मेधावी और महत्त्वाकांक्षी अभ्यर्थी
अनुवाद और भाषा-कर्म से क्यों नहीं जुड़ते?
डॉ. रामवृक्ष सिंह
बात सन 92-93 की है।
अपनी युवावस्था के उफान वाले दिनों में उस व्यक्ति के सपने बहुत ऊँचे थे। वह किसी
को घास नहीं डालता था। माता-पिता, सगे-सम्बन्धी, इष्ट-मित्र उससे कहते कि अब
तुम्हारी नौकरी भी लग गई, बैंक-खाते में तुम्हारी कमाई के तीन-चार लाख रुपये भी
जमा हो गए हैं, अब तुम किसी सुपात्र व्यक्ति से विवाह करके अपना घर बसा लो। उस
व्यक्ति का मन तो था घर बसाने का, किन्तु उसके मनमाफिक सुपात्र व्यक्ति नहीं मिल
रहा था। दरअसल उसके मन में किसी ऊँचे अधिकारी, प्रशासनिक सेवा वाले अधिकारी से
विवाह करने के सपने पल रहे थे। उसे अपने सपनों की मिनार से उतरने में दस वर्ष लग
गए। तब तक युवावस्था का उफान भी उतरने लगा था। तब उसे मज़बूरी में एक ऐसे व्यक्ति
से विवाह करना पड़ा, जो उसके सपनों वाला व्यक्ति कतई नहीं था। था कहीं उम्रदराज़
और एक मामूली क्लर्क।
यह कहानी सुनाकर मैं
किसी का उपहास नहीं करना चाहता। मैं इस रूपक के माध्यम से उन छात्रों और
अभ्यर्थियों का वर्णन करना चाहता हूँ, जो किसी अन्य विषय में प्रवेश न मिलने के
कारण विवशतावश भाषा और साहित्य पढ़ने के लिए देश के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों
में नाम लिखाते हैं। इस दौरान, डिग्री पाते-पाते एक बार फिर उन्हें लगता है कि इस
सीढ़ी पर चढ़कर, प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से भाषा से इतर क्षेत्रों में
नौकरी पाई जा सकती है और इस प्रकार, भाषा व साहित्य को टाटा-बाय-बाय किया जा सकता
है। एक बार फिर, अपने सुनहरे सपने को साकार करने में विफल होने के बाद, इतिहास को
खुद ही दुहराते हुए, ये अभ्यर्थी मन मारकर अनुवाद, राजभाषा, पठन-पाठन आदि पेशों से
जुड़ते हैं।
आशय स्पष्ट है। अपने
देश में कोई भी महत्त्वाकांक्षी और मेधावी छात्र भाषा और साहित्य में कैरियर नहीं
बनाना चाहता। क्योंकि सच कहें तो वहाँ कैरियर है ही नहीं। कम से कम वैसा कैरियर
नहीं है, जैसा अन्य संकायों और विषयों में है। मेधावी छात्र के लिए उच्चतर कक्षाओं
में भाषा पढ़ने के उद्देश्य से भाषा को अपने अध्ययन का मूल विषय बनाने का अर्थ है-
महत्त्वाकांक्षाओं की आत्महत्या। देश में हर रोज उजागर हो रहे घोटाले सिद्ध करते
हैं कि मेधावी छात्र किसी भी कीमत पर डॉक्टर बनना चाहता है, एमबीबीएस न सही तो
बीएएमएस या बीएचएमएस ही सही । पूरे शरीर का नहीं तो दाँतों का ही सही। डॉक्टर नहीं
तो फिजियो ही सही। वह नहीं तो फार्मासिस्ट ही सही। मेधावी छात्र इंजीनियर बनना
चाहता है, आईआईटी से नहीं तो एनआईआईआईटी से ही सही। वहाँ से नहीं तो किसी नामचीन
निजी युनिवर्सिटी से ही सही। वहाँ से नहीं तो गन्ने के खेतों या ताड़ और खजूर के
जंगलों के बीच खड़ी आलीशान बिल्डिंग में या पान की गुमटी में संचालित किसी
स्वनामधन्य इंस्टीट्यूट से ही सही, जहाँ न लैब है न शिक्षक। कंप्यूटर और
