A
word with Aamir
Aamir Khan comes out with novel ideas, many
of which appeal to the masses. I however, feel that Aamir offers aerial and
utopian solutions to some very complex problems, which you and I, the whole
Indian society is confronting now-a-days.
Take for
instance the issue of career choices. Aamir, through his Three Idiots, goes on
to profess that the children should be allowed the freedom to choose their own
career. Fine, we should allow our children an optimum space to choose their
career. Should we, however, not see to it, as to which career will ensure a
financial security to our kids and which one doesn’t just make a financially
viable option? Should we also not see if the child is endowed with the right
set of traits to take up the career? Take for instance the career choice of an
airline’s pilot or crew. If the child doesn’t possess a sound knowledge of
physics and maths and isn’t inclined to learn them either, and as a result isn’t
allosed these subjects in plus two, he/she will never be able to make it to a
commercial pilot. The job also requires perfect eye sight and other health
parameters. Likewise, if a child doesn’t have a pleasing personality with a
good looking unblemished face and a required height, he/she can never make it
to a cabin crew. Therefore, it would be advisable for the parents/ guardians of
such children to convince them give up the dream and think of something more
viable and practical. This is precisely what the career counselors do. Also
there are finances involved. For instance, to become an airline’s pilot one
needs to go in for certain hours of flying training, which is quite an
expensive affair, running into a couple of million of rupees. Whether the
guardians would be able to mobilize that much of finances needs to be seen
before cherishing the desire.
All said and
done, we are a society with dual standards. For instance, we look at martyrdom
with great awe, but shall never want our own kids and near and dear ones to
follow the path. We want to reap the benefits of revolution, but shall never
indulge into any such activity which is considered to be risky and against the
set norms of the system.
We shall watch
Aamir with great admiration, propagating the ideology of freedom to love and
marry one’s choicest of gal or guy. It sounds good when people from our family
(especially females) are not involved. Its like a film being shown or a drama
being staged. What Aamir presents is like a fantasy being aired. And we all
love to fantasize, isn’t it? But when we ourselves have to go through a real
life situation, similar to what he has depicted, we behave differently, and
most often in an opposite manner. This is because we know for sure that Aamir
is not always right. Good or bad, right
or wrong is a relative phenomenon, we must understand. Aamir is depicting
things in his own way, which at the face of it, might appeal us, but when go
into the nuances of the problems, we find that his reality and our reality are
poles apart and hence the solutions offered by him may not fit into our scheme
of things.
Coming back to
the love and marriage issue (aired on one of the recent Sundays), I wish to pose a
question to you all. Are we comfortable when our sister, daughter or a young female
from the undivided family elopes with some one? Truly speaking, the life becomes
a hell for the kins, especially the father, the mother and the siblings of such
girls. And, the million dollar question is, whether
the choices made out of love are really worth making it? Are the boys and the
girls, even in the legally marriageable age, matured enough to judge all
aspects of a viable matrimony? Whether or not the love-marriages are successful
can be debated and shall be debated till eternity, for both have been in vogue
since the times immemorial and both have their merits and demerits. Our
shastras have defined about ten types of marriages, but the most prevalent now
a days is Brahma vivah in which the father of the girl gives away well
decorated daughter to the groom, the process whereof is called Kanyaadaan.
Other types, though described in the books of Hindu laws, are not prescribed
and hence remain unpracticed, by and large.
To fall in love
is common (as the English proverb goes) but to rise in love in very rare. Long
back, I wrote a story on the issue, which is as true as you and I. You will get
to the narrator’s presence in the story. At times, the descriptions might
appear to be exaggerated, but in fact, the life itself is like that, of which
we have very little exposure. I co-post the story today for the benefit of my
readers. Hope it makes a good reading
for you all.
