व्यंग्य
अपना घर
डॉ. रामवृक्ष सिंह
अब हम अपने घर में आ गए हैं। झिलमिल सितारों
के आँगन और रिमझिम बरसते सावन वाले अपने घर में। कितना सुन्दर सपना-अपना घर। किसी ने कहीं कहा है- मूर्ख लोग मकान बनवाते
हैं, समझदार लोग उनमें रहते हैं। प्रायः हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति इस कहावत से वाकिफ
है। फिर भी प्रायः हर पढ़ा-लिखा और अक्सर अनपढ़ व्यक्ति भी, एक अदद
मकान बनवाने की ख्वाहिश अपने सीने में दबाए रहता है। मकान न सही, फ्लैट ही सही। चुनांचे ये गुनाहे बेलज्जत
करने की इच्छा हर किसी में होती है। इस गुनाहे बेलज्जत में लोगों की मदद करने के
लिए सरकार भी खूब नीतियाँ और प्राधिकरण व परिषदें बनाती है। बैंक योजनाएं बनाते
हैं। लाखों लोगों का सरकारी अमला इसके लिए तैनात है, जो अपने-अपने तरीके से आम
आदमी के इस सपने को पूरा करने की प्रक्रिया में ढेरों पैसे बनाता है। जैसे ऊपर
वाले यानी सबके एक-अकेले मालिक तक पहुँचने के मार्ग जुदा-जुदा हैं, उसी तरह दुनिया
के सभी संपत्ति-कामी इन्सानों को मूर्ख बनाने के रास्ते और कारक अलग-अलग हैं। पर
कुल मिलाकर सबका मकसद एक ही है- संपत्ति-कामी व्यक्ति को मूर्ख बनाना।
यूं तो मूर्खता की शुरुआत, बकौल कहावतकार
उसी क्षण हो जाती है, जिस क्षण व्यक्ति के मन में अपनी खुद की संपत्ति हस्तगत करने
की तमन्ना जन्म लेती है। आपने मकान की हसरत का बीजारोपण मन में होने दिया कि आपकी
मूर्खता का बीज-वपन हो गया। और जैसे ही आप इस विचार को किसी के सामने प्रकट करते
हैं आपकी मूर्खता में लमहा-लमहा कई-कई गुना इजाफा करने वाले आपके इर्द-गिर्द जमा
होने लगते हैं।
मसलन आपने मकान की हसरत किसी दलाल से शेयर
की तो दलाल को आप लाखों रुपये की चलती-फिरती तिजोरी नज़र आने लगेंगे। वह चाहेगा कि
किसी तरह आप उसके चंगुल में फँस जाएँ और वह आपके खीसे में से नोटों की गड्डियाँ
खींचता रहे। चाहे उसके पास किसी बिकाऊ प्लॉट, मकान या फ्लैट की जानकारी हो या न
हो, लेकिन क्योंकि आपके मन में अपनी खुद की संपत्ति बनाने की हसरत पैदा हो गई है,
इसलिए आप दलाल के बड़े काम की आसामी हैं। अपन कई प्रापर्टी डीलरों के पास गए हैं
और उन सभी को अपन ने बहुत बड़ा कर्मयोगी व प्रकांड विद्वान पाया है। लगभग हर डीलर
के दफ्तर में संपत्ति-कामी ग्राहक को एक पोस्टर चस्पा दिखेगा, जिसपर गीता का यह
दिव्य ज्ञान लिखा रहता है- क्यों व्यर्थ चिन्ता करते हो, क्या लाए थे जो खो दिया? सच्ची डीलरजी! आपने बिलकुल बजा फरमाया। हम तो बस ढाई-तीन किलो
के लोथड़े के रूप में पैदा हुए थे और एक दिन अस्थि-चर्ममय खंखड़ बनकर सारी दुनिया
को टाटा-बाय-बाय करके चले जाएँगे। न कुछ लाए, न ले जाएँगे। हम जानते हैं कि
कू-ए-यार में दो गज जमीन भी हमें मयस्सर न होगी। फिर भी एक हूक है जो कलेजे में
