Wednesday, 10 October 2012

कार्यालय में कर्मयोग (दफ्तरों में प्रचलित निठल्लागिरी पर करारा व्यंग्य)


                              व्यंग्य
कार्यालय में कर्मयोग
                          डॉ. रामवृक्ष सिंह

      गीता का कर्मयोग बड़े काम की चीज है। हालांकि महाभारत की रचना हजारों वर्ष पूर्व उस समय हुई, जब इन्सान के जीवन में अधिक मारा-मारी नहीं थी। जीवन सरल था। पता नहीं उस समय इस दर्शन की कितनी प्रासंगिकता थी। किन्तु आज तो यह बहुत ही प्रासंगिक प्रतीत होता है। कर्मयोग के प्रवर्तक भगवान कृष्ण बड़े दूरंदेश थे। उस सीमित समस्याओं वाले समाज को कर्मयोग का जो मंत्र उन्होंने दिया, वह आज के इस समस्या-बहुल समाज में भी बिलकुल फिट बैठता है। बहुत-से लोगों को हमारी यह प्रपत्ति बेसिर-पैर का राग लग रही होगी, किन्तु सच्चाई यही है।

      चूंकि अपनी दृष्टि बहुत दूर तक नहीं जाती (संजय की भांति-दृष्टि परास से परे का तो खैर कहना ही क्या) इसलिए अपन वही बात करेंगे, जिसके विषय में अपने को कोई भ्रांति हो। हम एक कार्यालय में का करते हैं और यहाँ कर्मयोग की विभिन्न अवधारणाओं को नित्य ही फलित होते देखते हैं।

      उदाहरण के लिए अनासक्त कर्म को ही ले लें, जो कहता है कि कर्म किए जाओ और फल की चिन्ता करो। कर्म करना ही तुम्हारे वश में है, फल तुम्हारे वश में नहीं। देसी भाषा में कहें तो नेकी कर और कुएँ में डाल। यदि हम अपने कार्यालयीन जीवन में इस सिद्धान्त का पालन करें तो कार्यालयीन जीवन सचमुच ही बहुत आसान हो जाए। कार्यालयों में काम करनेवाले अधिकतर लोग प्रायः इस तरह की शिकायत करते हैं कि बॉस को हमारे काम की कीमत नहीं मालूम। हम जान देकर काम करते हैं और कोई हमारे काम की क़द्र नहीं करता। कई बार मातहत लोग खूब मशक्कत करके मसविदे तैयार करते हैं और सोचते हैं कि हमने एक मास्टरपीस मसविदा बनाया है, जिसका अनुमोदन होना तो बिलकुल लाजिमी है। दुनिया की कोई शै नहीं जो इस मसविदे को यथावत स्वीकार करे। लेकिन अक्सर होता इसके बिलकुल उलट है। ऊपर वाला अपने मातहत के सारे किए धरे पर पानी फेर कर फरमान जारी कर देता है- जाइए दूसरा ड्राफ्ट बना लाइए। या फिर उसे ठंडे बस्ते में डाल देता है।  मातहत का दिल टूट जाता है। उसने तो अपनी सारी मेधा, सारी योग्यता इस काम में झोंक दी थी। अपनी ओर से सर्वोत्तम प्रयास किया था। गीता में प्रतिपादित सिद्धान्त- योगः कर्मसु कौशलम्, यानी कौशलपूर्वक कर्म करना ही योग है, का अनुपालन करते हुए उसने अपने काम को पूरी तन्मयता मनोयोग से निष्पन्न किया था। ज़ाहिर है उसे अपने कर्तृत्व से बड़ी उम्मीदें थीं। किन्तु बॉस ने उसे सिरे से खारिज़ करके जैसे दिल ही तोड़ दिया।

      जिसने काम किया है, वह अपने किए हुए काम के प्रति आसक्त है। उसे अपने किए से ममता है। वह चाहता है कि मैंने जो किया उसे हर जगह पहचान मिले। उसके ही आधार पर शेष सारा काम आगे बढ़े। अपने किए हुए के प्रति यह गहरी आसक्ति ही उसके दुख का कारण है। होना यह चाहिए कि वह अपना काम करके आगे बढ़ा दे और फिर आगे का निर्णय आगे वाले पर छोड़ दे- तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा! होता इसके विपरीत है। हम सोचते हैं कि जैसा हमने प्रस्तावित किया है, या जैसा हम चाहते हैं या जिस दिशा में हमने काम को आगे बढ़ाया है, बस आगे वाले सब लोग वैसा ही करते जाएँ। यह तो ऐसा ही हुआ कि ऊपर वाले के विषय में हम मान लें कि उनका स्वयं का कोई व्यक्तित्व ही नहीं है। जो हैं सो हमीं हैं। हम जैसा पसंद करेंगे वैसा ही सबको रुचेगा। सामान्यतया वास्तविक जीवन में ऐसा होता नहीं कि जो तुमको हो, पसंद वही बात कहेंगे। हर कोई अपनी काबिलियत दिखाना चाहता है, अपने को दूसरे से बेहतर सिद्ध करना चाहता है। हम लोग, खासकर निचले स्तर पर कार्यरत लोग गीता का कर्मयोग अपना लें तो बॉस से मिलनेवाली मानसिक व्यथा झेलनी पड़े।