कम्युनिकेशन में नहीं तो मकैनिकल में ही सही। पूरा नहीं तो अधूरा ही सही। मेधावी
छात्र सीए, सीएस आदि करना चाहता है। मेधावी छात्र यदि मज़बूरी में भाषा पढ़ता भी
है तो उस सीढ़ी के बतौर, जिसपर पाँव धरता-धरता वह आईएएस, आईपीएस या पीसीएस, पीपीएस
बनने का अपना सपना पूरा कर सके। वह भाषा को बतौर भाषा और बतौर कैरियर-विकल्प कतई
नहीं पढ़ता। भाषा और साहित्य की पढ़ाई ऐसे छात्रों के तईं बाँस की ऐसी लम्बी सीढ़ी
है, जिसके सहारे वे सत्ता के किले की ऊँची प्राचीर पर चढ़ तो जाते हैं, किन्तु
वहाँ पहुँचते ही सबसे पहले उस सीढ़ी को ही लात मारकर प्राचीर से दूर ठेल देते हैं,
कि कोई यह न जानने पाए कि वे इसी सीढ़ी के रास्ते ऊपर चढ़े हैं। विश्वविद्यालय के
मेरे एक सहपाठी ने हिन्दी लेकर भारतीय प्रशासनिक सेवा में जगह बनाई। बहुत दिनों
बाद जब वे कुछ जूनियर आईएएस अधिकारियों के साथ बैठे थे, और उनमें से एक ने उनसे
पूछा कि सर आपने हिन्दू कॉलेज में किस विषय की पढ़ाई की, तो उन्होंने संक्षिप्त-सा
जवाब दिया- लिटरेचर। पूरी दुनिया जानती है कि लिटरेचर से आशय है-इंगलिश लिटरेचर।
मैंने हिन्दी में एमए किया, यह कहते भी अब हमें लाज आती है। ऐसी लज्जाजनक शै से तो
जल्द से जल्द नाता तोड़ना ही ठीक है।
तो हम कह रहे थे कि
हिन्दी भाषा और साहित्य पढ़ने वे लोग आते हैं, जिन्हें दूसरी जगह ठांव नहीं मिलता।
यह आम प्रवृत्ति है। सार्वभौम न होकर भी आम, यानी बहुसंख्यकों के बारे में सत्य।
इनमें भी जो मौका पा जाते हैं, वे प्रतियोगिताओं में बैठकर, लम्बी और ऊँची छलाँग
लगाकर, इस बाड़े से बाहर निकल जाते हैं। जो बचे रह जाते हैं, उन्हें नौकरी चाहिए
तो उनके लिए विकल्प बचते हैं- अनुवादक, राजभाषा अधिकारी, स्कूल-मास्टरी और
लेक्चरशिप।
इन पेशों में औसत
मेधा के विद्यार्थी के लिए प्रवेश करना अपेक्षाकृत बहुत आसान है। इसलिए तो और भी
आसान है क्योंकि कोई मेधावी व्यक्ति यहाँ आना नहीं चाहता। आना इसलिए नहीं चाहता,
क्योंकि इन पेशों में आदमी की दुर्गति होती है। यहाँ न कोई सम्मानजनक पारिश्रमिक
है, न सामाजिक मान-प्रतिष्ठा, न मर्यादा। न कैरियर में आगे बढ़ने की संभावनाएं हैं
न ऊपर की कमाई (जिसके लिए प्रायः लोग प्रशासनिक सेवा और पुलिस में जाने के लिए जान
देते हैं)।
हिन्दी के राजभाषा
बनने के कारण देश में हिन्दी से अंग्रेजी और अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद की विपुल
संभावनाएँ पैदा हुईं। सरकार ने इस कार्य के लिए विभागों में अमले की व्यवस्था की।
किन्तु उस अमले के कैरियर-विकास और पारिश्रमिक की व्यवस्था संभवतः इतनी आकर्षक
नहीं हो पाई कि मेधावी और प्रतिभाशाली अभ्यर्थी उस ओर खिंचे चले आएँ।
अनुवाद को हमारे देश
में दोयम दर्ज़े का काम समझा गया। सच कहें तो भाषा और साहित्य, कला और संस्कृति को
भी केवल जलसे और दिखावे की वस्तु बनाकर रख दिया गया। हिन्दी का लेखक और कवि इस देश
