कहानी
मुखाग्नि
डॉ. रामवृक्ष सिंह
‘‘बेटा, शाम को लौटते समय जरा ये दवाइयाँ लेते आना।’’ प्रदीप कुमार दफ्तर जाने के लिए मुख्य द्वार खोल ही रहे थे कि पीछे से वृद्धा
माताजी के कांपते हुए स्वर सुनाई पड़े। वे रुककर पीछे मुड़े। आगे बढ़कर पर्चा लिया
और ‘‘जी अच्छा’’ कहते हुए पर्चे को मोड़ते हुए द्वार से बाहर निकल गये। प्रदीप कुमार इस कोठी
में किरायेदार हैं। यह मकान उनको कंपनी की ओर से लीज़ पर मिला है। बड़ा परिवार है उनका- रिटायर पिता, वृद्धा माँ, पत्नी और दो बच्चे। दो कुँवारे भाई अच्छी
नौकरी में हैं और साथ ही रहते हैं। संयुक्त परिवार का ताना-बाना कायम है। कोठी के पिछले हिस्से में
निहायत ही वृद्ध दंपती रहते हैं- मिश्रा दंपती। वे इतने वृद्ध हैं या इतने वृद्ध दिखते हैं कि चालीस वर्षीय प्रदीप
कुमार और उनके भाई उनको अंकल-आंटी कहते झिझकते हैं। बड़ी हिम्मत जुटाकर उन्होंने वृद्ध मिश्राजी को पंडितजी
और उनकी पत्नी को माताजी कहकर संबोधित करना शुरू किया।
दो वर्ष पूर्व प्रदीप कुमार ने अखबार में विज्ञापन पढ़कर यह मकान खोजा और लीज
के लिए कंपनी को प्रस्तावित किया। लखनऊ में
कंपनी की निर्धारित किराया-सीमा में ऐसा मकान मिलना कठिन था। पुराना लेकिन अच्छा बड़ा मकान था। चार शयनकक्ष, एक हॉल, बड़ी सी रसोई और लॉबी, तीन बाथरूम, आगे लॉन। मकान के पिछवाड़े में नौकर के
लिए अलग से कमरा, बाथरूम और किचन की व्यवस्था थी, जिसमे वृद्ध मिश्रा दंपती न जाने कबसे रहते थे। मकान मालिक अनिल मिश्रा भोपाल
में रहते थे। वे लखनऊ आये और दिन ही दिन में लीज डीड निष्पादित करके भोपाल लौट गये।
माताजी उनसे पूछती ही रहीं- ‘‘बेटवा एक्कौ दिन रुकिहौ नाहीं का? और दुलहिन कैसन बाड़ीं’’
‘‘नहीं अम्मां। हमका जाय के होई। हुआँ बहुत काम पड़ा है।’’ दुलहिन की बात वे जानबूझकर गोल कर गये।
जाते-जाते प्रदीपकुमार से अतिरिक्त अनुरोध करना नहीं भूले-‘‘कुमार साहब, कृपया किराये का ड्राफ्ट हर महीने भोपाल
भिजवा दिया कीजिएगा और ज़रा मेरे पेरेंट्स को देखते रहिएगा। कोई ज़रूरत हो तो उनके
पास मेरा फोन नंबर है।’’ और इतना कहते हुए अनिल मिश्रा तेजी से स्टेशन
बढ़ लिये थे। उन्हें आधे घंटे बाद की गाड़ी पकड़नी थी।
‘‘हाँ- हाँ मिश्राजी, आप चिन्ता न करें। मैं ड्राफ्ट भी भिजवा दूँगा और पंडितजी तथा माताजी का खयाल
भी रखूंगा।’’ प्रदीप कुमार ने उनको आश्वस्त करते हुए कहा था। न मालूम अनिल मिश्रा ने उनकी
पूरी बात सुनी भी थी या नहीं।
लिहाज़ा प्रदीप कुमार बड़े श्रद्धा भाव से बुजुर्ग दंपती की खोज-खबर रखते थे। पंडितजी मूल रूप से गोरखपुर
के रहनेवाले थे। वहाँ उनकी पुश्तैनी खेती-बाड़ी थी। पास के एक स्कूल में वे पढ़ाते
थे और वहीं से हेडमास्टर के पद पर रिटायर हुए थे। वहीं दोनों बेटे और इकलौती बिटिया