      दरअसल दूसरों पर नियंत्रण करने की दुर्दमनीय इच्छा ही हमारे दुख का कारण है। हम चाहते हैं कि दूसरे लोग वैसा ही आचरण करें जैसा हम कहें। कई बार तो हम अपने दिल की बात खुल कर कहते भी नहीं और फिर भी यह चाहते हैं कि दूसरे लोग हमारे मनमाफिक काम करें। वैसा करें जैसा हमारे दिल में है। इतने अंतर्यामी तो शायद स्वयं नारायण भी हों। हम मंदिर जाते हैं तो वहाँ आनेवाले स्त्री-पुरुषों, लड़के-लड़कियों, वहाँ के समग्र परिवेश, स्वयं भगवान के विग्रह आदि के विषय में हमारे मन में तरह-तरह के विचार, सुविचार और कुविचार आते हैं। फिर भी प्रकट में हम हाथ जोड़े भगवान को ब्लफ करते रहते हैं। यही सोचते हैं कि हमारे मन में जो चल रहा है, भगवान उससे अनभिज्ञ हैं। इसके लिए हिन्दी में एक मुहावरा है- मुँह में राम बगल में छूरी। एक और मुहावरा है- बगुला भगत। यानी मौका मिले तो हम भगवान से भी छल कर लें और प्रकट में बस झूठ बोल-बोलकर उनकी चापलूसी करते रहें। और एक ओर हमारी यह अपेक्षा कि दूसरे लोग हमारे बिना बताए ही हमारे मन की बात जान लें और बिना बताए वह काम करें जो हम चाहते हैं।

      इसके विपरीत गीता का कर्मयोग कहता है कि आप किसी से कोई अपेक्षा करें ही नहीं। अपेक्षा करना ही सारे फ़साद की जड़ है। निरपेक्ष भाव से अपना काम किए जाइए- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। काम पर ही अपना अधिकार है, फल पर नहीं।

      सच कहें तो यह बहुत कठिन है। भौतिकी के सिद्धान्तों के अनुसार, जब किसी वस्तु पर बाहर से कोई बल लगता है और वस्तु अपनी जगह से विस्थापित होती है तो यह माना जाता है कि कुछ काम हुआ है। जितना विस्थापन- उतना काम।  यानी काम का होना तभी माना जाएगा, जब उसका परिणाम वस्तु पर दिखाई दे। इसके विपरीत कर्मयोग में भौतिकीय कर्म का लगभग नकार है। आप बल लगाते जाइए। वस्तु हिलती है या नहीं, इसकी चिन्ता कीजिए। यदि वस्तु हिली ही नहीं तो भौतिकी के अनुसार काम हुआ ही नहीं, लेकिन कर्मयोग के अनुसार आपने काम किया, बराबर किया। चाहे दिखे नहीं, पर काम हुआ, नहीं हुआ तो भी आप मान लीजिए कि हुआ और यदि सचमुच ही नहीं हुआ, तो भी खाली-पीली अपना भेजा मत खराब कीजिए। बस आप तो बल लगाते जाइए।

      सरकारी दफ्तरों में बहुत से लोग बस इसी सिद्धान्त का अनुसरण करते दिख जाते हैं। वे भीतर ही भीतर बहुत बल लगाते हैं। मानसिक स्तर पर बहुत काम करते हैं, किन्तु प्रकट में कुछ भी परिणाम नहीं दिखता। उनके वरिष्ठ सहकर्मियों को यदि गीता के कर्मयोग का ज्ञान हो तो वे इस बात का कतई बुरा नहीं मानेंगे।

      आखिर में बताते चलें कि यदि आपको कोई काम कराना है तो उस आदमी को सौंपें जो व्यस्त है। वही आपका काम कर सकता है। जो आदमी खाली बैठा है उसे काम न दें, क्योंकि उसके पास आपका काम करने के लिए समय नहीं है। वह बहुत बिजी है। बिजी विदाउट बिजनेस!!
 
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