Tuesday, 21 July 2015

अच्छा अनुवाद कैसे करें? -डॉ. आर.वी. सिंह, उप महाप्रबन्धक, भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक

च्छा अनुवाद कैसे करें?
डॉ. रामवृक्ष सिंह
मार्च 1987 में मैं नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर ट्रेन पकड़ने के लिए खड़ा था। मुझे राजभाषा अधिकारी के पद पर कार्य-ग्रहण के लिए गुंटूर जाना था। मेरी टिकट वेटिंग लिस्ट में थी। जैसे ही बोर्ड पर आरक्षण-सूची टाँगी गई, बहुत-से यात्री अपने-अपने आरक्षण की स्थिति देखने के लिए बोर्ड के आस-पास जुट गए। मैं आगे ही था। एक दक्षिण भारतीय लड़का मेरे ऊपर गिरा पड़ रहा था। मैंने उससे अंग्रेजी में कहा कि मेरे ऊपर तो मत गिरो। लड़के ने अंग्रेजी में ही उत्तर दिया- आय कान्ट हेल्प इट। नए पद पर मेरे बहुत-से दायित्वों में एक दायित्व अनुवाद का भी था। भर्ती परीक्षा भी मुख्यतः अनुवाद पर ही केन्द्रित थी। एम.ए., एम.फिल. के बाद अनुवाद में डिप्लोमा और अनुवाद-परीक्षा के आधार पर ही मुझे वह नौकरी मिली थी। मैंने मन ही मन आय कान्ट हेल्प इट का अनुवाद कर डाला- मैं इसकी मदद नहीं कर सकता। उस समय अंग्रेजी भाषा का मेरा ज्ञान बिलकुल सतही था, और मैं अंग्रेजी बोलने वालों के संपर्क में बिलकुल भी नहीं रहा था। मैं कैसे जानता कि आय कान्ट हेल्प इट का अभिप्राय है- मैं असहाय हूँ।
अनुवाद करने के लिए स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा के कुछ शब्दों, व्याकरण-सम्मत वाक्य-निर्माण का ज्ञान हासिल कर लेना ही पर्याप्त नहीं है। अनुवाद की प्रक्रिया इतनी जटिल और संश्लिष्ट है कि उसे फार्मूला-बद्ध करके यह नहीं बताया जा सकता कि अच्छा अनुवाद कैसे करें। (इसीलिए कंप्यूटर कभी भी सौ प्रतिशत सही अनुवाद नहीं दे सकता)। अलबत्ता अच्छा अनुवाद करने की पूर्वापेक्षाओं और अच्छे अनुवाद की प्रक्रिया का यथाशक्य तथ्यात्मक वर्णन करने की चेष्टा अवश्य की जा सकती है। यह बिलकुल ऐसे ही है, जैसे कोई उसान बोल्ट से पूछे कि दस सेकंड से कम समय में सौ मीटर की दौड़ कैसे पूरी की जा सकती है। उसान बोल्ट दौड़ कर दिखा सकते हैं कि यह कारनामा कैसे किया जाता है, किन्तु उसे शब्दों में बयान करना शायद उनके लिए कठिन हो।
हिन्दी प्रान्तों के विश्वविद्यालयों में अनुवाद की प्रविधि और प्रक्रिया पढ़ानेवाले वे लोग हैं, जो कई दशक से हिन्दी साहित्य पढ़ाते चले आए हैं। उन्होंने स्वयं कितना समय अनुवाद करते बिताया है, कितनी मात्रा में अनुवाद किया है, अनुवाद करते समय किन-किन कठिनाइयों का सामना किया है और उनका समाधान कैसे किया है, यह यदि कोई उनसे पूछे तो वे शायद ही बता पाएँगे। किताबी बातें बताकर आपको गुमराह चाहे कर ले जाएँ। कारण यह है कि ऐसे अधिकतर अध्यापकों को प्रचुर मात्रा में अनुवाद करने और अनुवाद की समस्याओं से जूझने का कोई प्राथमिक अनुभव नहीं है।
अब हम आते हैं अपने विवेच्य विषय पर- अच्छा अनुवाद कैसे करें? इस प्रश्न में ही एक दूसरा प्रश्न निहित है-अच्छा अनुवाद क्या है? अच्छे अनुवाद के अभिलक्षणों पर अनेक विद्वानों ने अनेक मत दिए हैं। उनका पुनर्कथन करने का यहाँ कोई प्रयोजन नहीं। मेरे तईं अच्छा अनुवाद वह है, जिसमें स्रोत भाषा में कही गई बात बिना कुछ जोड़े-घटाए और मूल कथन की शैली को कायम रखते हुए, लक्ष्य भाषा में इस प्रकार अभिव्यक्त कर दी जाए कि वह पाठक को लक्ष्य भाषा की ही मूल रचना प्रतीत हो, न कि अनूदित।
