आम आदमी
डॉ. रामवृक्ष सिंह
आम आदमी जो अब तक था दिखता महज़ कतारों में।
जिसकी गुरबत मिटा रहे थे नेतागण बस नारों में।।
आम आदमी जिसे सिसकने का भी था अधिकार नहीं,
अब उसकी पदचाप गूँजती सत्ता के गलियारों में।।
आम आदमी- जिसके मुँह से छीने गए निवाले थे।
आँखों में सौ-सौ सवाल पर जड़े जुबाँ पर ताले थे।।
आम आदमी टुकुर-टुकुर जो बाट जोहता रहता था,
उसका ही जय-गान गूँजता गलियों में बाजारों में।।
आम आदमी- जिसके हिस्से आया महज़ छलावा था।
लोकतंत्र काग़ज़ तक सिमटा नारा था या दावा था।
जिसके व्याज अपहरण होता था हर बार भरोसे का,
वही अकिंचन छा जाएगा कल सारे अखबारों में।।
आम आदमी- जो अपनाए सरल मार्ग सच्चाई का।
जिसे भरोसा है अपनी मेहनत से हुई कमाई का।।
कल लिक्खेगा वही आदमी दिल्ली का इतिहास नया,
नई इबारत लिखी दिखेगी कल से सभी इदारों में।।
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