-Ramvriksh
Singh
कहानी
एक था गणपत
डॉ. रामवृक्ष सिंह
‘‘माफ कीजिए..लगता है हम दोनों पहले कहीं मिल चुके हैं।’’
गणपत ने सेंट्रल लाइब्रेरी के साथ लगे घास
के मैदान में बैठी उस युवती के पास बैठते हुए कहा। अचकचाकर उस युवती ने उसे गौर से
देखा और इस अचानक शुरू हुई बातचीत का अर्थ खोजने का प्रयास करने लगी। अचानक उसे भी
लगा कि बोलनेवाले की बातों में तथ्य है।
‘‘जी...लगता तो मुझको भी है, लेकिन याद नहीं आता कि कहाँ! ’’
गणपत ने अपने दुस्साहस पर किंचित शर्मिन्दगी जताते हुए कहा- ‘‘मैं आपके पास ऐसे आ बैठा। आपको कोई आपत्ति
तो नहीं? ’’
‘‘जब हम एक-दूसरे से पूर्व परिचित हैं, तो इस सवाल का कोई कारण ही नहीं है। किन्तु मैं तो यही सोच रही हूँ कि आपसे कब
मुलाकात हुई थी।...अच्छा आप क्या काम करते हैं। यानी...पढ़ाई ही या कोई ज़ॉब वगैरा... ’’
‘‘जी हाँ। मैं तीसहजारी टेलीफोन एक्स्चेंज में ऑपरेटर हूँ। साथ ही, यहाँ से इतिहास में एम.ए. कर रहा हूँ।’’
‘‘ओ...अब याद आया। पिछली बार जब किदवई भवन में कार्यक्रम हुआ था, तब ही तो आपसे बातचीत हुई थी। क्या नाम
बताया था आपने? ’’ युवती के चेहरे पर परिचय की स्मित खिंच गयी थी।
‘‘जी गणपत... और आपका नाम...? ’’
‘‘सुनीता...सुनीता शर्मा। मैं भी नौकरी के साथ-साथ एम.ए. कर रही हूँ राजनीति शास्त्र में।’’
बातों का सिलसिला चला तो चलता ही चला गया। राजस्थान के जयपुर शहर की एक पॉश कॉलोनी
में गणपत का परिवार रहता था। पिता का देहान्त हुए बहुत समय बीत चुका था-इतना कि उनकी याद भी धुंधला गयी थी। बड़े
भइया भारतीय प्रशासनिक सेवा में थे और राजस्थान सरकार में सचिव पद पर थे। उनके प्रभाव
का ही प्रसाद था कि ऑपरेटर होकर भी गणपत दिल्ली में अधिकारियों के क्वार्टर में रहता
था, जो किदवई भवन के बिल्कुल पास ही पड़ते थे। यदा-कदा माँ और भाई-भाभी से मिलने के लिए जयपुर जाना भी लगा
रहता था।
पहले एक-फिर दो- फिर तीन-फिर चार साल तक यही सिलसिला लगा रहा। अपने भइया की तरह गणपत ने भी भारतीय प्रशासनिक
सेवा में जाने की जी तोड़ कोशिश की, किन्तु मुख्य परीक्षा से आगे जाने का सुयोग न बना। हारकर उसने इंडियन एयर लाइन्स
और ऐसी ही अन्य संस्थाओं में भर्ती के प्रयास शुरू कर दिए। इसके साथ ही, कभी इस और कभी उस विषय में एम.ए. करने का उपक्रम भी जारी रहा। विश्वविद्यालय, सुनीता शर्मा और परिवार से जो समय बचता
उसमें वह नौकरी करता। नौकरी- जिसमें दिन के चौबीस घंटे में से कोई भी आठ घंटे काम के लिए चुनने का विकल्प
उपलब्ध था। और गणपत प्रायः नाइट ड्यूटी में आता।
* * *