यहाँ हमें अंग्रेजी से हिन्दी में हुए अकूत मात्रा में किए गए उस अनुवाद की बात कर लेनी चाहिए, जिसपर प्रायः यह तुहमत लगाई जाती है, कि वह इतना कठिन और जटिल होता है कि उसे भी अनुवाद करने की ज़रूरत लगती है। यह सच है। खासकर कार्यालयीन अनुवाद का हाल तो यही है। मुझे कभी-कभी यह लगता है कि इसीलिए राजभाषा नियमों और आदेशों में यह व्यवस्था की गई कि अनुवाद किया हुआ हिन्दी पाठ और मूल अंग्रेजी पाठ अगल-बगल में या ऊपर-नीचे साथ-साथ दिया जाए, ताकि द्विभाषिकता का निर्वाह तो हो ही और जहाँ अपने अटपटेपन और दुरुहता के कारण हिन्दी में अनुवाद किया हुआ पाठ समझ न आए वहाँ मूल अंग्रेजी पाठ देखकर पूरी बात को समझा भी जा सके। मेरे इस कथन को कटूक्ति या मज़ाक कहकर टाला जा सकता है, किन्तु सच्चाई यही है कि अनूदित हिन्दी पाठ प्रायः समझ नहीं आता।
अनूदित हिन्दी पाठ इसलिए नहीं समझ आता, क्योंकि वह अनुवादक को भी समझ नहीं आया था। उसने मक्षिका-स्थाने मक्षिका बैठाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझी। यदि थोड़ा-सा धैर्य रखकर समझ लेता और समझे हुए अभिप्राय को हिन्दी की प्रकृति के अनुसार लिखता तो अभिप्रेत अर्थ पाठक के लिए बोधगम्य हो जाता। लेकिन वह इतना धैर्यवान नहीं है। कई बार वह इतना ज्ञानवान भी नहीं होता। इसलिए शब्द-कोश में देखता है। वहाँ एक ही शब्द के दस-बारह और कई बार उससे भी अधिक अर्थ मिलते हैं। अनुवादक को जो अर्थ रुचता है वह उसी को ले लेता है। इस प्रकार के अनर्गल अनुवाद से बचने के लिए ही कहा जाता है कि अंग्रेजी के ही शब्द को नागरी में लिख लें। लेकिन कई बार अंग्रेजी शब्द का उच्चारण अनुवादक को ज्ञात नहीं होता। एक बार मैंने (राइस) हलर को ह्यूलर लिख दिया। बाद में अपनी गलती का अहसास हुआ। कई बार अनुवादक को संक्षिप्तियों का सही ज्ञान नहीं होता। हाल ही में आयकर विभाग की सामग्री का बड़ा हास्यास्पद अनुवाद किसी ने हमें दिखाया, जिसमें पीएएन यानी पैन का अनुवाद तसला किया गया था, जबकि पैन का अभिप्राय है- स्थाई खाता संख्या।
अच्छे अनुवाद की खासियत है, उसका यथातथ्य होना, स्रोत भाषा की सामग्री की छाया न लगकर लक्ष्य भाषा की मूल सामग्री प्रतीत होना। प्रायः हम पाते हैं कि अंग्रेजी से हिन्दी में अनूदित सामग्री में बड़े-बड़े वाक्य बनाए जाते हैं, जिसमें कर्ता कहाँ है, क्रिया कहाँ है, कुछ पता ही नहीं चलता। बेहतर होगा कि ऐसे वाक्यों को तोड़ लिया जाए और सर्वनामों तथा तत्संगत क्रियाओं के प्रयोग से पूरे अर्थ का ज्ञापन किया जाए। उदाहरण के लिए यह वाक्य देखें-
Vijay Singh, who taught at IIT, Kanpur and is currently a professor and Raja Ramana fellow at Centre for Excellence in Basic Sciences, Mumbai University says weaker students must be put through a preparatory course and the cut off for the same must be revised upward.