पैदा हुई। दोनों को पब्लिक स्कूल में पढ़ाया। अनिल शुरू से ही होनहार था। उसका चयन
इंजीनियरिंग में हो गया और वह लखनऊ आकर पढ़ने लगा। सुनील ने वाणिज्य से स्नातक किया।
पढ़ाई पूरी करने के बाद अनिल को एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी मिल गयी। पोस्टिंग
भी लखनऊ में ही हो गयी। वहीं सुनील को रेलवे में सहायक स्टेशन मास्टर की नौकरी मिल
गयी। उसकी तैनाती भी लखनऊ के पास ही हो गयी। दोनों लड़कों को व्यवस्थित करने में पंडितजी
की जिन्दगी स्वाहा हो गयी। बाकी जो बचा था वह अनीता के ब्याह पर खर्च हो गया। नियति
की ऐसी मार कि वह भी विवाह के एक वर्ष में ही दामाद समेत सड़क दुर्घटना में मारी गयी।
दोनों बेटों का विवाह पंडितजी ने गोरखपुर के पुश्तैनी मकान से ही किया। वहीं दोनों
बहुएं आयीं। माताजी ने बहुओं के लिए ढेरों गहने बनवाये। फिर पुत्र मोह के चलते पंडितजी
गोरखपुर की जमीन-जायदाद छोटे भाइयों के भरोसे छोड़कर लखनऊ आ गये। अनिल ने कंपनी से ऋण लेकर यह
मकान बनवाया। उधर सुनील की तैनाती बनारस हो गयी और वह वहीं मकान बनवाने लगा। पंडितजी
ने अपने जीवन की सारी पूँजी दोनों बेटों के हवाले कर दी। आखिर अब उनका था भी कौन! ले-देकर यही दो बेटे थे जो उनको वैतरणी पार
कराने वाले थे, उनको मुखाग्नि देने वाले थे।
इसी बीच अनिल को उसकी कंपनी ने जर्मनी में पोस्टिंग दे दी। वह अपनी पत्नी और
दुधमुंही बच्ची के साथ विदेश चला गया। जाने से पहले बस एक दिन के लिए वह माता-पिता से मिलने आया।
‘‘भइया, तूं इतना दूर जात हौ, हम लोगन के कुछ हो जाई त कइसे अइहौ..’’ माँ ने अश्रुपूरित नयनों से बेटे को विदा देते हुए पूछा था।
‘‘अम्मां तुम चिन्ता न करौ। हम आ जाइब। अबहीं तो तुमको बहुत जीवै का है। और सुनील
तो हैं न। ऊ आवत जात रहिहैं।’’ अनिल ने माँ को ढाढस बंधाया और निकल चला
था सात समंदर पार। हाँ, जाते-जाते वह मकान को एक बैंक अधिकारी को लीज पर किराये पर उठा गया और स्थायी निर्देश
दे गया कि किराये की समस्त राशि उसके खाते में जमा करते रहें। माता-पिता के रहने की व्यवस्था उसने पिछवाड़े
वाले हिस्से में कर दी।
पंडितजी को पेंशन के आठ सौ रुपये मिलते थे। उसी में बूढ़े-बूढ़ी को महीना गुजारना होता। लेकिन उनका
खर्च भी क्या था। जीवन भर पढ़ाया था, सो खाली नहीं बैठ पाते थे। जब तक हाथ-पैर हिलते रहे पंडित जी इधर-उधर टय़ूशन आदि पढ़ाकर खुद को व्यस्त रखते।
इसमें समय तो अच्छा गुजरता, कुछ अतिरिक्त आय भी हो जाती। बीच में एक-दो बार एरियर भी मिला। जोड़-जोड़कर उन्होंने कुछ बचत कर डाली और लखनऊ
के बाहरी क्षेत्र में दो छोटे-छोटे प्लॉट खरीद लिये। सोचते थे कि दोनों बेटों को एक-एक प्लॉट दे जाएंगे।
इसी तरह पाँच साल बीत गये। जर्मनी में अनिल की पत्नी की गोद दुबारा भरी। अब वह
दो बेटियों का पिता बन चुका था। कंपनी ने उसकी पोस्टिंग भोपाल स्थित कार्यालय में कर