रात की ड्यूटी के गुण और दोष दोनों ही हैं। जिसकी जैसी भावना हो, वह रात की ड्यूटी ही नहीं-रात को भी उसी रूप में व्यतीत कर सकता है।
साधक रात को साधना कर सकता है, विद्यार्थी अध्ययन और चोर-डकैत चोरी-डकैती। योगी योग तो भोगी भोग। तीस हजारी एक्स्चेंज में भी इसी प्रकार रात का
सम्यक उपयोग होता था। लगभग चार-पांच युवक रात की ड्यूटी पर होते। इनमें से एक-दो किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करते, तो एक-दो किदवई भवन के टेलीफोन एक्स्चेंज का कोई
नंबर मिलाकर ऑपरेटर लड़कियों से दोस्ती गाँठने का प्रयास करते। कुछ थे निरे भोंदू, भलेमानस। वे दिन भर अपने खेतों में या दुकान
पर काम करके थकान से चूर हुए रहते। उनको इन दोनों बातों से विराग होता और वे मेजें
आपस में भिड़ाकर, रजिस्टरों का सिरहाना बनाकर लेट रहते तथा दूसरों को हिदायत देते-‘‘यार के करण लाग रहा सै...बत्ती बन्द कर दे ना।’’ बत्तियाँ बन्द हो जातीं, फिर भी फोन पर बातें जारी रहतीं, तब तक जब तक उधर वाली अपनी ड्यूटी खत्म होने
पर टाटा-बाय-बाय करके विदा न ले लेती।
ऐसी ही एक रात रामकिशन की ड्यूटी गणपत के साथ लगी। दोनों की खूब घुटती भी थी।
‘‘भाई गणपत लालजी, आप इतनी पढ़ाई करते हो। क्या बात है? कहीं से कोई नतीजा-वतीजा निकला कि नहीं? ’’ रामकिशन ने संजीदगी से पूछा।
‘‘यार क्या बताऊँ! अपनी ओर से तो बहुत कोशिश करते हैं, किन्तु न हो तो क्या करें!’’ गणपत ने बडी सूफियाना शैली में कहा।
‘‘लेकिन फोन पर आपकी बातें सुनकर तो लगता है कि कहीं कुछ गड़बड़ है। कुछ प्रेम-व्रेम का चक्कर लगता है। हमें नहीं बताओगे
कि क्या बात है? ’’ रामकिशन ने रस लेते हुए पूछा।
‘‘ओ..अभी-अभी। यार अब तुमसे क्या छिपाना! मैं जहाँ पेइंग गेस्ट था न, कमलानगर में! वहाँ की मालकिन ने फोन किया था। ...उसकी वज़ह से ही तो मेरा पढ़ाई का कितना नुकसान हुआ यार...! ’’ गणपत ने गहरा निश्वास भरते हुए कहा।
‘‘क्यों क्या किया उसने? ’’ रामकिशन की आँखों में लाल डोरे उभर आये जो अंधेरा होने के कारण गणपत को दिखाई
नहीं दिए।
‘‘अब तू मानेगा नहीं।... ’’ गणपत ने बिलकुल अनौपचारिक होते हुए कहा। ‘‘चल ..तू भी क्या याद करेगा कि कभी गणपत से दोस्ती
की थी..तुझे भी अपनी कहानी सुना ही देते हैं।’’ गणपत ने कहना शुरू किया-
‘‘हुआ यों कि जब मैं नौकरी के लिए शुरू-शुरू में दिल्ली आया तो कुछ दिन तो रिश्तेदारी
में कट गए। फिर मैंने युनिवर्सिटी में एडमिशन ले लिया। वहाँ से नौकरी करना और क्लासें
अटेंड करना बहुत कठिन हो जाता था। इसलिए मैं कमलानगर में किसी के यहाँ पेइंग गेस्ट
बनकर रहने लगा। घर की मालकिन चौंतीस-पैंतीस साल की एक महिला थी। उसका आदमी रोज शराब पीकर देर रात को घर लौटता और