इस बड़े वाक्य का अनुवाद बहुत उलझाऊ तरीके से भी किया जा सकता है, किन्तु हिन्दी की प्रकृति के अनुसार किया गया अनुवाद इस प्रकार होगा-
विजय सिंह आईआईटी कानपुर में पढ़ाते हैं। वे आजकल मुम्बई विश्वविद्यालय के बेसिक साइंसेज के सेंटर फॉर एक्सीलेंस में प्रोफेसर और राजा रमणा फेलो हैं। उनका कहना है कि कमज़ोर छात्रों को प्रारंभिक पाठ्यक्रम पढ़ाया जाना चाहिए और उनके लिए न्यूनतम अंकों में संशोधन करके मानदंड ऊँचे कर देने चाहिए।
अंग्रेजी शब्दों के बदले सही-सटीक हिन्दी प्रतिशब्द नहीं होने के बावज़ूद यह अनुवाद वस्तुतः अनुवाद न प्रतीत होकर हिन्दी में लिखा गया मूल कथ्य प्रतीत होता है। यहाँ कुछ अवधारणाओं को समझ लिया गया होता तो अनूदित पाठ में और भी मज़ा आ जाता, जैसे सेंटर फॉर एक्सीलेंस, बेसिक साइंसेज आदि। ये पद संबंधित विषय के कोश देखकर लिखे जा सकते हैं। लेकिन मूल बात है हिन्दी की प्रकृति का ज्ञाता होना और अपने अनूदित पाठ के वाक्य-विन्यास को कृत्रिम होने से बचाते हुए, सहज रखना।
अनूदित सामग्री इसलिए भद्दी और दुरूह लगती है, क्योंकि उसमें स्रोत भाषा के वाक्य-विन्यास की नकल करने की कोशिश की जाती है। इसलिए किसी ने कहा है कि हिन्दी भाषा में अनूदित सामग्री संस्कृत के तत्सम शब्दों के प्रयोग के कारण कठिन नहीं प्रतीत होती, वह अटपटे वाक्य-विन्यास के कारण कठिन प्रतीत होती है। अच्छा अनुवाद वह होता है, जिसमें लक्ष्य भाषा जैसी रवानी हो।
अच्छा अनुवाद कथ्य के प्रति ईमानदार होता है। इसीलिए फिट्जराल्ड ने अनुवाद के बारे में कहा –बेटर अ लाइव स्पैरो, दैन अ स्टफ्ड ईगल। कथ्य के प्रति ईमानदारी तभी संभव है, जब अनुवादक पहले स्रोत भाषा में कही गई बात को पूरी तरह समझे, हृदयंगम करे। फिर उसे अपनी भाषा में यथासंभव समतुल्य प्रतिशब्दों के माध्यम से प्रकट करे। जब तक वह बात को पूरी तरह समझ नहीं लेता उसे अनुवाद करना ही नहीं चाहिए। मैं इसे कहूँगा कथ्य को ओन करना, अपना बनाना। कथ्य को ऐसे कहें जैसे आप अपनी ओर से अपनी भाषा में कह रहे हैं।
अभीप्सित अर्थ को समझने के लिए अनुवादक को मूल लेखक की परिस्थिति और उसकी मनोभूमि में पहुँचना होता है। इसे कुछ विद्वानों ने परकाय प्रवेश की प्रक्रिया कहा। यदि अनुवाद की जानेवाली सामग्री किसी विशेष ज्ञान-क्षेत्र से संबंधित है तो अनुवादक से अपेक्षित है कि वह उस ज्ञान-क्षेत्र का सांगोपांग अध्ययन करे, और तब अनुवाद करे। एक बार पूर्वोत्तरी राज्यों के संदर्भ में मुझे बाँस परियोजना से संबंधित सामग्री अनुवाद करने का मौका मिला। उसमें बाँसों के पुष्पित होने का जिक्र था। आम तौर पर पुष्प जीवन और आनन्द का प्रतीक माने जाते हैं। यदि यह अवधारणा लेकर बाँसों के फूलने की अवस्था का अनुवाद करें तो अनर्थ हो जाएगा, क्योंकि बाँसों का फूलना और फिर उनमें धान जैसी बालियों का आना पूरे बाँस-क्षेत्र के सूखने और चूहों की आबादी बेतहाशा बढ़ने का संकेत है। बाँस के बीज खाकर चूहों की प्रजनन-क्रिया बहुत तीव्र हो जाती है और उनकी आबादी इतनी बढ़ जाती है कि वे पूरे इलाके में अकाल जैसी स्थिति पैदा कर देते हैं। फूलने के बाद बाँस का पूरा झुरमुट मर जाता है। चूहों की अधिकता से प्लेग भी फैल सकता है। इसलिए बाँस का फूलना विनाश का लक्षण है न कि जीवन का। अनुवादक को इन संकल्पनाओं से पूरी तरह परिचित होना चाहिए।
