Friday, 31 August 2012

चार ग़ज़लें


चार ग़ज़लें 
                                   डॉ. रामवृक्ष सिंह 

(1)
वो नहीं है, मगर होने का ग़ुमां-सा क्यों है।
मेरी ठंडी चिता में अब भी धुआँ-सा क्यों है।।

एक भी लफ़्ज़ न बोला, न लिखा हर्फ़ कोई।
राज़-ए-उल्फ़त ये ज़माने पे अयां-सा क्यों है।।

किसी वीरान बयाबां औ ख़लाओं-सा दिल।
इसमें सदियों से मोहब्बत का निशां-सा क्यों है।।

मैं तो काफिर न था, ऐ मेरे खुदा तू ही बता।
तेरे बंदे को भला इश्के-बुतां-सा क्यों है।।

सब तमन्नाओं की तसकीन हो गई है मगर।
ज़ज़्ब-ए-इश्क फ़िज़ाओं में जवां-सा क्यों है।।

(2)
आम इनसान के किरदार निभाकर देखो।
खुद का यह भार तो इक बार उठाकर देखो।

हमने जो महल बनाए हैं तुम्हारी खातिर।
उनमें एक ईंट तो सरकार लगाकर देखो।।

बंद कमरों की बहारों के शोख शहजादो।
तुम ज़रा जीस्त के सहराओं में आकर देखो।।

जिनके कन्धों पे रखा कौम का परचम तुमने।
उन ग़रीबों को भी सीने से लगाकर देखो।।

जिन चिरागों को मशालों में है तब्दील किया।
उन चिरागों को भी थोड़ा-सा उठाकर देखो।।

तुमने घर मेरा जलाया है कोई बात नहीं।
दोस्त तुम भी ज़रा घर अपना बसा कर देखो।।

फूल खिलते हैं कमल के जहाँ ऐ दोस्त मेरे।
उसकी सच्चाइयाँ पानी को हटाकर देखो।।

मेरी बस्ती में भी इन्सान बसा करते हैं।
दो घड़ी तुम भी मेरे साथ बिताकर देखो।।

चाँद-तारे भी इबादत के मुन्तज़िर होंगे।
चन्द लमहों के लिए हाथ हिलाकर देखो।।

तुमने नफ़रत तो निभाई बड़ी ही शिद्दत से।
प्यार के थोड़े से जज़्बात निभाकर देखो।।


(3)
भूख का अब भी कहर ज़ारी है।

लोभ ऐसी ही महामारी है।।

डाकुओं की अमीर बस्ती पर।

साधु संतों की पहरेदारी है।।

 

अपनी खुशियाँ मनाएं वो कैसे

मेरी खुशियों पे बेकरारी है।।

 

वो लिपटेंगे माँ के दामन से।

उनका किरदार माँ से भारी है।।

 

उसको तुमने चढ़ा दिया सिर पे।

दोस्त, सारी खता तुम्हारी है।।

 

सब तरफ छा गयीं अमर बेलें।

कल्पद्रुम, अब तुम्हारी बारी है।।

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(4)
लोग चेहरे पर लगाए घूमते हैं इश्तहार।
इस शहर में आदमी के हैं मुखौटे बेशुमार।।

बिक चुकी धरती, तो बोली पर लगा है आसमां।
आदमी ने आदमी का कर लिया है कारोबार।।

भूख थी ईमान जिनका औ हकीकत मौत थी।
वे बशर लहदों में करते ज़िन्दग़ी का इन्तज़ार।।

लोग आए ज़िन्दग़ी की आरजू मन में लिए।
इस शहर में मौत भी मिलती नहीं हमको उधार।।

या खुदा दे सब्र सबको अपनी रहमत से नियाज़।
अपनी सादिक आशिकी दे और दे दिल का करार।।

Thursday, 30 August 2012

स्वाइन फ्लू का डर (व्यंग्य)


                                व्यंग्य
स्वाइन फ्लू का डर
                                                        डॉ. रामवृक्ष सिंह

