व्यंग्य
सेवा
डॉ. रामवृक्ष सिंह
अपने देश के लोग बड़े सेवा-भावी हैं। जिसे देखिए
वही सेवा करने को उतावला दिखता है। बच्चे पढ़-लिख लेते हैं तो सेवा खोजते हैं।
सबसे ज्यादा अहमियत सरकारी सेवा को दी जाती है। सरकारी सेवा यानी देश की सबसे बड़ी
सेवा। अब यह दीगर बात है कि हिन्दी जैसी वाहियात भाषा के प्रति अपने अहैतुक वैराग
और अंग्रेजी के प्रति अत्यधिक अनुराग के चलते देश के ज्यादातर हिन्दी-भाषी सेवा और
मेवा की वर्तनी में भेद नहीं कर पाते और दोनों को परस्पर अदल-बदल कर लिखने-पढ़ने
लगे हैं। स्वभावतः वे उसी हिसाब से इनका अर्थ भी लगाते हैं। बड़ी सरकारी सेवा यानी
बड़ा सरकारी मेवा। वैसे भी अपने समाज का यह स्वतः सिद्ध सूत्र है- जितनी
महत्त्वपूर्ण सेवा-उतना विपुल मेवा। तो अपने देश के युवाओं और उनके पालकों की पहली
प्राथमिकता होती है सरकारी सेवा। फिर आती है निजी क्षेत्र की सेवा। और जिन्हें
इनमें से दोनों ही पाने या करने का मौका नहीं मिलता या जो सेवा के क्षेत्र में और
भी ऊंचे झंडे गाड़कर अपना और अपने खानदान का नाम रौशन करना चाहते हैं वे करने लगते
हैं स्वयं-सेवा। इसके लिए वे या तो कोई स्वयं-सेवी संगठन बना डालते हैं या खुद
किसी ऐसे संगठन से जुड़ जाते हैं। अपने देश में ऐसे संगठनों की संख्या कई लाख हो
गई है। अब यह आपके संस्कारों पर निर्भर है कि आप इन स्वयं-सेवी संगठनों को अपनी यानी
उनकी खुद की सेवा करने वाला संगठन मानें या अपनी इच्छा से दूसरों यानी देश व समाज
के लोगों की सेवा करनेवाला।
इन क्षेत्रों के अलावा भी अपने देश के सेवा-भावी
लोगों के लिए एक बड़ा कर्म-क्षेत्र है, जिसे समाज-सेवा कहा जाता है। समाज एक
व्यापक अवधारणा है, जिसकी सबसे छोटी इकाई है व्यक्ति। इसलिए प्रायः होता यही है कि
समाज-सेवा की शुरुआत लोग खुद से ही करते हैं। उसके बाद परिवार का नम्बर आता है और
यदि परिवार की सेवा के बाद भी सेवा करने का जोश बरकरार रहता है और उसी की आड़ में
अपना घर भरने का सुअवसर दिखता है तो समाज को धन्य करने में भी गुरेज नहीं करते।
लेकिन समाज-सेवा का केन्द्रीय तत्व है आत्म-सेवा। अंग्रेजी की कहावत है- चैरिटी
बिगिन्स ऐट होम। इस कहावत के सही मायने समझने हों तो हमारे देश के समाज-सेवियों को
नजदीक से देखें।
एक बार अमेरिका सिंह नाम के एक महाशय ने हमारे
सुपुत्र के विवाह के सिलसिले में हमें फोन किया। हमारे और हमारे सुपुत्र के बारे
में खूब पूछताछ की। जब उन्हें पता चला कि अभी हमें सेवा-निवृत्त होने में लगभग आठ
साल बाकी हैं, तो चकित होते हुए पूछ बैठे- अरे भरती होते समय केतना कम लिखा दिए थे
उमिरिया? हम क्या कहते! चुप रह गए। फिर हमने सौम्यतावश उनसे भी पूछ लिया- आप क्या
काम करते हैं? तपाक से वे बोले- समाज-सेवा। हम उनका यह उत्तर सुनकर भाव-विह्वल हो उठे।
हमारे मन में आनन्द की हिलोरें उठने लगीं। वाह! कोई फुल-टाइम, समर्पित समाज-सेवी हमारा समधी
बनेगा, उसकी बिटिया हमारी वधू बनकर हमें और हमारे सुपुत्र को धन्य करेगी! यही सोच-सोचकर हम कुलाबे
मिलाने लगे।
लेकिन हमारा यह सुख कुछ ही मिनट कायम रह सका।
अमेरिका सिंह से फोन करने के बाद हमने अपने समाज के एक ऐसे सज्जन को फोन मिला
लिया, जिनका जिक्र कुछ ही देर पहले अमेरिका सिंह ने अपनी बातचीत में किया था और
