तहज़ीब तो इक बेवा है यहाँ (ग़ज़ल)
डॉ. रामवृक्ष सिंह
तहज़ीब तो इक
बेवा है यहाँ, दर-दर की ठोकर खाती है।
हर राह शरीफ़ों के घर की, बाज़ार से होकर जाती है।।
जीता है हमेशा
सत्य अगर, हारा है हमेशा अंधियारा।
इस मुल्क में
ही फिर दोस्त मेरे, क्यों सच्चाई मर जाती है।।
सच कह देना
आसान मगर, सच सह पाना बेहद मुश्किल।
इसलिए सत्य
संभाषण पर जाँ ले ली अकसर जाती है।।
जब जड़ जाते
ताले मुख पर, तब मौन मुखर होता अकसर।
क्यों शोर निज़ामत करती है, आवाम से जब डर जाती है।।
सादिक न रहा कोई भी यहाँ, ईमान रखा गिरवी सब ने।
चाहा तो बहुत कह दें हम भी, पर बात न लब पर आती है।।
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