     जब से स्वाइन फ्लू नाम की नई बला ईजाद हुई है हमारे दांपत्य जीवन में प्रेम का पुनर्जागरण हो चला है। अब कदम कदम पत्नी को हमारी सलामती की चिन्ता सताने लगी है। आज घर से निकल रहे थे तो उन्होंने नाक-मुँह ढाँपने वाली एक नकाब हमें थमाई और बोलीं कि इसे पहन लीजिए तो आप सुरक्षित रहेंगे। हम उनकी बात पूरी तरह समझे नहीं और मासूमियत से बोल बैठे- "हम कोई ऐश्वर्या राय थोड़े ही हैं जो शहर के शोहदे हमारा चेहरा देखते ही पीछे-पीछे चल पड़ेंगे। ही ऐसे गोरे-चिट्टे हैं जो धूप से संवला जाएँगे।" पत्नी को हमारी ठिठोली अच्छी नहीं लगी। वे संजीदा हो आईं- "पूरी दुनिया में स्वाइन फ्लू फैला है। आपने देखा नहीं टीवी पर कैसे लोग नकाब लगाए फिर रहे हैं। कल दो घंटे लाइन में लगी रही, तब जाकर ये नकाब मिली है। अब आप अधिक बहस मत कीजिए और चुपचाप नकाब पहनकर ऑफिस जाइए।"

      हमने नकाब ट्राई की। उसे लगाने के बाद आईने में देखा तो हमें अपने गाँव में गेहूँ की गहाई की याद हो आई। जब छोटे थे तो बैलों से गहाई होती थी। गहाई में जुते बैल फसल के दाने खाएं, इसके लिए उनके मुँह पर नकाब कस दी जाती थी।  अपनी भी हालत कुछ-कुछ वैसी ही हो गई थी। हमारे मन में एक सद् विचार आया- दुनिया भर में जो लोग हर समय चरते रहने के कारण मोटापा बढ़ाए घूम रहे हैं और मोटापा-जनित रोगों के कारण मरने के कगार पर पहुँच चुके हैं, उनकी पत्नियाँ या पति यदि उनको ऐसे ही जबरदस्ती नकाब पहना दें तो कितनी जिन्दगियाँ बच जाएँ!

      खैर, शाम को जब लौटे तब तक हमारी नकाब बेकार हो चुकी थी। अब हमें एक और नयी नकाब की दरकार थी। ऐसा ही डॉक्टरों का मत था, टीवी पर भी यही बताया जा रहा था। जैसे कभी सावित्री ने सत्यवान को मौत के मुँह से वापस निकाला था, उसी तरह हमारी पत्नी भी हमें मौत के मुँह से निकालने पर आमादा थीं। वे हमारे लिए दूसरी नकाब लाने को बाहर निकलने ही वाली थीं कि हमने उन्हें रोक लिया- "घर के दीगर खर्चे काट कर तुम मेरे लिए नकाब दर नकाब खरीद रही हो, क्या यह उचित है? वैसे ही इतनी महँगाई है। अरहर की दाल देखो, चिकन से भी महँगी हो गई है और तुम हो कि नकाब के आगे कुछ सोच ही नहीं रहीं।.."

      महँगाई की बात का पत्नी पर कुछ असर हुआ। वे हमारे सामने बैठ गईं और हमारी ओर सवालिया मुद्रा में देखने लगीं। जैसे हमने महँगाई का मुद्दा उठाकर उनकी पति-निष्ठा पर ही सवाल दाग दिया हो।

      हमारे तरकश में अभी ढेरों तीर थे, जिन्हें हम एक-एक कर निकालने वाले थे- "अच्छा ये बताओ, स्वाइन फ्लू को अपने देश में आए कितने दिन हुए हैं?"

      "हुए होंगे एक-दो महीने।" पत्नी ने अनमना-सा उत्तर दिया।

      "एक-दो महीने भी नहीं हुए और हम उससे घबरा गए। क्या तुम जानती हो कि हम जिन बसों में आते-जाते हैं, उनमें सफर करने वाले ज्यादातर लोगों के मुँह से पायरिया की बास आती रहती है। पसीने से हमेशा तर तर रहने वाले उनके शरीर बदबू मारते रहते हैं।  कोई हर दम नाक खोदता रहता है तो कोई हर समय पान-गुटखा, तम्बाकू-खैनी चबा-चबाकर इधर-उधर थूकता रहता है। ये सब सहकर भी हम जैसे सुरुचि-संपन्न लोग अभी तक जिन्दा बचे हैं या नहीं?" हम कहे जा रहे थे और पत्नी हमारे एक-एक शब्द पर घृणा के गटर में डूबती जा रही थीं।

      "अब आप चुप भी करेंगे..?" पत्नी ने अरुचि से कहा।

      "नहीं आज हम अपनी बात पूरी करना चाहते हैं...जरा सुन लो। सरकार ने सार्वजनिक रूप से बीड़ी-सिगरेट पीने पर रोक लगाने वाला कानून बना दिया है, किन्तु उसका पालन कोई नहीं करता। जिसे देखो धकाधक जहरीला धुआँ उगले जा रहा है। .. हमारे-तुम्हारे जैसे मासूम लोग इसी गंदगी में जीने को विवश हैं।"