जिन्हें संयोग से हम भी जानते थे। उन सज्जन ने अमेरिका सिंह की समाज-सेवा के जो
किस्से सुनाए, उन्हें सुनकर हमारे होश उड़ गए। तब हमें समाज-सेवा के कुछ नए आयामों
का पता चला।
मसलन- समाज-सेवा से आशय है, गाहे-ब-गाहे और अकसर
बिना बुलाए तथा बिना सूचना दिए, और बिना समय या कुसमय का विचार किए, किसी भी
परिचित के घर पधार जाना। फिर वहाँ बेतकल्लुफी से घंटों के लिए पंचायत जमा लेना,
इधर-उधर की बतकही करना, दूसरों की खूब बुराई करना, अपने झूठे-सच्चे कारनामों की
डींगें हाँकना, हो सके तो फोन करके दो-चार और लोगों को भी वहीं बुला लेना, सुबह के
समय पधारे हों तो देर शाम तक या रात तक बैठक जमाए रहना, नाश्ता दर नाश्ता, चाय दर
चाय और यदि आप सुरापान के शौकीन हों तो जाम दर जाम हजम करते जाना। फिर कोशिश यही
करना कि रात के भोजन की दावत उड़ाकर वहीं रैन-बसेरा भी कर लिया जाए। अमेरिका सिंह
का यह सुपरिचय पाकर हमने मन ही मन निर्णय कर लिया कि ऐसे महान समाज-सेवी से रिश्ता
जोड़ने की हमारी औकात इस जन्म तो क्या अगले सात जन्म में भी नहीं बन पाएगी। इसलिए
आगे से हम उन्हें पहचानकर भी पहचानने से इनकार कर देंगे। फिर चाहे वे हमें घोर
असामाजिक और समाज-विरोधी ही क्यों न घोषित कर दें।
कभी-कभी ऐसे समाज-सेवी लोग हाथ में डंडा-झंडा
लिए, कंधे पर झोला-झप्पड़ टाँगे, बसों या ट्रेनों में भरकर, झुण्ड के झुण्ड बिना
टिकट ही शहर पहुँच आते हैं। फिर शहर की यातायात व्यवस्था को तहस-नहस करते हुए, सड़कों
पर जत्थे के जत्थे चलते हुए राज्य की विधान-सभा तक पहुँच जाते हैं। वहाँ उनसे भी बड़े
और धुरन्धर समाज-सेवक गण बारी-बारी से आकर उन्हें संबोधित करते हैं। इसे अपने देश
में रैली कहते हैं। रैली यदि बहुत बड़ी हो तो कोई-कोई समाज-सेवी वैय्याकरण उसे
रैला भी कह देते हैं। ऐसे नए-नवेले शब्द रचनेवाले यास्काचार्यों की अपने देश में
कमी नहीं है। जो समाज-सेवी ऐसी रैलियों या रैलों में भाग लेने पहुँचते हैं, उनके
लिए कभी-कभी नहाने-धोने और खाने-पीने की सुविधा रैलीकारों की ओर से की गई होती है।
('रैलीकार' हमारा खुद का पेटेंटेड शब्द है। इसे हमारी इजाजत के बिना कोई इस्तेमाल न
करे)। साथ ही, उन्हें बुलाने वालों की ओर से कुछ रुपये भी मिलते हैं- ऐसा हमने
सुना है। शहर की दुकानों में लूट-पाट, हुड़दंग और दिन भर नगर-दर्शन भी रैली-सेवा
का ही हिस्सा माना जाता है। (रैली-सेवा भी हमारा अपना ईजाद किया हुआ शब्द है)।
गाँवों और नगरों में कुछ मौलिक सेवादार भी होते
हैं, जो हर मौके पर सहज ही सेवा के लिए पहुँच जाते हैं। यदि किसी के घर में
पारिवारिक विवाद हो जाए, या दो भाइयों में संपत्ति, खेत-बाड़ी के बँटवारे की नौबत
आ जाए तो ये सेवक लोग सहर्ष उपलब्ध हो जाते हैं। ऐसे सेवकों के दर्शन-लाभ लेने हों
तो पंचायत में जाएँ। पंचायत यानी पाँच लोगों का वह समूह जिसमें कथा-सम्राट प्रेमचंद
ने न जाने किस मुहूर्त में और न जाने कौन-सा दिव्य चश्मा पहनकर और न जाने किस कोण
से परमेश्वर के दर्शन कर लिए थे। इन पंचायतों में अकसर उस पक्ष के हितैषियों की
संख्या अधिक होती है जो फैसले के बाद बेहतर सेवा-पानी मुहैया कराने की हैसियत और
मंशा रखता हो। बल्कि पेशतर तो यह माना जाता है कि वह पंचों को पहले से ही
सेवा-पानी कराकर लाया हो। न लाया हो तो मनमाफिक निर्णय हो जाने पर खूब शानदार सेवा-पानी