खाना खाकर एक ओर पड़ जाता था। मैं इस बात को जानता था, लेकिन मुझे उस सब से क्या मतलब था? मैं तो खाना खाता, ब्रश करता और अपने कमरे में जाकर पढ़ते-पढ़ते सो जाता। कई बार तो नाइट ड्यूटी ही
रहती। उनके दो बच्चे थे। बड़ी बेटी चौदह-पन्द्रह साल की थी और छोटा बेटा करीब नौ-दस साल का। एक बार क्या हुआ कि घर का मालिक
अपने बेटे को लेकर किसी शादी में दो-तीन दिन के लिए चला गया। उस रात मुझे खाना परोसकर वो नहाने चली गयी। मैं उसी
बाथरूम के बाहर लगे वाशबेसिन पर ब्रश करता था। जब मैं खाकर ब्रश करने पहुँचा तो बाथरूम
की अधखुली खिड़की से अन्दर का नज़ारा देखकर मैं सन्न रह गया। वह सारे कपड़े उतारकर, बत्ती जलाकर ऐसे नहा रही थी, जैसे खिड़की खुली होने का उसे अहसास ही
न हो। मैंने जल्दी-जल्दी ब्रश किया और अपने कमरे में घुस गया। दरवाज़े पर चिटकनी लगाने की मेरी
आदत नहीं है। नाइट लैंप जलाकर मैं रजाई में दुबक गया और अपनी धड़कनों को नियंत्रित
करने का प्रयास करने लगा। बहुत देर तक नींद नहीं आयी। लगभग आधे घंटे बाद दरवाज़े से
तेज़ खुशबू का झोंका भीतर आया तो मैंने कनखियों से दरवाज़े की ओर देखा। पारदर्शी गाउन
में वही खड़ी थी और पहले से भी अधिक सुन्दर लग रही थी। मैं चुपचाप पड़ा रहा।...अरे भाई..सुन रहा है कि सो गया..? ’’ गणपत ने रामकिशन को पुकारते हुए पूछा।
‘‘आप कहते जाओ..मैं सब सुन रहा हूँ.. ’’ रामकिशन ने खुमारी से जागते हुए कहा -‘‘ऐसी रोमांटिक कहानी सुनकर तो किसी की भी
नींद उड़ जाएगी।’’
‘‘हाँ, तो मैं चुपचाप सोने का नाटक किए पड़ा रहा। दो मिनट बाद वह मेरे सिरहाने के पास
आकर खड़ी हो गयी और मेरे बालों को सहलाने लगी। अब तो मुझे जागने का अभिनय करना ही था।..कौन है? क्या बात है? कहते हुए मैंने अपनी गरदन घुमायी और आँखें
खोल दीं।
‘‘मैं हूँ। मुझे डर के मारे नींद नहीं आ रही थी, इसलिए....- कहते हुए वह बिस्तर पर बैठ गयी।’’
‘‘फिर क्या हुआ?’’ रामकिशन की उत्सुकता चरम पर थी।
‘‘फिर क्या होना था! मैंने उसे रजाई में खींच लिया। एक बार के क्लाइमेक्स के बाद भी मैंने अपना कार्यक्रम
जारी रखा। वह थक कर ना..ना...और नहीं..करती रही, लेकिन मैंने एक ना मानी। और फिर उसके बाद तो यह रोज का ही किस्सा हो गया। मेरी
ड्यूटी अक्सर नाइट में रहती। दिन में मैं यूनिवर्सिटी से क्लासें करके कमरे पर लौट
आता तो वह अकेली मिलती। बच्चे स्कूल में और उसका आदमी काम पर होता। ऐसे ही कई महीने
बीत गये। यहाँ तक कि उसने अपनी तृप्ति के लिए अपनी बेटी को भी मेरे आगे डाल दिया। लेकिन
जब मेरी परीक्षाएं पास आ गयीं तो मुझे अपनी भूल का अहसास हुआ। तब तक भैया ने किदवई