      "और सुनोगी? दगड़ू गोल-गप्पेवाले के आगे-पीछे भीड़ लगाए लोग कितने चाव से, चटकारे ले-लेकर, लार टपका-टपकाकर, गड़प-गड़प गोलगप्पे खाते हैं। कभी किसी ने जाकर देखा है कि ये गोलगप्पे पुराने शहर की किन गंदी गलियों में बनते हैं? वहीं नाली में मल-मूत्र बहता रहता है और बगल में गोलगप्पा निर्माण का काम होता रहता है। दगड़ू जिस हाथ से नाक साफ करता है, उसी को पानी में डुबाकर गोलगप्पा परोसता है। ...कोई मरा है आज तक दगड़ू  के गोलगप्पे खाकर?"

      पत्नी को लगा कि हम उनके गोलगप्पा-प्रेम पर कटाक्ष कर रहे हैं। वह कुछ बोलतीं इससे पहले ही हमने अगला गोला दाग दिया- "जिस लिफ्ट और सीढ़ी से हम चौथी मंजिल तक रोज आते-जाते हैं, कभी उस लिफ्ट या सीढ़ी की दीवारें देखीं हैं? दुनिया में उससे गंदी जगह की कल्पना करना भी कठिन है।"
      पत्नी हमारी बात से सहमत दिखीं तो हमारा उत्साह और भी बढ़ गया- "और बताएं? ..अभी कुछ दिन पहले अखबार में पढ़ा कि एक बड़ी सरकारी कॉलोनी में पानी की ऊँची टंकी की सफाई करते समय उसमें एक नर कंकाल मिला। उसका सारा माँस-मज्जा पानी में घुलकर कब का लोगों के पेट में पहुँच चुका था। ..कोई मरा ऐसा पानी पीकर?"

      पत्नी ने बड़ी मुश्किल से अपनी उबकाई रोकी। हमें लगा कि देश के आजकल के हालात पर हमने कुछ ज्यादा ही तप्सरा कर डाला। इसलिए हमने अपनी वार्ता की दिशा बदली- "अपने देश में जातिवाद, संप्रदायवाद, प्रांतवाद, भाषावाद.. यानी जो चीजें हम-तुम सोच भी नहीं सकते, उन सब को वाद-विवाद की जड़ बनाकर हर समय वितंडावाद मचा रहता है। लोग आपस में लड़ते-झगड़ते रहते हैं। पूरा समाज अपनी सारी ऊर्जा ऐसे ही बेसिर-पैर के कामों में नष्ट करता रहता है।.. इसके बावजूद हम अभी तक जिन्दा हैं कि नहीं?"

      पत्नी को बड़ा संतोष हुआ कि इतने विकट समाज में हम जैसे भले लोग, अपनी राह जानेवाले सीधे-सरल लोग अभी जिन्दा बचे हुए हैं। उन्होंने मन ही मन भगवान को धन्यवाद दिया और सामने लगी बजरंग बली की फोटो की ओर देखकर हाथ जोड़ लिए।

      अब हमें पूरा यकीन हो चला कि अब हम अपनी बात की क्रक्स तक पहुँच सकते हैं- "क्या तुम जानती हो कि अपने देश में सौ में से छब्बीस लोग ऐसे हैं जो गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करते हैं। उनको खाने के लिए दो जून की रोटी भी मयस्सर नहीं होती। स्वाइन फ्लू उनका क्या बिगाड़ लेगा? वे तो बेचारे खुद स्वाइन यानी सुअर की तरह जीते हैं। रहने को साफ-सुथरा घर, शौच जाने की समुचित व्यवस्था, खाने को भोजन पहनने को कपड़े। दुनिया की लगभग एक-तिहाई आबादी ऐसे ही जीती है।"

      पत्नी की आँखें नम हो आईं। हमें भूख से बिलबिलाते मियाँ चार्ली चैप्लिन याद गए, जो अपना चमड़े का जूता उबालकर खाने की तैयारी में हैं। अगले दिन पत्नी ने फिर एक नयी नकाब हमें थमा दी। लेकिन हम जानते हैं कि अबकी यह नकाब स्वाइन फ्लू से बचाव के लिए नहीं दी गई है। वे चाहती हैं कि हम अपना मुँह बंद रखें, क्योंकि सच बोलने के बजाय चुप रहना इस देश में सबसे निरापद है  और सत्य संभाषण करके जान गँवाने की संभावना स्वाइन फ्लू के संक्रमण से मरने की तुलना में लाखों गुना अधिक है।
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