मन, तबीयत, सेहत और स्वास्थ्य
डॉ. रामवृक्ष सिंह
आज एक रिक्शेवाले को अपने साथी रिक्शेवाले से
कहते सुना- आज मन नहीं रहा। जिस तरह बु झे हुए स्वर में उसने मन न रहने की बात
कही, उससे स्पष्ट था कि आज उसका स्वास्थ्य कुछ खराब था या है। साहित्य और अध्यात्म
के क्षेत्र में मन का अभिप्राय हृदय, भावना, चित्त आदि होता है। उदाहरण के लिए,
भक्त कवि सूरदास के यहाँ मन का अर्थ है- दिल। इसीलिए गोपियाँ उद्धव से कहती हैं-
ऊधौ मन न भए दस-बीस। एक हुतौ सो गयो स्याम संग, को अवराधे ईस।। एक ही दिल था, वह
भी श्याम को दे दिया। अब ईश्वर की आराधना के लिए दूसरा दिल कहाँ से लाएँ? मन और मस्तिष्क को
लोग अलग-अलग मानते हैं। शरीर-विज्ञान की दृष्टि से मन और मस्तिष्क, दोनों अलग-अलग
हैं, यह मानने का कोई कारण नहीं है। जो है तो मस्तिष्क ही है। वही सोचता है, वही
विचारता है। वही अनुभव करता है, वही अपनी स्मृति के अनुसार, अच्छा और बुरा मानता
है। और जैविक रूप से चाहे वह एक हो, किन्तु प्रायः उसकी वृत्तियाँ अनेक होती हैं।
कभी इसको पसंद किया, तो कभी उसको। इसीलिए आदमी अपने जीवन में परिस्थिति और
अवस्थानुसार, कई-कई बार प्यार करता है, कई-कई बार घृणा करता है, कई-कई देवताओं से लौ
लगाता है। भूलता है, बिसराता है, चकित होता है, पछताता है, भावुक होता है, क्रुद्ध
होता है। यानी भावना और चिन्तन के स्तर पर मनुष्य जो भी कुछ करता है या उसके भीतर
इन स्तरों पर जो कुछ भी घटित होता है, वह सब मस्तिष्क में ही होता है। दिल तो
बदनाम भर है। वह तो एक उद्वाहक यानी पम्प
है, जो एक ओर से खून खींचता है, दूसरी ओर से जोर लगाकर पम्प कर देता है, ताकि रक्त
का संचार पूरे शरीर में होता रहे। अलबत्ता जब मस्तिष्क में ज्यादा ऊहा-पोह मची
होती है, ऐड्रेनिल बढ़ा होता है या परिश्रम करने के कारण शरीर के अंगों, हाथ-पैर
आदि की गति तेज होती है और फेफड़ों को ज्यादा हवा खींचनी-फेंकनी पड़ती है, तब दिल की ड्यूटी बढ़ जाती है। उसे ज्यादा तेजी
से काम करना पड़ता है। शायद इसी कारण लोगों को भ्रम होता था कि भाव-जगत का संबंध
दिल है, और चिन्तन तथा विचार-विवेक आदि का दिमाग से। लोगों ने तो बाकायदा कहावत
बना दी कि दिल से काम न लेकर दिमाग से काम लेना चाहिए, जबकि सच्चाई यह है कि जिसे
दिल से यानी भावना से काम लेना कहते हैं, वह भी उसी मशीन में होता है, जिसे दिमाग
कहते हैं। खैर...।
उर्दू इदारों में मन को ही तबीयत कहा जाता है।
इसे कुछ लोग तबियत भी लिखते हैं, किन्तु उच्चारण को देखते हुए हमें ब में दीर्घ ई
लिखना ही उपयुक्त लगता है। तबीयत से जुड़े कई मुहावरे और लोकोक्तियाँ उर्दू में
मशहूर हैं। मसलन लोग कहते हैं कि उनको देखते ही तबीयत हरी हो गई, यानी मन प्रसनन्न हो गया। किसी बुरी
वस्तु को देखकर या बुरी बात का वर्णन सुनकर भी लोग कहते हैं कि तबीयत खराब हो गई,
यानी चित्त खराब हो गया। उर्दू तबीयत हिन्दी मन का ही पर्याय है, इसमें कोई संदेह
नहीं। किसी हिन्दी फिल्म का गीत है- पास बैठो तबीयत बहल जाएगी। मौत भी आ गई है तो
टल जाएगी। इससे यह तो पक्का हो गया कि तबीयत का एक अर्थ मन भी है।
इसके बावजूद हिन्दी प्रान्तों में प्रायः लोग
अस्वस्थता का बखान करने के लिए इस शब्द का इस्तेमाल करते हैं। आज तबीयत ठीक नहीं
है। ज़नाब की तबीयत कुछ नासाज लग रही है। अमुक-अमुक की तबीयत बहुत दिनों से खराब
है। इन सब वाक्यों में तबीयत से आशय स्वास्थ्य से ही है। भोजपुरी इलाकों में तबीयत