भवन के पास मेरे रहने का भी इंतजाम कर दिया था और मैं वहाँ शिफ्ट कर गया।...अब वो मेरे पीछे पड़ी है और बार-बार मिन्नतें करती है कि मैं चाहे एक पैसा
न दूं, लेकिन उसका गेस्ट बनकर रहूँ।’’
‘‘अच्छा तो ये बात है...।’’ राम किशन ने गहरी साँस ली और करवट बदली।
‘‘अब तू ही बता। मैं एक बार वहाँ से निकल आया तो अब दुबारा कैसे जा सकता हूँ?’’ गणपत ने बड़ी मासूमियत से पूछा।
‘‘अच्छा एक बात और बताओ आप। ये जो आप बार-बार जयपुर जाते हो, इसका क्या कारण है। परिवार से मिलने या
फिर वहाँ भी.... ’’ रामकिशन आज सारे राज उगलवा लेने के स्वर्णिम अवसर को गंवाना नहीं चाहता था ।
गणपत भी मूड में था-‘‘भाई देख..अपन माँ-भाभी से मिलने तो जाते ही हैं, लेकिन एक बात और भी है। हमारे पड़ोस में एक बंगाली परिवार है, जिनकी छत हमारी छत से मिलती है। उनसे हमारी
बहुत घनिष्ठता है। एक बार उनके घर डकैती पड़ी। घबराकर वे लोग चिल्लाने लगे। जिसको जहाँ
जगह मिली वह वहीं छिप गया। उनकी जवान लड़की सुधा छत के रास्ते हमारे घर चली आयी। उनकी
चीख-पुकार सुनकर मैं छत पर जा रहा था। सीढ़ियों में सुधा मिल गयी। डर के मारे उसकी
घिग्घी बंधी हुई थी। वह मुझसे बेतहाशा चिपक गयी। हम दोनों ऊपर बनी बरसाती में घुस गये।
उस दिन हमारी बरसों की दोस्ती परवान चढ़ी। बस तभी से मैं चाहे कहीं रहूँ। हर हफ्ते
जयपुर जाना ही पड़ता है।’’
तभी दूसरी ओर टेलीफोन घनघनाने लगा। रामदेव ने रिसीवर उठाया-
‘‘नमस्कार, तीसहजारी..जी हाँ...हैं..प्लीज होल्ड ऑन।....गणपत जी आपका फोन है।’’ और उसने रिसीवर एक ओर रख दिया।
‘‘हड़बड़ाकर गणपत उठा और मद्धिम रोशनी में सुपरवाइजर टेबल पर रखा रिसीवर कान पर
लगा लिया- ‘‘हेलो’’ उसने चोगे पर ही अपनी सारी मुस्कान निछावर करते हुए कहना शुरू किया- ‘‘कौन..हाँ-हाँ, वर्षाजी। अच्छा आप अन्दर वाले नंबर पर मिलाओ।
मैं वहीं चलता हूँ..ठीक।’’ उसने अपना कम्बल उठाया और रिकार्ड रूम में चला गया।
‘‘तो भाई जी, कल अपनी बातचीत अधूरी रह गई थी। वर्षाजी का फोन आ गया था न!" रामकिशन ने अगली नाइट डय़ूटी पर गणपत को
घेर लिया था।
‘‘हाँ यार! वर्षा गुलाटी अपनी पुरानी फ्रेंड है। जब किदवई भवन के पास वाले क्वार्टर में
रहता था, तब अक्सर वो रात को ड्यूटी बदलने पर या दो शिफ्टों के बीच में तीन घंटे का गैप
होने पर डॉर्मिटरी में न जाकर, मेरे ही यहाँ आ जाती थी। अपने से थोड़ी बड़ी तो है उम्र में, लेकिन है बड़ी प्यारी लड़की। " गणपत एक साँस में ही वर्षा गुलाटी की सारी
खूबियाँ बयान कर गया।
‘‘अच्छा! आप वो ट्रेन वाला किस्सा सुना रहे थे। बात पूरी नहीं हो पाई थी..."
