचान के इस संकट की जड़ें बहुत गहरे पैठी
हुई हैं। आदमी अपने बोल-व्यवहार, शब्दाचार, उठने-बैठने के तौर-तरीके के पीछे भी
खुद को छिपा लेता है। इसी को दुनिया नफासत कहती है। सच तो यह है कि हम सब जानवर
हैं- दो पैरों पर चलनेवाले, कपड़े पहननेवाले, बोलने-बतियाने वाले, किताबें पढ़ने
वाले, मशीनें बनाने और चलानेवाले, अपनी कुछ थोड़ी-सी जैविक जरूरतों को पूरा कर
सकने तथा व्याधियों का इलाज करने में सक्षम-जानवर। कुछ खास क्षणों में हम बेहद वहशी हो जाते हैं,
किन्तु अक्सर अपने व्यवहार को एक खास दिखावटी तरीके से पेश करते हैं। इसी को समाजीकरण
कहा गया है। इसीलिए इन्सान को सामाजिक प्राणी कहा गया है। सामाजिकता के विविध
उपादानों के पीछे हमने अपने वहशीपन को छिपा लिया है। जिसने खुद को जितना छिपाया,
उसको पहचानना उतना ही कठिन हो गया। वह उतना ही परिष्कृत कहलाता है। बड़े-बड़े
शहरों में इस काम की कक्षाएँ चलती हैं। इन कक्षाओं में जानवरों की ग्रूमिंग करके
उनको परिष्कृत, संभ्रांत दिखनेवाले युवाओं की शक्ल दी जाती है। इसे पर्सनैलिटी
डेवलपमेंट भी कहते हैं। यह दूसरी बात है कि ऐसी डेवलप्ड पर्सनैलिटी वाले लोग
कभी-कभी जानवरों को भी लज्जित करनेवाले कारनामे कर जाते हैं।
मसलन, दिल्ली-नोएडा
के एक धनाढ्य सज्जन वासना और क्षुधा, दोनों मामलों में जानवरों से भी कई कदम आगे
हैं, किन्तु उन्होंने खुद को अपने मायाचार में लपेटकर दुनिया की निगाह में बड़ा
परिष्कृत आदमी बनाया हुआ है। युगांडा के ईदी अमीन कहने को तो राष्ट्राध्यक्ष थे,
किन्तु खाते थे सुन्दर महिलाओं का माँस। ऐसे बहुत-से लोग मिलेंगे, जिनके गंदे
चेहरों पर बड़े सुन्दर-सुन्दर नकाब पड़े हुए हैं।
यही हाल अपने
राजनेताओं, शासकों और जननायकों का है। डॉक्टर- जिनको लोग भगवान का दूसरा रूप कहते
नहीं अघाते, कब मरीज के धड़ में से किडनी चुरा लें, कोई कह नहीं सकता। सामान्य
प्रसव संभव हो, तब भी अपने नर्सिंग होम के खाली कमरे का किराया वसूलने और कुछ
अतिरिक्त पैसे बनाने के चक्कर में कितनी ही महिला डॉक्टर गर्भिणी महिलाओं के पेट
चीर डालती हैं। शहरी महिलाओं को सामान्य प्रसव होना तो अब जैसे बंद ही हो गया है। समाज
को धर्म, सदाचार और अध्यात्म के पथ पर ले जाने का बीड़ा उठाए फिरने वाले बाबा
लोगों का हाल भी कुछ अलग नहीं है। जिन्दगी भर अपरिग्रह और सादगी का पाठ पढ़ानेवाले
बाबा जब मरते हैं तो उनके निजी कक्ष से सैकड़ों किलो सोना निकलता है, और करोड़ों
रुपये की करेंसी। बाबा ने यह धन किसलिए जमा किया है, यह तो वही बता सकते थे। उनके
करोड़ों भक्त मानते हैं कि बाबा फिर धरती पर आएँगे। ऐसा मानने के पीछे उनकी यही
चाह होती है कि फिर से उनको बाबा की चरण-रज मिल जाए। हम भी चाहते हैं कि बाबा
दुबारा जन्म लें, ताकि जो संपत्ति और धन-संपदा उनके कक्ष में मिली है, उसका उपभोग
तो वे कर सकें। ऐसा नहीं कि बाबा ने जीवित रहते सांसारिक सुखों का उपभोग नहीं
किया। खूब किया। बस चूंकि हमें आदमी की पहचान नहीं थी, इसलिए उनको हम चीन्ह नहीं
सके।
आदमी को पहचानना
बहुत कठिन है। लेकिन सुना है कि इस काम में इन्सान से अधिक महारत कुत्तों को हासिल
है। इसीलिए जहाँ कहीं कोई संगीन अपराध होता है, वहाँ आदमी की पहचान करने में
विशेषज्ञता-प्राप्त कुत्ते लगाए जाते हैं, जो सूँघकर सही अपराधी को ढूंढ़ लाते
हैं। इस काम में कुत्तों की मदद करने के लिए कुछ सरकारी महकमे भी बनाए गए हैं, जो
इन्सानी चेहरे से नकाब हटाने का काम करते हैं। नियम और कानून की रक्षा करने के लिए
एक बहुत बड़ा तंत्र भी कायम किया गया है। लेकिन विडंबना यह है कि उस तंत्र में भी
आदमी ही काम करते हैं, और आदमी को आदमी की सही पहचान करने की पूरी तमीज अभी आई नहीं
है। इसीलिए प्रायः ऐसा कुछ गड़बड़ झाला हो जाता है, जिसे अच्छी, सुष्ठु शब्दावली
में हम बहुरूपिए इन्सान लोग मानवीय भूल कहते हैं।
और हमें तो
बार-बार न जाने क्यों यह लगता है कि खुद इन्सान ही भगवान की मानवीय (या भगवानीय)
भूल का नतीजा है। या यों कहें कि भगवान को भी अपनी ही बनाई इस शै यानी आदमी की सही
पहचान नहीं है। दैवो न जानाति कुतो मनुष्यः
!! अलबत्ता कुत्तों को अवश्य है!!!
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