Friday, 21 September 2012

रामवृक्ष सिंह की एक कविता..दो गज़लें


रामवृक्ष सिंह की तीन काव्य-रचनाएँ
(1)

ये है महानगर।
यहाँ...
हर किसी का पर्याय है पोस्टर।
जो जितना ऊपर
चस्पा है,
उतना ही उजला दीखता है।
और 
जिसकी नियति आदमक़द होना भी नहीं
उसका हर पल, हर क्षण,
किसी न किसी की
लघुशंका में बीतता है।


(2)
जननि जन्म भूमि नहीं अब गरीयसी
हो गयी है स्वर्णमय लंका वरीय सी

राम कोई भी अवध को लौटते नहीं
राह तक रही हैं माँएँ वंदनीय सी

धूम सी स्वयंवरों की मच गयी है पर
राम से पुरुष न नारियाँ हैं सीय सी

उर्मिला न मांडवी सी देवियाँ रहीं
मंथराएँ हैं परन्तु श्लाघनीय सी

रम गये सुरुपिणी में अब लखन स्वयं
नारियाँ हैं केंचुली या उत्तरीय सी

जानकी विदेह की विदेश क्या गयीं
रावणों में हैं रमाई वे स्वकीय सी


(3)

मेरे मकां के सामने तक आ गयी सड़क
माज़ी के मेरे नक्श सब मिटा गयी सड़क

पुरखों के मेरे खेत वो गलियाँ वो रहगुज़र
वो पोखरे वो पेड़ सभी खा गयी सड़क

सदियों से गाँव था मेरा अपनी ही मौज में
उसको शहर का रास्ता दिखा गयी सड़क

जिनको न अभावों का कोई इल्म था कभी
उनको ज़माने भर के ग़म लगा गयी सड़क

मैं सोचता हूँ शाम ढले नीम के तले
कहाँ से आयी थी औ फिर कहाँ गयी सड़क

मेरे वज़ूद पर औ मेरे सब वकार पर
मेरे ज़मीर पर तमाम छा गयी सड़क


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