‘‘ट्रेन वाला किस्सा...? " गणपत ने लेटे-लेटे सिर खुजलाया। फिर जैसे उसे कोई पुरानी बात याद हो आई- ‘‘अरे हाँ! हाँ...! मैं उस रोज किसी काम से जयपुर से उदयपुर जा रहा था। छोटी लाइन की गाड़ी थी। जगह-जगह रुकती हुई चलती जाती थी।... मैं जिस बोगी में बैठा था, वो लगभग पूरी की पूरी ही खाली थी। बस मैं
था और सामने की बर्थ पर एक अधेड़ किसान बैठा था। साथ में शायद उसकी बेटी थी, जो बाईस-तेईस साल की रही होगी।"
‘‘बेटी..?" रामकिशन ने चौंककर पूछा। अब कहानी में रोचक मोड़ आया।
‘‘चौंका तो मैं भी था।..थी तो गाँव की, लेकिन खूब सुन्दर।.. उधर किसान ने दिन-दहाड़े चढ़ा रक्खी थी। नशे में कुछ देर तो ऊँघता रहा, फिर बर्थ पर ही लुढ़क गया। ... लड़की उसके पैताने बैठी थी, खिड़की से सटकर। मैं लड़की के ठीक सामने
दूसरी खिड़की पर था।..काफी देर तक मैं और लड़की एक-दूसरे को देखते रहे। उसका अंग-प्रत्यंग जैसे मुझे न्यौता दे रहा था। फिर न जाने उसे क्या सूझा कि उठकर टॉयलेट
चली गई।"
‘‘अच्छा!" रामकिशन की जिज्ञासा चरम पर थी।
‘‘पता नहीं, मेरे मन में क्या आया कि मैं भी उसके पीछे-पीछे टॉयलेट पहुँच गया। उसने दरवाज़ा भीतर
से बंद नहीं किया था। अंदर पहुँचक मैंने कुंडी चढ़ा ली.... तू विश्वास नहीं करेगा.... वो गाँव की लगती थी जरूर, लेकिन थी बड़ी चतुर।.. एक शब्द भी नहीं बोले और हमने वह सब किया
जो एक औरत आदमी एकान्त में करते हैं...। फिर हम अपनी जगह आकर बैठ गए।.. दो स्टेशन बाद वो दोनों उतर गए।."
रामकिशन ने लंबी साँस भरी और करवट बदलकर सो गया। गणपत लाल के लिए सब कुछ संभव
है।
* * *
‘‘अरे भाई, किसी ने सुना कुछ? ’’ त्यागी ने लगभग चिल्लाते हुए दोष निवारण सेवा के उस हाल में प्रवेश किया। लगभग
तीस ऑपरेटरों से भरे उस हॉल में चुप्पी छा गयी। एनईसी के बोर्डों पर लाल-पीली बत्तियाँ अलबत्ता जलती-बुझती रहीं और सर्किट्स के जुड़ने-टूटने की पिच-पिच ध्वनि वातावरण में गूँजती रही। सभी
प्रश्नाकुल नेत्रों से आगंतुक की ओर देख रहे थे।
‘‘अरे भाई, कल हमारे गणपत लाल मीणा की शादी होने वाली है। बाहर अभी कार्ड लगाकर गया है नोटिस
बोर्ड पर। बेचारा शर्म के मारे भीतर भी नहीं आया।’’ गणपत के एयर इंडिया में जाने के बाद वहाँ उसका नाम पहली बार सुनाई पड़ा था। सब लोग उत्सुकता से नोटिस बोर्ड की ओर लपके।
सचमुच, नोटिस बोर्ड पर शादी का कार्ड लगा था। गणपत वेड्स सुनीता। सभी को आमंत्रित किया
था गणपत ने। यों भी गणपत जैसे प्यारे शख्स की शादी हो और उसके बरसों के साथी न जाएँ, ऐसा कैसे हो सकता था।
लड़की का घर नहीं मालूम था। वहीं तो फेरे पड़ने थे। तीन बजते-बजते यह मुश्किल भी दूर हो गयी। ईवनिंग