दी। वह भारत लौट आया और भोपाल में ही रम गया। अलबत्ता मकान को लीज पर उठाने के लिए
वह लखनऊ ज़रूर लौटा था। कंपनी के गेस्ट हाउस में रुका, वहीं से सारी कार्रवाई पूरी की और जाते
समय रस्मी तौर पर माँ-बाप से मिल लिया। बूढ़े माँ-बाप की देख-रेख का जिम्मा किरायेदार को देकर वह भोपाल में अपने परिवार में रमा रहता।
लिहाजा प्रदीप कुमार उसके अद्यतन किरायेदार थे और पंडितजी व माताजी की देखरेख
का अलिखित दायित्व अब उनका था। सुनील की पोस्टिंग अब अयोध्या स्टेशन पर थी। बड़े भाई
की तुलना में वह कम संपन्न था। साथ ही, उसे बार-बार यही लगता की माँ-पिताजी ने मेरे साथ अन्याय किया है। यही कारण था कि वह भी पंडितजी और माताजी
की सुधि लेने नहीं आता था। हालांकि रेलवे में रहते हुए आने-जाने की उसे कोई आर्थिक कठिनाई नहीं थी।
उम्र भला किसे बख्शती है! बुढ़ापे और एकाकी जीवन का दीमक वृद्ध मिश्रा दंपती को खोखला कर रहा था। जिन बेटों
को उन्होंने इतने नाजों से पाला था वे अब बहुओं के ही होकर रह गये थे। आना-जाना या पास रखना तो दूर, वे कभी खोज-खबर लेने भी नहीं आते। पोते-पोतियों की शक्लें देखने के लिए भी वे तरस
जाते थे। तिसपर आर्थिक तंगी और बीमारी का खर्च। पंडितजी को दमा परेशान किये रहता तो
माताजी को गठिया के मारे कहीं आना-जाना मुहाल था। पचहत्तर-अस्सी की उम्र में यही नरक भोगना लिखा था। पंडितजी घंटों खाँस-खाँसकर बेदम हो जाते और माताजी राम-राम करके किसी तरह उनकी तीमारदारी किये
जाती थीं। टय़ूशन पढ़ाना तो कब का छूट गया था। अब तो बस पेंशन का ही सहारा था। जब नहीं
सहा जाता तो माताजी उलाहना देती हुई कहतीं-
‘‘हम तो कितनी बार कह चुकीं कि चलो बड़के भइया के हियाँ चलें। लेकिन ..’’
‘‘क्यों बुढ़ापे में अपनी मिट्टी खराब करवाना चाहती हो! यदि उसे थोड़ी भी चिन्ता होती तो क्या वह
खुद ही न ले जाता। मर जाऊँगा तो मुखाग्नि दे दे, बस इससे ज्यादा उम्मीद मैं नहीं करता उससे।’’ पंडितजी इतना कहते और माताजी का हृदय अनजाने भय से काँप उठता।
बीमारी से बेदम और बुढ़ापे से बेज़ार मिश्रा दंपती को प्रदीप कुमार जी के परिवार
का बड़ा सहारा था। शरीर साथ देता तो दोनों जने प्रदीप कुमार के माता-पिता के साथ बीते जमाने की बातें करते।
सरदियों में लॉन में बैठकर धूप सेंकते। शाम को साथ चाय पीते। लेकिन ऐसी खुशगवार शामें
बहुत कम होतीं। प्रदीप कुमार की अम्मां प्रायः पिछवाड़े में झाँक आतीं- ‘‘आज का बनावा है हो मिसराइन।’’ चौके में घुसते हुए वे पूछतीं।
‘‘आओ, बहन। मूँग की खिचड़ी बनाइन रहिन। किन्तु देखो न ई कुछ खइते नहीं हैं। अब अउर
का बनाई !’’ पति की ओर दृष्टि डालकर वे उलाहना देतीं।
या फिर कहतीं- ‘‘का बनायें! कुछ मन ही नहीं कर रहा। पेटवा बहुत भरा-भरा लग रहा है दोनों जन का..’’