में भूखा मरता है। प्रकाशक उसकी पुस्तकें नहीं छापता, छापता भी है तो पैसे लेकर,
पुस्तक छाप-बेचकर खुद पैसे बना लेता है और लेखक की रॉयल्टी ही नहीं, उसका मूल धन
भी मार लेता है। हिन्दी शिक्षक को कोई सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता। झूठ-मूठ
पैलग्गी करने से क्या होता है! वह केवल दिखावा है, क्षणिक भावोद्रेक! यही स्थिति अनुवादक की है।
जटिल, तकनीकी साहित्य के अनुवाद के लिए भी सरकारी रेट है 250 रुपये प्रति हजार
शब्द। अनुवादक से लगभग बेगार कराई जाती है। अनुवादक को प्रायः बड़े बाबू के
वेतन-मान में रखा जाता है। बाबू बनने की योग्यता है हाई स्कूल, जबकि अनुवादक को
एमए पास होना चाहिए, स्नातक स्तर पर अंग्रेजी पढ़ी हो और अनुवाद का डिप्लोमा लिया
हो। ऊपर से साल भर का अनुभव भी हो। योग्यता हो पहाड़ जैसी, जिम्मेदारी आसमान से
ऊंची, और पारिश्रमिक व प्रतिष्ठा! क्यों नहीं अनुवादक को राजपत्रित अधिकारी की श्रेणी में
भर्ती किया जाता? क्यों नहीं उसे लेक्चरर से अधिक वेतन दिया जाता? तब देखिए कैसे-कैसे
प्रतिभाशाली लोग आते हैं!
अनुवाद करना कोई
खाला का घर नहीं है। बच्चों का खेल नहीं है अच्छा अनुवाद करना। दोनों भाषाओं पर
अच्छी पकड़, विषय का सम्यक ज्ञान और खूब ढेर सारा धैर्य। जब कथ्य पल्ले नहीं
पड़ता, अंग्रेजी की सौ-सवा सौ शब्दों की वाक्यावली में अर्थ का सिर-पैर कुछ भी समझ
नहीं आता तो अनुवादक का सिर चकराने लगता है। उसके दिल की धड़कन बढ़ जाती है,
रक्त-चाप बेतहाशा बढ़ जाता है। अंग्रेजीदां हर रोज कोई नया शब्द पकड़ लाते हैं,
कोई नयी शैली ईज़ाद कर लेते हैं। कहते कुछ हैं, आशय कुछ और होता है। अंग्रेजी के
माध्यम से हर रोज समृद्ध होता जा रहा दुनिया का ज्ञान-भंडार हर रोज हिन्दी और
भाषाई अनुवादक के सामने एक नई चुनौती पेश करता है।
तिसपर उच्च
अधिकारियों के नखरे। उनके सामने जब अनूदित सामग्री जाती है तो वे उसमें हजार
कमियाँ निकाल डालते हैं। अरे ऐसा नहीं, वैसा। यह कुछ जम नहीं रहा। अंग्रेजी में
ऐसा कहाँ लिखा है? अनुवादक उनसे कहे कि हुजूर, क्यों नहीं आप ही हिन्दी में
सही लिख देते। उच्चाधिकारी को सही हिन्दी आती नहीं, गलत वे लिखेंगे नहीं। गलत
अंग्रेजी चाहे लिखें, किन्तु हिन्दी तो कतई गलत नहीं लिखेंगे। और चूंकि गलत हिन्दी
लिखना उन्हें गवारा नहीं है, इसलिए वे खुद कभी हिन्दी नहीं लिखेंगे, यह तै है। वे
ताउम्र अंग्रेजी लिखेंगे, अनुवादक ताउम्र अनुवाद करेगा। यह केन्द्र सरकार के
दफ्तरों में कयामत तक जारी रहने वाली व्यवस्था है। यानी अनुवादक का पद हमेशा
रहेगा। किन्तु उसके कैरियर, मानदेय, मान-प्रतिष्ठा आदि के प्रति तंत्र का रवैया
ऐसा है कि उस पद पर कभी कोई ज़हीन और महत्त्वाकांक्षी अभ्यर्थी यानी कायदे का आदमी
आएगा, इस मुगालते में न ही रहा जाए तो ठीक।
अच्छा अनुवादक वही
हो सकता है जो निरन्तर पढ़ता-लिखता रहे। जो अपने काम का दीवाना हो। जुनून हो जिसे
अनुवाद करने का। आज के हिसाब से कहें, तो अच्छा अनुवादक और भाषा-कर्मी वही हो सकता