बार-बार उठती हैःहाय ! मेरा भी एक
ऐसा आशियाना हो। एक अदद मकान, एक अदद फ्लैट- जिसे मैं अपना कह सकूं। जहाँ पायल की रुनझुन
हो, चूडि़यों की मधुर खनखनाहट हो। पूजा का शंख बजे, घंटे-घडि़याल गूँजें। अल्पना
बने, रंगोली सजे। बिजली के बल्बों की लड़ झूले। दीपमाला सजे, फुलझडि़याँ चलें।
जिसके दरवाजों पर चाइनीज विंड चाइम चुनुन-मुनुन करे। छत से झूमर लटके। जिसके लक-दक
फर्श पर हमारी बेटियों-बहुओं के महावर लगे पाँवों की थाप पड़े। बच्चों की
किलकारियाँ गूँजें। जहाँ से बेटी की डोली उठे। जहाँ बहू का कोहबर सजे।.. और एक दिन
जहाँ से इस रंग-बिरंगी, राग-विराग से सजी खूबसूरत दुनिया, इस शाश्वत मृत्यु-लोक के
आशिक का जनाजा बड़ी धूम-धाम से निकले। हम कुछ नहीं लाए, न कुछ ले जाएंगे.. यहाँ तक
कि हमारी खुद का मकान होने की तमन्ना और उसकी तामीर, दोनों यहीं रह जाएँगे। फिर भी
दोस्त, हमें एक अदद प्लॉट, एक अदद मकान, एक अदद फ्लैट दिलवा दो। वीतरागी दलाल
हमारी इस दीवानगी की खूब मोटी कीमत वसूलता है। हम उसके बनाए खूब मूर्ख बनते हैं।
उसके हाथों ऐसे ही नाचते हैं जैसे मदारी के हाथों बंदर। माया के बस भयो गोसाईं।
बंध्यो कीर-मर्कट की नाईं।
यदि
प्राधिकरण या आवास परिषद् से संपत्ति खरीद रहे हों तो वहाँ के बाबू, सुपरवाइजर और
अन्य अधिकारी हमारी मूर्खता की मद को और संवारते-निखारते हैं। जहाँ एक लाख रुपये
का काम होता है, वहाँ दो लाख वसूल लेते हैं। दौड़ाते हैं सो अलग। ये शहर के नए
राजा लोग हैं, जो जागीरें बाँटने का काम करते हैं। जितनी बड़ी जागीर उतना बड़ा
इनका चढ़ावा। अंतर केवल इतना आया है कि पहले जागीरें कई-कई हजार एकड़ की होती थीं,
अब जागीरों का आकार सिकुड़कर फुट, गज और मीटर तक सीमित हो गया है। लेकिन इससे क्या
होता है! जागीर तो
जागीर है। पाँच सौ वर्ग फुट की हो या पाँच हजार कोस की। धरती पर न सही, उससे पचास
फुट ऊपर ही सही। इस ब्रह्मांड में इतनी जगह तो हमारे नाम है। मृत्यु लोक में अमरत्व
पाने के लिए इतना काफी है।
यदि संपत्ति
में ड्राफ्टमैन, इंजीनियर आदि की कोई भूमिका है, तो वे भी आपकी मूर्खता में कुछ न
कुछ इजाफा करके थोड़ा-सा पुण्य और ढेर सारा धन जरूर अर्जित करेंगे। इसके बाद वे
ढेरों सप्लायर हैं, जिनका कंधा पाए बिना आपकी इस हसरत भरी टिकठी का निस्तार नहीं।
फिर वे चाहे ईंट के दलाल हों, चाहे बालू-सीमेंट, चाहे बजरी-मौरंग के। लेबर
कॉण्ट्रैक्टर, मजदूर और मिस्त्री, बढ़ई और प्लंबर, बिजली वाला और टाइल-पत्थर लगाने
वाला। सब एक से एक पहुँचे हुए संत होते हैं। वे सब आपके ज्ञान-भंडार में वृद्धि
करेंगे और आपको मूर्ख से मूर्खतर, और मूर्खतर और अंततः मूर्खतम प्राणी सिद्ध करके
ही दम लेंगे।
मजे की बात
यह है कि इन सबकी निगाह में आप इस लोक के प्राणी ही नहीं हैं। ये सब आपको चन्द्र
