Wednesday, 19 August 2015

बादल (कविता)



बादल (कविता)
      डॉ. रामवृक्ष सिंह

आसमां में मचल रहे बादल।
अब गिरे अब संभल रहे बादल।
छुप गया माहताब है जबसे,
तब से करवट बदल रहे बादल।।

दूर पूरब से हवा आती है।
सोई हसरत को जगा जाती है।
सब्जाजारों में सिहरनें उठतीं
जैसे पंखा-सा झल रहे बादल।

शोख परबत के सरनिगूं सीने।
उनपे मलबूस रेशमी झीने।
छू गया जब से पैरहन उनका
तब से दिन-रात जल रहे बादल।

जैसे आशिक हो कोई आवारा।
या कि बेघर हो कोई बंजारा।
घर बसाने की चाहतें लेकर
रोजो-शब सिर्फ चल रहे बादल।

बिजलियाँ गिर गईं ठिकानों पर।
हसरतें लेके अपने शानों पर।
और कुछ भी न कर सके हैं गर।
रोजो-शब बस पिघल रहे बादल।

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