अम्मां लौटतीं तो प्रदीप कुमार उनसे कहते- ‘‘अम्मां उनको कुछ बनवाकर खिला दो। बेचारों
के पास दवा के लिए तो पैसे ही नहीं हैं तो खाना कहाँ से खायें? ’’
मिश्रा दंपती किसी से उधार भी नहीं ले सकते थे कि लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे! लेकिन इस किरायेदार परिवार से कुछ भी छिपा
न था। छिपता भी कैसे? अब वही तो उनके सुख-दुख के साथी थे। अक्सर माताजी डॉक्टर से पंडितजी की दवाएं लिखवा लातीं और पर्चा
प्रदीप कुमार के हाथ में थमाकर दवाएं लाने के लिए लगभग गिड़गिड़ाते हुए अनुरोध करतीं।
पैसे वह जितने देतीं या दे पाती थीं, उतने में दवा आती नहीं थी। हमेशा प्रदीप कुमार को अपनी जेब से कुछ न कुछ लगाना
ही पड़ता। लेकिन वे भी क्या करते! किस मुँह से बाकी पैसे माँगते! इन बुज़ुर्गों के उपेक्षित जीवन में वैसे भी क्या कम दुख थे! ईश्वर की सेवा समझकर वे दवाएं ले आते और
माताजी को सौंप देते। बदले में उन्हें ढेरों आशार्वाद मिलता। वह सारा आशीर्वाद जो मिश्रा
दंपती ने कभी अपने बेटों के लिए बचा रखा था।
दोपहर का भोजन निपटाकर प्रदीप कुमार ने सोचा कि चपरासी से कहकर दवा मँगा ली जाए।
चपरासी को बुलाने के लिए घंटी बजाई ही थी कि टेलीफोन घनघना उठा। दूसरी ओर से उनकी पत्नी
का घबराया हुआ स्वर था-
‘‘सुनिये...पंडितजी सबेरे दस बजे के लगभग एक्स्पायर कर गये। माताजी उनका शव लिये अकेली बैठी
थीं। जब दोपहर को अम्मां उनकी ओर गयीं तो पता चला।...अब हम क्या करें? ... हो सके तो आप तुरन्त चले आइए।’’
‘‘अच्छा मैं अभी पहुँचता हूँ।...’’ कहकर प्रदीप कुमार ने फोन रखा और घर लौटने की तैयारी करने लगे।
सर्दियों के दिन थे। घर पहुँचते-पहुँचते शाम ढल गयी। प्रदीप कुमार के अम्मां-बाबूजी ने माताजी को काफी हद तक संभाल लिया
था। पंडितजी का शव उतारकर जमीन पर उत्तर की ओर सिर करके लिटा दिया गया था। प्रदीप कुमार
के दोनों छोटे भाई भी समय से पहले घर लौट आये थे। प्रदीप कुमार की हिम्मत ही नहीं होती
थी कि माताजी से उनके बेटों के फोन नंबर कैसे लें। फिर भी उन्होंने कलेजा मजबूत करके
पूछा-
‘‘माताजी, अनिल और सुनील भैया के टेलीफोन नंबर हों तो दे दो, उनको फोन करके बुला लें।’’
‘‘ऊ अपनी डयरी में लिक्खे रहेन भैया। रोज सिरहाने रख के सोवत रहेन।’’ माताजी ने बिस्तर की ओर इशारा कर दिया।
डायरी से नंबर लेकर प्रदीप कुमार पंडितजी के दोनों बेटों को फोन कर आये। अयोध्या
से लखनऊ की तीन-चार घंटे की दूरी तय करने में सुनील को लगभग अट्ठारह घंटे लग गये। अनिल भी भोपाल
से अगले दिन लगभग ग्यारह बजे ही आ पाया। सर्दियों की वह रात बहुत लंबी थी। इक्का-दुक्का पड़ोसियों और दोनों छोटे भाइयों
को लेकर प्रदीप कुमार ने पंडितजी के शव के साथ जागरण किया। बहुत इंतजार के बाद सुबह
हुई और उससे भी अधिक इंतज़ार के बाद पंडितजी के वारिस आये।
दोपहर बीतने के बाद भैंसाकुंड के विद्युत शवदाह गृह में दस-बारह लोगों की मौज़ूदगी में अनिल ने पिता
की मिट्टी को इस दुनिया से मुक्ति दी। सुनील तो वहीं से अयोध्या लौट गया। अनिल ने घर
लौटकर शीघ्रता से स्नान करके कपड़े बदले। बूढ़ी-बिलखती माँ को दिलासा के दो शब्द कहने की
भी उसे फुर्सत न थी। उसकी हड़बड़ाहट देखकर माताजी की बूढ़ी पनियाई आँखें भी पथरा गयीं।
अनिल ने उस छोटे से घर की इकलौती अलमारी और बरसों से बंद ट्रंक को खंगालना आरंभ किया।
सारा सामान उलट-पुलट डाला। सामान भी क्या था! पंडितजी और माताजी के सुख के दिनों की कुछ -नाचीज़ सी निशानियाँ थीं- कुछ तस्वीरें, पुराने कपड़े, माताजी के सुहाग की कुछ निशानियाँ, लकड़ी का बड़ा सा सिंधुरौटा और कुछ मुड़े-तुड़े कागज। कागज़ों को देखकर अनिल की आँखों
में बिजली सी कौंधी। किन्तु खोलकर देखा तो उन बिल्लौरी आँखों की चमक गायब हो गयी। वे
तो दोनों भाइयों की जन्म कुंडलियों की मुड़ी-तुड़ी फोटो प्रतियाँ थीं। अंततः जब सफलता
नहीं मिली तो वह माताजी की ओर मुखातिब हुआ-
‘‘अम्मां, तुमको मालूम है, बाबूजी ने जो प्लॉट खरीदे थे, उनके कागज उन्होंने कहाँ रखे हैं?’’