लोक अथवा मंगल ग्रह से आया हुआ कोई एलीन मानते हैं। और इस नाते उन्हें पूरा
विश्वास रहता है कि आपको इस धरती तथा खासकर देश के इस भू-भाग में प्रचलित वस्तुओं
व सेवाओं के बाजार मूल्य का बिलकुल भी ज्ञान नहीं है। संपत्ति-कामी आसामी जितना
ज्यादा पढ़ा-लिखा और परिष्कृत अभिरुचि का हो, उनकी निगाह में वह उतना ही बड़ा
बेवकूफ, बुद्धू और मूर्ख होता है। इसलिए इस श्रेणी के पहुँचे हुए संतों से डील
करते समय संपत्ति-कामी के लिए सबसे प्रथम करणीय यही काम है कि अपना ज्ञान-व्यान एक
ओर रख दो, और जड़-बुद्धि, मजदूर की तरह बनकर रहो। जैसे विष ही विष की औषधि है,
वैसे ही जड़ता की काट जड़ता है। मजदूर-मिस्त्री से पार पाना है तो उन्हीं की शैली
अपना लो। उनके साथ पान-सुरती खाओ, जगह-जगह पिचिर-पिचिर थूको, उन्हें अपने सगे भाई
और परम हितू की तरह ट्रीट करो और उन्हीं की शैली में बात-बात पर कुकुर झौं-झौं
करो। कुछ लोगों को यह बहुत मूर्खता-पूर्ण सलाह लग सकती है। लेकिन सच मानिए, संपत्ति
बनाने की प्रक्रिया में यह सब करना ही पड़ता है। यही तो सापेक्षता का सिद्धान्त
है। इसी को बिहारी ने कहा- समै-समै सुन्दर सबै।
अपने
शास्त्रों और मिथकों में उल्लू को लक्ष्मी जी की सवारी कहा गया है। और उल्लू अपने
यहाँ मूर्खता की पराकाष्ठा है। यदि आप चाहते हैं कि अधिक से अधिक संपत्ति आपके पास
आ जाए, आपका मकान अच्छे से अच्छा हो, बढि़या से बढि़या फ्लैट आपका बन जाए तो धीरे
से उल्लू बन जाइए। जितने बड़े आकार के उल्लू आप बनेंगे, उतनी बड़ी मात्रा में
लक्ष्मी मैया आपकी सवारी करेंगी। सीधा-सा फंडा है। आप छोटे उल्लू हों, और बड़े
आकार वाली मइया आप पर बैठ जाएं तो आप चरमराकर मर ही न जाएँगे! जिन्हें
हमारी इस प्रपत्ति पर यकीन न हो वे लोग जरा अपनी समझदारी के अंधे कुएँ से बाहर
निकलें और दीदे फाड़कर देखें कि अपने देश में कैसे-कैसे बड़े-बड़े उल्लुओं पर
लक्ष्मी मइया मेहरबान हैं।
लिहाजा
संपत्ति पाने के लिए हम कदम दर कदम मूर्ख बने, और मूर्ख बने और निरंतर बनते रहे।
जिससे जितना बन सका, उसने हमें उतना मूर्ख बनाया। कभी जाने और कभी अनजाने हम मूर्ख
बनते रहे। हमारे पास कोई और विकल्प भी तो नहीं था। ज्यादा समझदार बनते तो संपत्ति
हाथ नहीं आती। अंततः जब हमारी मूर्खता की इन्तिहा हो गई तो संपत्ति हमारे हाथ लग
गई। इधर हम सरापा, पूरे के पूरे उल्लू बने, उधर लक्ष्मी मैया ने हमारी सवारी गाँठ
ली। और एक बार संपत्ति हमारी हो गई तो फिर किसकी मजाल जो हमें मूर्ख कहता।
संपत्तिवान और समृद्धिशाली व्यक्ति को मूर्ख कहने की किसकी मजाल! तिसपर अब हम
अपने घर में रह रहे हैं। यानी मूर्ख तो हम बने, किन्तु अब समझदार भी हमीं हैं। ये
पहुँचे हुए संतों की उलटबांसियाँ हैं, जिनको समझने के लिए पहुँचा हुआ संत होना
पड़ेगा।
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