का वादा तो किया ही हो।
सेवा का अभिप्राय किसी को खिलाना-पिलाना, आव-भगत
करना और हाथ-पाँव दबाना ही नहीं होता। जैसे-जैसे समाज ने तरक्की की है, सेवा शब्द
के भावार्थ में भी खासी तरक्की हुई है। अब किसी के हाथ-पाँव तोड़ना और गरदन दबाना
भी सेवा की परिधि में आने लगा है। किसी दादा या मवाली के चक्कर में फँस जाएं और वह
अपने गुर्गों से कहे कि ज़रा इनकी खातिर-तवज्जो या सेवा-पानी कर दो तो समझ लीजिए
कि उसके बाद आपको मरहम-पट्टी कराने अथवा पलस्तर चढ़वाने के लिए अस्पताल भी जाना
पड़ सकता है और यदि सेवा उससे भी गहनतर हो गई तो सीधे बैकुण्ठ-धाम भी। अब यह आप पर
निर्भर है कि आप अपनी कितनी सेवा झेलने की ताकत रखते हैं।
अभी कुछ दिन पहले एक अखबार में पढ़ा कि अपने देश
के बहुत-से युवा राजनीति को भी कैरियर-विकल्प मानने लगे हैं। सच कहें तो देश-सेवा
का इससे अच्छा कोई और विकल्प हो भी नहीं सकता। इस देश को ऐसे सेवकों की बहुत सख्त
ज़रूरत है। संसद से लेकर सड़क तक, शहर से लेकर गाँव तक, हर जगह राजनीतिक सेवकों की
अच्छी-खासी माँग रहती है। इज्जत भी है और कमाई भी। नाम भी और दाम भी। पढ़ाई-लिखाई
की हो तो भी ठीक, नहीं की हो तो भी ठीक। इस मामले में लालच नहीं करने का। दिल्ली
में नकली डिग्री वाले कुछ मंत्री लोग पकड़े गए तो मन को बड़ी
ठेस लगी। जब अनपढ़ होकर भी मंत्री बना सकता है तो नकली डिग्री दिखाकर खाली-पीली आफत क्यों मोल लेने का! नेता बनने के लिए क्या चाहिए? बस बातें बनाना आता हो। यदि कुछ कम आता हो तो भी चलेगा। बस पागल और दिवालिये न हों और उम्र पच्चीस वर्ष से ऊपर हो। मतदाता सूची में नाम हो। अनिवार्य योग्यता तो बस इतनी-सी है। मन में देश-सेवा का जज्बा हो। न हो तो भी चलेगी। लेकिन किसी तरह मतदाताओं को यकीन हो जाए कि यह व्यक्ति उनकी अच्छी तरह सेवा कर सकता है। कुछ वांछनीय योग्यताएं भी हैं जो सर्वज्ञात हैं। उनका ज़िक्र करके चर्वण का चर्वण क्या करना! बस यूँ समझ लीजिए कि राजनीति के क्षेत्र में भी सेवा के स्वर्णिम अवसर उपलब्ध हैं।
ठेस लगी। जब अनपढ़ होकर भी मंत्री बना सकता है तो नकली डिग्री दिखाकर खाली-पीली आफत क्यों मोल लेने का! नेता बनने के लिए क्या चाहिए? बस बातें बनाना आता हो। यदि कुछ कम आता हो तो भी चलेगा। बस पागल और दिवालिये न हों और उम्र पच्चीस वर्ष से ऊपर हो। मतदाता सूची में नाम हो। अनिवार्य योग्यता तो बस इतनी-सी है। मन में देश-सेवा का जज्बा हो। न हो तो भी चलेगी। लेकिन किसी तरह मतदाताओं को यकीन हो जाए कि यह व्यक्ति उनकी अच्छी तरह सेवा कर सकता है। कुछ वांछनीय योग्यताएं भी हैं जो सर्वज्ञात हैं। उनका ज़िक्र करके चर्वण का चर्वण क्या करना! बस यूँ समझ लीजिए कि राजनीति के क्षेत्र में भी सेवा के स्वर्णिम अवसर उपलब्ध हैं।
अपने देश की अर्थ-व्यवस्था में सेवा क्षेत्र की बहुत
अहमियत है। देश के सकल घरेलू उत्पाद में सेवा क्षेत्र का योगदान पचपन प्रतिशत से
भी अधिक है। इसी से इसके महत्त्व को समझा जा सकता है। हो भी क्यों नहीं, अपने देश
का हर आदमी तो किसी न किसी प्रकार की सेवा में जुटा हुआ है! अहर्निशं सेवामहे! वैसे तो यह नारा अपनी जीवन
बीमा कंपनी का है, लेकिन देश के करोड़ों दूसरे लोग भी रात-दिन सेवा-कार्य में जुटे
हैं। ऐसे देश-सेवकों को हमारा शत-शत नमन।
No comments:
Post a Comment