माताजी उस खाट का सिरहाना पकडे रो रही थीं, जिसपर कल तक पंडितजी लेटे रहते थे। दो दिन
से उनके गले में पानी की एक बूंद तक नहीं गयी थी। कल तक वे सुहागिन थीं और आज विधवा।
दो जवान बेटों के होने पर भी बेसहारा। उन्हें अनिल का कहा हुआ एक शब्द भी समझ में नहीं
आया। वे निस्पंद बैठी रहीं। अनिल को कुछ उलझन हुई। उसने खीझे स्वर में फिर पूछा- ‘‘अम्मां, बतातीं क्यों नहीं? बाबूजी ने जो दो प्लॉट खरीदे थे, उनके कागज कहाँ रखे हैं। देखो, ज़रा जल्दी बता दो, मुझे आज रात आठ बजे की गाड़ी पकड़नी है।
वहाँ सुनीता दोनों बच्चियों को लेकर अकेली परेशान होती होगी।"
माताजी की चेतना लौटी। उनकी आँखों से आँसू अविरल बहे जाते थे। सोचने समझने की
अधिक शक्ति उनमें शेष नहीं थी- ‘‘ऊ कगदा तो तोरे बाबू फाड़ के फेंक दिहिन बचवा। कहत रहेन कि अब ....’’
‘‘ठीक है अम्मां। तो अब हम जा रहे हैं। प्रदीप कुमार जी से कह दिया है। वे तुम्हारी
देख-भाल करते रहेंगे।’’अनिल ने माँ की बात बीच ही में काटते हुए कहा और अपना बैग उठा लिया।
‘‘त..तूं.. अभिहैं चला जइहौ का?’’ अम्मां ने जैसे चैतन्य होकर पूछा।
‘‘हाँ अम्मां। हमें आज ही जाना है। वहाँ दोनों बच्चियों के साथ सुनीता अकेली परेशान
हो रही होगी।’’
‘‘ठीक है, बेटा। तुम खूब तरक्की करौ। खूब सुखी रहौ। बस जब हम मर जायं तो हमें भी मुखाग्नि
देने आ जाना। बेटे का फर्ज निभा जाना भइया।’’ अम्मां ने चाहा कि एक बार जी भरकर अपने होनहार बेटे को देख लें। अनिल तेजी से
झुका, माताजी के घुटने छुए और फुर्ती से बाहर निकल गया। निरवलंब माताजी की पथरायी आँखों
से आँसुओं की अजस्र धारा बह निकली। वे जानती थीं कि जीते जी अब बेटों से भेंट नहीं
होगी। प्रदीप कुमार की अम्मां ने कमरे में प्रवेश किया और बोलीं- ‘‘चलो मिसराइन, उठो। कुछ खाय लो।’’ प्रदीप कुमार, उनके दोनों छोटे भाई और बाबूजी सिर घुटाकर लॉन में बैठे, कंडे जलाकर खिचड़ी उबाल रहे थे। वे जानते
थे कि इस विस्तृत मकान में सभी किरायेदार हैं और अपनी-अपनी मुखाग्नि की प्रतीक्षा में हैं।
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