ड्यूटी में आहूजा आया तो पता चला कि लड़की तो उसी के मोहल्ले की है। सब चमक गये, विशेषकर आहूजा। कब यह खिचड़ी पकी उसे पता
ही नहीं चला। खैर, उसे संतोष था कि मोहल्ले की लड़की अपने यार के घर ही जा रही है।
शादी की धूमधाम से ऐसा
नहीं लगा कि शर्माजी ने अंतर्जातीय विवाह के लिए विवश होने के बावज़ूद किसी प्रकार
की अरुचि दिखाई हो। उनके परिवार में बेटे-बेटियों की यह अंतिम शादी थी, इसलिए जी खोलकर खर्च किया। बारातियों की
अच्छी आवभगत की। एक साधारण अध्यापक की हैसियत से कहीं अधिक ही खर्च किया उन्होंने।
बेटी की विदाई में पूरा दहेज भी दिया। लेकिन एक बात विवाह की बात शुरू होते ही तय हो
गयी थी। विदाई वेला आने तक भी शर्माजी अपनी बेटी को यही समझाते रहे-
‘‘देख बेटी, लगभग पाँच साल से तू सर्विस में है। पढ़ी-लिखी है। अपना भला-बुरा सोचकर ही तूने कुछ फैसला किया होगा।
इसलिए तुम्हारी शादी तो मैं पूरे मन से कर रहा हूँ। किन्तु एक बात मुझसे नहीं होगी।
यदि कभी तुम्हारी अनबन हो, तो उसका बीच-बचाव और फैसला मैं नहीं कर सकूँगा। इसलिए तुम लोग खुशी-खुशी मेरे पास आना, तुम्हारा स्वागत होगा। लेकिन कभी लड़-झगड़कर मत आना। उस मामले में तुम जानो और
तुम्हारा काम जाने।’’
पिता के इन्हीं शब्दों का श्रवण-स्मरण करती हुई सुनीता विदा हुई।
* * *
इस घटना को लगभग तीन महीने बीत गए। एक दिन आहूजा ने मुँह लटकाए, भारी कदमों से एक्स्चेंज में प्रवेश किया। उसके चेहरे पर बड़े पीड़ाजनक भाव थे।
मॉनीटर शर्माजी ने पूछा- ‘‘क्या बात है भाई, इतना उदास लग रहा है हमारा प्रिंस- क्या हो गया? ’’
‘‘ओ होणा की है पंडित जी! श्मशान से लौटा हुआ आदमी और कैसा होगा? ’’ आहूजा ने खीझे हुए स्वर में उत्तर दिया।
‘‘श्मशान से...क्या हुआ भाई? घर में सब ठीक तो है ना? ’’ शर्माजी ने चिंतित स्वर में कहा। श्मशान का नाम सुनते ही सबके कान इसी ओर लग
गये थे। सभी अपनी-अपनी जगह से उठ आए और प्रश्नाकुल निगाहों से देखते हुए आहूजा को घेरकर खड़े हो
गए।
‘‘अरे वो मीणा है न यार, गणपत लाल मीणा, जिसने मेरे मोहल्ले की लड़की से शादी की थी। अभी तीन महीने पहले की तो बात है।
कल उस लड़की ने तेल छिड़ककर आग लगा ली- आज उसी का क्रिया-कर्म करवा के आ रहा हूँ।’’
‘‘बात क्या थी? हुआ क्या था? ’’ अनेक सवाल गूँज उठे।
‘‘पता नहीं यार। शायद गणपत के हर हफ्ते जयपुर जाने पर झगड़ा हो गया था।’’ आहूजा ने हताश स्वर में कहा और एक कुर्सी पर निढाल होकर पड़ रहा।
‘‘यह तो एक न एक दिन होना ही था।’’ बुदबुदाते हुए रामकिशन अपनी सीट की ओर बढ़
चला।
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