सकारात्मक अवधारणा है। यानी तबीयत है, इसका आशय है कि स्वस्थ हैं। तबीयत नहीं है,
इसका अभिप्राय है कि तबीयत खराब है। इसीलिए यदि कोई अस्वस्थ होता है तो
भोजपुरी-भाषी कहते हैं, आज तबीयत ना बा। तबीयत को वे तबेयत भी कहें तो कोई आश्चर्य
नहीं।
जिसका ज़िक्र अब तक हमने मन और तबीयत के पर्याय
के रूप में किया, उसे अगर निर्भ्रान्त शब्दों में कहना हो तो कहेंगे-
स्वास्थ्य(संस्कृत-हिन्दी) अथवा सेहत (उर्दू)। आजकल स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं चल
रहा। अब अटलजी का स्वास्थ्य कैसा है? अब ज़नाब की सेहत कैसी है? इन सब वाक्यों में सेहत या स्वास्थ्य का
अर्थ शरीर के भला-चंगा होने से है। इनके साथ यदि मानसिक शब्द जोड़ दें तो अभिप्राय
होगा मन/मस्तिष्क
का स्वास्थ्य।
किसी संत ने कहा था- चाह गई, चिन्ता मिटी, मनवाँ
बेपरवाह। हमको कछू न चाहिए, हम साहों के साह। इससे भी स्पष्ट है कि चाह, चिन्ता और
परवाह ये सब मन से जुड़ी संकल्पनाएं। मन यानी मस्तिष्क में घटित होनेवाली वे
क्रियाएँ जो हमारे संज्ञान में हैं- ऐच्छिक क्रियाएं। इसमें वे अनैच्छिक क्रियाएं
या भाव-दशाएं भी शामिल हैं, जिनके सामने हम लाचार हो जाते हैं और कह उठते हैं- ये
दिल है कि मानता नहीं। यों चार शब्द भी वश या इच्छा का ही पर्याय है। लाचार या
नाचार यानी जो वश में न हो और चार यानी जो वश में हो, जो हमारे मन के काबू में हो।
इसीलिए मशहूर शायर साहिर लुधियानवी ने लिखा-
कौन मरता है मोहब्बत में, सभी जीते हैं।
चार-ओ-नाचार ये ज़हराब सभी पीते हैं।
भारत और भुखमरी, बदहाली, गरीबी परस्पर पर्यायवाची
रहे हैं। खाते-पीते, संपन्न लोगों की संख्या इस देश में बहुत कम ही रही है। आम
आदमी तो अभावग्रस्त और गरीब ही होता आया है। इसलिए अभी हाल तक कोई व्यक्ति मोटा और
पुष्ट दिखे तो यह माना जाता था कि वह स्वस्थ है। पतला-दुबला आदमी भी कभी स्वस्थ
हो सकता है, यह कोई नहीं सोचता था। इसलिए
यदि कोई मुटा जाता था तो लोग कहते थे- वह थोड़ा हेल्दी है। बहुत मोटे व्यक्ति को
बहुत हेल्दी कहनेवाले भी हैं। किसी की बेटी थोड़ी गदबदी हो तो लोग कहते थे- उनकी
बिटिया थोड़ी स्वस्थ है। किसी युवक के डोले-शोले बने हों, सीना चौड़ा हो, बाहें और
जाँघें भरी-भरी हों तो लोग कहते थे कि वह सेहतमंद है, और यदि उसने वर्जिश करके
सेहत बनाई हो तो लोग कहते थे कि उसने सेहत कमाई है।
सेहत या स्वास्थ्य खराब न हो, यानी तन-मन के सारे
विभाग ठीक से काम कर रहे हों तो उसे तन्दुरूस्त होना कहते हैं। हालांकि हमें तो यह
लगता है कि तन्दुरुस्त शब्द तन + दुरुस्त से बना होगा, यानी तन का दुरुस्त या ठीक
होना। इसी तर्ज़ पर मन+दुरुस्त बनता तो होता- मनदुरुस्ती। इस लिहाज़ से तन्दुरुस्ती का अर्थ
हुआ तन या शरीर का स्वस्थ होना। लेकिन चलते-चलते यह शब्द अब तन और मन, दोनों के
ठीक होने के लिए प्रचलित हो गया है। जब हम बच्चे थे तो एक साबुन का विज्ञापन
रेडियो पर आता था- लाइफबॉय है जहाँ तन्दुरुस्ती है वहाँ...। लाइफबॉय तन के
कीटाणुओं को धो डालता है। साबुन कीटाणुओं को पूरी
तरह धोता है या नहीं, यह तो वैज्ञानिक और डॉक्टर ही बता पाएँगे। लेकिन यह
साबुन केवल तन की बात करता है, मन की नहीं। इससे इतना तो निश्चित हुआ कि इस साबुन
के सन्दर्भ में तनदुरुस्ती का सम्बन्ध तन से ही है। यह दीगर बात है कि स्वस्थ तन
में ही स्वस्थ मन का निवास होता है।
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