है, जिसे यूनीकोड में तीव्र गति से काम करना आता हो। जो दोयम दर्जे के अनुवादकों
और मजबूरी के कारण इस पेशे में आए लोगों की भीड़ में रहकर भी अपनी प्रतिभा और मेधा
पर धूल की परतें न जमने दे, बल्कि उसका सर्वोत्तम उपयोग अपने कर्तव्य-निष्पादन के
लिए करे। यानी अपनी पूरी क्षमता और मेधा को अपने काम में झोंक दे। लेकिन यह सब
करने के बाद भी यह कदापि न समझे कि अच्छा अनुवाद कर देगा तो उसे संस्था का सीएमडी
बना दिया जाएगा या किसी विश्वविद्यालय का वीसी उसके घर आकर हाथ जोड़कर निवेदन
करेगा कि मान्यवर, आप मेरे अनुवाद विज्ञान विभाग में प्रोफेसरी का पद स्वीकार करने
की कृपा करेंगे क्या? अनुवाद-कार्य से जुड़े व्यक्ति के लिए एक पारिश्रमिक
मुकर्रर है, जो बिलकुल औसत दर्ज़े के हेड क्लर्क के वेतन के बराबर होगा। उसकी सीट दफ्तर के शौचालय के सबसे समीप
ही स्थित होने की सर्वाधिक संभावना है, क्योंकि वहाँ और किसी को नहीं बिठाया जा
सकता। उसके कैरियर विकास की संभावना लगभग नगण्य होगी, क्योंकि भाषा वाले आदमी में
संस्था का ईडी, सीएमडी बनने की योग्यता होगी, यह सोचना मूर्खता है। वह चाहे तो
नौकरी छोड़कर, चुनाव लड़कर राज्य का सीएम, पीएम चाहे बन जाए, किन्तु यहाँ तो उसका
रास्ता बन्द है।
अनुवाद-कर्मचारी और
भाषा-अधिकारी को अपनी पीठ आप ठोकनी आनी चाहिए। मैंने अच्छा अनुवाद किया- वाह जी
वाह। मैंने बढ़िया काम किया- वाह जी वाह। यदि वह अपने-आप खुश रहना सीख ले,
स्वतःस्फूर्त तरीके से काम करे, अपने प्रतिमान खुद रचे, तभी वह निरन्तर उत्कृष्टता
की ओर अग्रसर हो सकता है। उसे यह समझ लेना चाहिए कि मैं अपना मूल्यांकन खुद कर
सकता हूँ। मेरी योग्यता को आँकने की सामर्थ्य किसी में नहीं है और मेरा पावना देने
की औकात किसी माई के लाल में नहीं है। मैं तो स्वांतः सुखाय काम करता हूँ। अपना
काम करके मुझे सुख मिलता है। मैं अपने काम के ज़रिए सेल्फ-रीयलाइजेशन के उस मुकाम
पर पहुँच पाता हूँ, जो हर प्रबुद्ध व्यक्ति का अन्तिम ध्येय होता है। यदि काबिल अनुवादक
और भाषा-कर्मी इस भावना के साथ काम करे, तभी वह इस निष्ठुर व्यवस्था में सुख और
शान्तिपूर्वक जीवित रह सकता है।
सच बात यह है कि
पढ़ाई-लिखाई करनेवाला हर युवा जीवन में भौतिक सफलता की आकांक्षा रखता है, कैरियर
की बुलंदियाँ छूना चाहता है। हमारे देश में अनुवाद, भाषा आदि क्षेत्रों में ऐसी
संभावनाएं नगण्य हैं। इन क्षेत्रों में न दाम है न नाम। तो कोई काबिल आदमी यहाँ
क्यों आए? घूम-फिरकर हम वापस वहीं, उसी प्रश्न पर आ पहुँचते हैं- क्या सुयोग्य और
मेधावी अभ्यर्थी अनुवाद और भाषा के काम से कन्नी काट रहे हैं? यदि हाँ, तो कारण जानते हुए
भी हम कोई उपाय क्यों नहीं कर रहे?
(टिप्पणीः यहाँ भाषा से आशय केवल हिन्दी से नहीं, बल्कि देश
की उन सभी भाषाओं से है, जिनमें अंग्रेजी से अनुवाद हो रहा है।)
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