इसका अर्थ हुआ कि अच्छा अनुवाद वह है जो विषय के सर्वांगपूर्ण अध्ययन के उपरान्त किया गया हो। विषय का सर्वांगपूर्ण अध्ययन, स्रोत एवं लक्ष्य, दोनों भाषाओं का अच्छा ज्ञान होने के साथ-साथ अच्छा अनुवाद करने की आकांक्षा रखने वाले अनुवादक में एक और योग्यता का होना जरूरी है। वह है सृजनात्मकता।
अच्छा सर्जक ही अच्छा अनुवादक हो सकता है। इसीलिए हिन्दी के ज्ञान-साहित्य और ललित साहित्य में जितने अच्छे अनुवाद हुए हैं, उनके करनेवाले अच्छे सर्जक ही रहे हैं। वे पहले अच्छे साहित्यकार थे, बाद में अच्छे अनुवादक बने। यह भ्रामक अवधारणा है कि जो रचनात्मक नहीं हैं, यानी लिख नहीं पाते वे अनुवादक बन जाते हैं। अनुवाद का काम यदि कोई मज़बूरी में कर रहा है तो बेहतर होगा कि वह यह कुचेष्टा न करे। उसके वश में नहीं है अच्छा अनुवाद करना।
अनुवाद पुनर्सृजन है। सच कहें तो इस दृष्टि से वह सृजन से भी गुरुतर कार्य है। सर्जक को छूट होती है कि जहाँ चाहे, वहाँ जाए। जैसा चाहे, वैसा लिखे। उसे किसी दायरे में रहकर काम नहीं करना होता। उसका खुद का काम ही उसका मानक होता है। इसके विपरीत अनुवादक पर निरन्तर बन्धन रहता है। वह मूल से बंधा हुआ है। मूल की सीमा में रहकर ही उसे कहे हुए का पुनर्कथन करना है। यदि कम कहा तो अर्थ-संकोच हो जाएगा और अधिक कह दिया तो अर्थ-विस्तार।
मेरे तईं अच्छा अनुवाद चौबीस कैरेट के सोने की तरह है। यदि उससे आभूषण बनाएं तो न वज़न में अन्तर आए न गुणवत्ता में। मन करने पर जब आभूषण को पिघलाकर सोने के बिस्कुट में बदलना चाहें तो फिर से उतने ही वज़न का चौबीस कैरेट की शुद्धता वाला सोना मिल जाए। भाषा के संदर्भ में कहें तो स्रोत भाषा से लक्ष्य भाषा में अनूदित सामग्री का अनुवाद यदि फिर से कोई अन्य व्यक्ति स्रोत भाषा में करे और स्रोत भाषा में वही पुरानी सामग्री प्राप्त हो जाए, तो हम कहेंगे कि अनुवाद अच्छा हुआ था। यह तभी संभव होगा, जब हम मूल के प्रति अतिशय ईमानदार रहें और अनुवाद में अपनी मेधा झोंक दें। अच्छा अनुवाद करने के लिए अनुवादक को भाषाओं का अच्छा ज्ञाता तथा विषय का विद्वान होना पहली पूर्वापेक्षा है। कितने अनुवादक इस कसौटी पर खरे उतरते हैं? क्या अनुवादकों को इतना पारिश्रमिक मिलता है कि वह देश के विद्वान भाषा-विदों को इस क्षेत्र में उतरने के लिए प्रेरित कर सके? इन मुद्दों पर हम फिर चर्चा करेंगे।

(लेखक ने दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.ए. हिन्दी ऑनर्स (युनिवर्सिटी टॉपर) एम.ए. हिन्दी- (सेकंड टॉपर), एम,फिल हिन्दी-(टॉपर) किया है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान से 1986 में पोस्ट एमए डिप्लोमा इन ट्रांसलेशन थ्योरी एंड प्रैक्टिस (द्वितीय) करने के साथ-साथ लखनऊ विश्वविद्यालय से बैंकिंग शब्दावली का भाषा-वैज्ञानिक विषय पर हिन्दी में पीएच.डी. उपाधि (1996)अर्जित की है। विगत 29 वर्षों से राजभाषा अधिकारी। वर्तमान में उप महाप्रबन्धक (हिन्दी)। भारतीय स्टेट बैंक में महाप्रबन्धक (राजभाषा) चयनित किन्तु पे-प्रोटेक्शन न मिलने के कारण पद-भार ग्रहण नहीं किया।)

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