अरे ज़रा टीवी से
बोलो, कुछ क्षण शान्ति बनी रहने दो।
अपने घर-परिवार की
बातें कुछ सबको सुनने-कहने दो।
रोज उसी धारावाहिक
की घिसी-पिटी वे ही सब बातें।
जिन्हें देखते कटतीं
सबकी शाम सुहानी, रंगीं रातें।
विज्ञापन बेचने की
खातिर बुना हुआ यह पिंजरा तोड़ो
जीवन की उद्दाम
तरंगों में सबको कुछ दिन बहने दो।।
अरे ज़रा टीवी से
बोलो, कुछ क्षण शान्ति बनी रहने दो।
पता नहीं घर वाले
सोते कब, और जाने कब जगते हैं
पात्र पराए टीवी के
सब किन्तु बहुत अपने लगते हैं।
मन करता धारावाहिक सब
आज अभी से बन्द करा दूँ
उनको भी संबंध
बिखरने का थोड़ा-सा गम सहने दो।।
अरे ज़रा टीवी से
बोलो, कुछ क्षण शान्ति बनी रहने दो।
दुरभिसंधियों से
टीवी की,बैठक की सड़ गईं हवाएं
ऐसे कुटिल कहाँ होते
हैं, कहाँ मिलें ऐसी ललनाएँ
आभासी इस इन्द्रजाल
को छिन्न-भिन्न कर बाहर निकलो
बच्चों को लोरियाँ
पुनः दो, प्रिय को बाँहों के गहने दो।
अरे ज़रा टीवी से
बोलो, कुछ क्षण शान्ति बनी रहने दो।
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